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चार यक्ष सवाल
-हरिवंश- चार छोटे-छोटे प्रसंग हैं. निजी नहीं. सामाजिक सरोकार से जुड़े, पर मन को मथते हैं. क्योंकि इन से देश-समाज का भविष्य जुड़ा है. हर इंसान का भी. सत्तावासना मोह से अधिक वासना खराब लक्षण है. यह अंगरेजी शब्द लस्ट (कामुक) से गूंजते बोध जैसा अतृप्त. किसी चीज में आकंठ डूबे होने के बाद भी […]
-हरिवंश-
चार छोटे-छोटे प्रसंग हैं. निजी नहीं. सामाजिक सरोकार से जुड़े, पर मन को मथते हैं. क्योंकि इन से देश-समाज का भविष्य जुड़ा है. हर इंसान का भी.
सत्तावासना
मोह से अधिक वासना खराब लक्षण है. यह अंगरेजी शब्द लस्ट (कामुक) से गूंजते बोध जैसा अतृप्त. किसी चीज में आकंठ डूबे होने के बाद भी अतृप्त, पिपासु. शायद एक हद तक मनोवैज्ञानिक मामला. बड़े-बड़े सत्ताधीश आजीवन पद पर रहते हैं. पर दोनों पैर कब्र में होने के बावजूद सत्तावासना नहीं छूटती. सत्ता के सब स्वाद चख लेने के बाद भी पग-पग पर आत्मसम्मान बेच कर सत्ता के भूखे, पद चाहते हैं.
दो मौजूं उदाहरण हैं. गुजरात के. पर ऐसे दृश्य या घटनाएं हर राज्य में हर जगह मिलेंगी. गली-मुहल्ले में भी. दिल्ली के चुनाव से गली-मोहल्ले के काउंसलर तक या गांव पंचायत के चुनाव तक. राजकोट से चार बार लोकसभा सांसद रहे हैं, डॉ वल्लभ कथेरिया. केंद्र में दो विभाग के मंत्री रहे. एनडीए कार्यकाल में. मानव संसाधन, फिर स्वास्थ्य राज्यमंत्री के रूप में. खुद जाने-माने बड़े सर्जन हैं. अपना विशाल अस्पताल है. इस बार नरेंद्र मोदी ने उन्हें टिकट नहीं दिया. खबर थी कि श्री मोदी उनसे खफा थे.
गुजरात के लोगों की बातों पर यकीन करें, तो डॉ कथेरिया ने मोदी को खुश करने के लिए लंबी चिट्ठी लिखी. यह चिट्ठी अतिगोपनीय थी. पर इसके महत्वपूर्ण अंश कुछ ही दिनों बाद अखबारों में आ गये. नहीं मालूम, किसने भंडाफोड़ किया? पर इसके बाद डॉ कथेरिया जी गो सेवा आयोग के अध्यक्ष बन गये. चार-चार बार सांसद, फिर मंत्री, फिर खुद का बड़ा अस्पताल, केंद्र में महत्वपूर्ण पदों, विभागों के मंत्री रहे. इन पदों पर रह लेने के बाद भी गो सेवा आयोग के अध्यक्ष बनने की तड़प या इस पद को स्वीकार करना क्या बताता है? वह भी एमएस, प्रख्यात सर्जन द्वारा. सत्तावासना इंद्रिय अतृप्त जैसा मामला है. छक कर भोगने के बाद भी अतृप्त, प्यासा और भूखा.
इसी तरह गुजरात का एक और प्रकरण है, भावना चिखालिया जी का. जूनागढ़ से चार बाद सांसद रहीं. वाजपेयी जी की सरकार में मंत्री भी. टिकट नहीं मिला. पर अब वह जूनागढ़ म्युनिसिपल काउंसिल में कारपोरेटर हैं. क्या बड़े पदों पर काम कर लेने के बाद भी मामूली पद स्वीकार करने में आत्मसम्मान नहीं जगता? या आत्मसम्मान की कीमत पर ही मिलते हैं बड़े या छोटे पद? कहीं सुना था, किसी सामान्य इंसान का कहा. कि बड़ा बनने का हमें शौक नहीं, क्योंकि बड़ा बनने के लिए हम अपने आप को इतना छोटा बना नहीं सकते.
एक आर्यसमाजी युवा संन्यासी ने सुनाया, अथर्ववेद का प्रसंग. उसमें कहा गया है कि हे मनुष्य ! अपनी आदत सुधारो. तुम उल्लू की चाल मत चलो. यानी मोह-अंधकार से उबरो. उल्लू, मोह और अंधकार का प्रतीक है. तुम भेड़िये की चाल छोड़ दो. भेड़िया, हिंसा और क्रोध का संकेत है. मनुष्य के लिए यह भी प्रार्थना है कि तुम श्वान (कुत्ता) न बनो. श्वान का संदर्भ चापलूसी से है. इससे भी है कि एक कुत्ता, दूसरे से झगड़ता ही है. इसलिए कुत्ते की इन दोनों आदतों से मुक्ति की प्रार्थना है.
