-हरिवंश-
लेख के शीर्षक (कांग्रेस की देन हैं, नरेंद्र मोदी) का अर्थ-मर्म समझने के लिए अधिक नहीं, पिछले 30 वर्षों की राजनीति पर एक नजर डालें. पर उससे पहले हाल की इन खबरों को फिर एक बार पढ़ लें.
-सितंबर तीसरे सप्ताह की घटना है, मुंबई (कांदिवली, समता नगर पुलिस स्टेशन के मातहत) में हुई वारदात. दिन में अपने भाई के साथ एक लड़की जा रही थी. उद्दंड युवकों ने सरेआम छेड़खानी की. भाई को पीटा. भाई अस्पताल में है. बहन भी जख्मी है. वह लड़की पिछले एक माह से पुलिस के पास जा रही थी. शिकायत कर रही थी कि रोज काम पर जाते हुए, उसे कौन युवा सार्वजनिक रूप से छेड़ते हैं? बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की थी.
-ठाणे (मुंबई) की ही घटना है. 15.09.13 की. चार वर्ष की एक बच्ची के साथ स्कूल बस के क्लीनर ने ‘रेप’ किया.
-यह खबर भी 15.09.13 की ही है. एक नर्स ने पति के साथ आत्महत्या कर ली. दतिया (म.प्र.) में उस नर्स को दो माह से एक गुंडा रोज तंग कर रहा था. पति-पत्नी (नर्स) ने पुलिस से शिकायत की. परिणाम, नर्स के पति को फोन पर धमकी दी गयी. पुलिस के पास जाने के कारण. फिर रोज पति-पत्नी को भयभीत-आतंकित किया जाने लगा. पति-पत्नी दोनों ने एक साथ आत्महत्या कर ली.
-15.09.13 की ही मध्यप्रदेश की एक और घटना. विदिशा (जो कभी बौद्ध ज्ञान का केंद्र था, भोपाल से 55 किमी दूर) में एक युवती के साथ दो लोगों ने बलात्कार किया. उसने आग लगा कर आत्माहुति दे दी. दो दिनों बाद वह छटपटाते हुए अस्पताल में मर गयी. इसी खबर के साथ यह भी खबर थी कि मध्य प्रदेश में हर रोज 24 औरतों के साथ गंभीर छेड़खानी हो रही है.
-16.09.13 की खबर है, बिहार से. एक महिला पुलिस से बलात्कार की कोशिश में बिहार के दो पुलिसकर्मी पकड़े गये. कुछेक दिन पहले ही झारखंड में एक महिला पुलिसकर्मी (जो अपने स्वजन का शव लेकर जा रही थी) के साथ अपराधियों ने रेप किया.
-18.09.13 को बिहार पुलिस ने एक व्यक्ति को पकड़ा, जिसने एक अपाहिज से बलात्कार किया था. कहां पहुंच गये हैं, हम?
-16.09.13 को ही पंजाब के मोगा में एक 13 वर्ष की लड़की के साथ चार लोगों ने ‘रेप’ किया.
-16.09.13 को ही खबर थी कि कलकत्ता के पास एक छह वर्षीय लड़की के साथ ‘रेप’ हुआ. वह क्रिटिकल (नाजुक) थी.
यह सभी खबरें देश के बड़े अंग्रेजी अखबारों में 16-17 सितंबर को छपी हैं. टीवी चैनलों पर इनकी चर्चा हुई. अगर पूरे देश की सभी भाषाओं के सभी अखबारों का गहराई से अध्ययन हो, इन्हीं दो दिनों का (16-17 सितंबर), तो पता चलेगा कि ऐसी अंतहीन, अनंत घटनाएं देश में रोज हो रही हैं. हमने कैसा मुल्क बना लिया है कि जहां एक सामान्य आदमी सुकून से जी नहीं सकता? आदमी से शांति से जीने का अधिकार छिन गया है. भय, डर और आतंक के बीच देश का नागरिक जीने को, घुटने को विवश है, ऐसी स्थिति? कमोबेश पूरे देश की यही स्थिति है?