गरुड़ का अहंकार न पालो. गरुड़ को अपने पैर और सुंदरता पर अहंकार है. मनुष्य अहंकार से मुक्ति पाये, इसका आशय यह है. गिद्ध की चाल मनुष्य न चले, इसकी चेतावनी है.
यानी लालची न बने. मनुष्य के संदर्भ में अथर्ववेद में यह प्रार्थना है कि ऐसे आचरण छोड़ कर वह चले, बढ़े और जीवन में कुछ करे. पर आज गलाकाट प्रतियोगिता की दुनिया में हम कहां खड़े हैं? या पहुंच गये हैं? पहले हर घर में या खासतौर से गांवों में धर्मग्रंथों का पारायण होता था. कम से कम हर धर्म के उपदेशों से लोगों को नैतिक होने की प्रेरणा तो मिलती थी. हर धर्म के प्रासंगिक हिस्सों से अगर आज भी हम सीखें, तो शायद समाज, आदर्श बनने की दिशा में अग्रसर होगा. पैसे, पद और भोग के प्रबल आर्कषण के बावजूद.
धन्य ममता जी
ममता जी हड़ताल के खिलाफ हो गयीं हैं. पुरानी कहावत है कि जाके पैर बिवाई नहीं फटती, वह दूसरों की पीर (पीड़ा) नहीं जानता. ममता जी आंदोलनों, धरना, प्रदर्शन, रास्ता रोको, रेल रोको की ही उपज हैं. पर, अब उन्हें सच का एहसास हुआ है. पद पर बैठने के बाद. तब जब उन्हें काम कर हुनर दिखाने की जरूरत पड़ी है. उन्हें यानी उनकी सरकार को कामकाज कर यह साबित करना है कि सरकार सक्षम है, कारगर है. वह सृजन कर सकती है. राज्य का विकास कर सकती है. अपने वादे पूरा कर सकती है. उन्हें खुद की योग्यता साबित करनी है.
पद पर बैठ कर उन्हें लगा है कि हड़ताल, सड़क जाम, रेल रोको वगैरह गलत चीजें है. इसी के बल सत्तारूढ़ होने के बाद उन्होंने माना है कि उनकी पार्टी ने ऐसा किया (धरना, बंद, आंदोलन वगैरह), जो गलत था. पर कितना नुकसान कर उन्होंने यह सीखा है? अपने बंद, आंदोलनों, धरनों से उन्होंने नुकसान किसका किया? राज्य का, समाज का, जनता का, देश का? पर इन चीजों से लाभ सिर्फ उनको हुआ है. उन्हें गद्दी मिली. अब उन्हें बात समझ में आ रही है कि सृजन कितना कठिन है और आंदोलन-आलोचना कितना आसान है? हासिल करना, उपलब्धि पाना, विपरीत परिस्थितियों में सृजन करना, सबसे कठिन है.
केरल हाइकोर्ट ने इसीलिए हड़ताल पर पाबंदी लगायी थी. आगे बढ़े देशों का इतिहास पलट लीजिए. दुनिया में इस तरह गैर जिम्मेदार ढंग से न आंदोलन, न धरना, न हड़ताल, न बंद होते हैं, जैसे भारत में होते हैं. जापान, कोरिया वगैरह का उदाहरण देखिए. चीन की बात छोड़ दीजिए. भारत में बात-बात पर हड़ताल, विरोध, काम रोको. पर यह धरना, प्रदर्शन, जाम न हो, इसके लिए जरूरी है, संवेदनशील व्यवस्था का होना, जो लोगों की तकलीफ सुने और तत्काल दूर करे. सृजन या प्रगति ऐसे ही माहौल में संभव है.
विवाद, झगड़ा और संघर्ष के बीच किसी को आगे बढ़ते देखा है? यह अप्रिय चीज समाज में न हो, इसके लिए हर स्तर पर संवेदनशील, सक्षम, गतिशील और कारगर (इफीशिएंट) व्यवस्था चाहिए. ममता जी चाहें, तो अपने हुनर और लियाकत से बंगाल में ऐसी व्यवस्था बना कर पूरे देश के सामने एक नया उदाहरण रख सकती हैं. उन्हें यह करके दिखाना चाहिए. यह उनके लिए मौका है.
बजट के बाद
उदारीकरण के बाद यह सिलसिला चला. बजट आते ही या बजट के पहले और बजट के बाद पूरे देश में बजट की व्याख्या होती है. उसके गुण-अवगुण गिनाये जाते हैं. पर वे मूल सवाल जो बजट को नियंत्रित करते हैं, उन पर कहीं चर्चा नहीं होती. बजट तो आर्थिक नीतियों के गर्भ से निकलनेवाला, हर साल का बच्चा है.
आर्थिक नीतियां मां है. क्या मां के बारे में कभी बहस होती है? मां की सेहत क्या है? वह किस हाल में है? कैसी है? मां ही अगर विकलांग, बीमार और अस्वस्थ है, तो बच्चे (बजट) में समस्या होगी ही. अर्थनीतियों की कहीं व्याख्या होती है? सवाल उठते हैं? बहस होती है? कृषि क्षेत्र की मूल चुनौतियां बनाम उद्योग पर बहस होती है? वेतन विषमता पर बहस होती है? महंगाई क्यों बढ़ती है, इस पर चर्चा होती है? क्यों बड़े-बड़े लक्ष्य अधूरे रह जाते हैं, वर्षों बाद भी, इस पर चर्चा होती है? क्यों वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है? तेल कंपनियों को क्यों सब्सिडी मिल रही है? क्यों हमारे हाइवे समय से पूरे नहीं होते? चीन हमसे हाइवे में क्यों साठ हजार मील से भी अधिक आगे है.
बुनियादी संरचनाएं क्यों खराब हाल में हैं? क्यों बिजली के लिए लोग तरस रहे हैं? क्यों बिजली बोर्ड कंगाल हो गये हैं? क्यों निवेशकों की रुचि नहीं है, बिजली में निवेश करने की? बिजली वितरण में हर साल तीस फीसदी से अधिक बिजली का नुकसान क्यों होता है? 1992 से 2007 के बीच बिजली उत्पादन में, जो वृद्धि का लक्ष्य था, उसमें हम 50.50 फीसदी ही क्यों आगे बढ़े? हमारे विश्वविद्यालय या कॉलेजों की डिग्रियां, क्यों बेरोजगार पैदा कर रही हैं? हर साल भारत में 7.5 लाख इंजीनियर निकलते हैं. सिर्फ पच्चीस फीसदी को ही नौकरी मिलती है, क्यों? क्यों किसानों को अपनी खेती का लाभ नहीं मिलता? बिचौलिये कैसे खा जाते हैं? सब्सिडी का क्या उपयोग हो रहा है?
खाद्य पदार्थों में 60750 करोड़ सब्सिडी है, मनरेगा में 40000 करोड़, स्वास्थ्य क्षेत्र में 26750 करोड़, सर्व शिक्षा अभियान में 21000 करोड़, पेट्रोलियम पदार्थों पर 50,000 करोड़. खेती के लिए खाद पर 34,000 करोड़.
कुल 1.44 लाख करोड़ सब्सिडी कहां जा रही है? भ्रष्टचार में कितना पैसा बह रहा है. मनरेगा कितना उपयोगी है या यह लोगों को काहिल बना रहा है. या इससे कितनी राष्ट्रीय संपदा का सृजन हो रहा है? सर्व शिक्षा अभियान के मास्टर, मास्टर रह गये हैं या ठेकेदार हो गये हैं. भोजन बनवाना, स्कूल बनवाना उनका प्रमुख काम है या पढ़ाना? क्या ये और अर्थव्यवस्था से जुड़े ऐसे अनगिनत सवालों पर कहीं बहस हो रही है?
आदमखोर विकास
जाने-माने लेखक, कहानीकार, फिल्म पटकथा लेखक शैवाल जी ने विकास का यह विशेषण बताया और एक घटना भी सुनायी. कहा, सभ्यता, संस्कृति और समुदाय के बीच एक लयात्मक सूचीबद्धता है. तालमेल है. यह श्रृंखला एक जगह भी टूटी या लय टूटी, तो सब बिखर जाता है. फिर विकास आदमखोर होता है.
उन्होंने किस्सा सुनाया. गया, टेकारी के पास की घटना. एक गरीब प्रतिभाशाली युवा आइएससी में पढ़ता था. गया कॉलेज में. अकेले सात मील पैदल चल कर गया कॉलेज से आइएससी की परीक्षा पास की. घर में सिर्फ विधवा मां थी. कोई और नहीं. बच्चे का आइआइटी में चयन हुआ. फिर पैसे कमाने की होड़ में बच्चा डूब गया.
मां, गांव और संघर्ष पीछे छूट गये. नयी जिंदगी, पैसे का आकर्षण और उपभोग की दुनिया में डूब-रम गया. 35 वर्ष की उम्र में हार्टअटैक हुआ और वह प्रतिभाशाली इंसान नहीं रहा. यह सिर्फ एक बच्चे की कहानी नहीं है, यह हमारे युग की व्यथा है. हमने अपने युवकों को यही संसार दिया है. विकास का मॉडल भी. संसद से सड़क तक कहीं इस मॉडल पर बहस है?
दिनांक : 25.03.2012
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