अराजकता में निरंकुश नेता ही पनपते हैं!
याद करिए,
– मुजफ्फरनगर के दंगे. आधिकारिक तौर पर जहां, 48 लोग मारे गये हैं. 43000 लोग घर छोड़ कर भागे हैं. वहां दंगे शुरू कैसे हुए? यह रोमांटिक कल्पना अब हम भूल जायें कि गांवों में पुराने मूल्य हैं, जहां बहन-बेटी को कोई आंख उठा कर नहीं देखता था. आमतौर से. लोकलाज और परंपरा के कारण. मुजफ्फरनगर में एक लड़की दो भाइयों के साथ जा रही थी, तब उसे छेड़ा गया. छेड़नेवाले को, भाइयों ने मार डाला. दोनों भाइयों को गांववालों ने घेर कर मार डाला. याद रखिए, तब तक यह दंगा नहीं था. छेड़खानी और प्रतिशोध की घटना थी. कैसे सरकार व शासक दल ने इसे दंगे में तब्दील किया, इसे भी जानना जरूरी है. फिलहाल यही याद रखें कि यह दंगा भी इस कारण हुआ कि एक लड़की दो भाइयों के साथ भी सुरक्षित, दिन में गांव के रास्ते अब नहीं गुजर सकती.
हाल की इन घटनाओं को पढ़ कर मुंबई की एक पुरानी घटना याद आयी. 1980-81 की. संभवत: इंडियन एक्सप्रेस में छोटी खबर छपी थी, वह घटना. तब न इंटरनेट था, न मोबाइल, न सूचना क्रांति का आज जैसा दौर! दोपहर को मुंबई के अखबार दिल्ली पहुंचते थे. श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. उन्होंने वह खबर पढ़ी.
खबर थी कि मुंबई के एक इलाके से गुंडों ने एक महिला को उठाया. उसे ले गये. रात भर साथ रखा. महिला के घरवाले परेशान. सुबह वह महिला टैक्सी से घर लौटी. घर आकर कहा, नहा कर आती हूं. उसने केरोसिन डाल कर आग लगा ली, आत्महत्या कर ली. बाथरूम में ही.
तब न टीवी थे, न आज की तरह प्रदर्शनकारी व विरोध करनेवाले. इस घटना के खिलाफ कहीं आवाज तक नहीं उठी थी, क्योंकि 24 घंटे भी नहीं गुजरे थे. लोगों को मौका ही नहीं मिला, विरोध करने का. पर प्रधानमंत्री इंदिरा जी ने इसे जान कर वह काम किया, जिससे गांव के सबसे गरीब आदमी का भी भरोसा ‘राजसत्ता’ के प्रति कायम रहता है कि कानून रखवाला है. कानून का राज है. सरकार का प्रताप है.
महाराष्ट्र पुलिस के डीजीपी को संदेश गया, 12 घंटे में अपराधी चाहिए, नहीं तो आप पर कार्रवाई. पूरी महाराष्ट्र सरकार हिल गयी. मुख्यमंत्री समेत सभी अधिकारियों में हड़कंप. अपराधी पकड़े गये. कठोर कार्रवाई हुई. बिना प्रदर्शन या जनदबाव के.
एक वह दौर था, जब एक महिला के साथ हुई ऐसी घटना से पूरा तंत्र हिल जाता था. प्रधानमंत्री से किसी को मांग नहीं करनी पड़ती थी कि नया कानून बनाओ, अपराधियों को पकड़ो, सरकार आम आदमियों को सुरक्षा दे. बिना बताये सरकार में बैठे लोग अपना फर्ज समझते थे. जरूरत के अनुसार कानून बनाते थे. एक्शन होता था. सरकार और कानून का भय था. आज भयहीन समाज है, अराजक माहौल है. आज रोज ऐसी दर्जनों घटनाएं हो रही हैं. चैनलों पर सुबह-शाम चौबीस घंटे ‘न्याय’ की मांग हो रही है, पर राजसत्ता का प्रताप कायम नहीं हो रहा. औरतों के साथ या दंगों में जो कुछ हो रहा है, लगता है कि देश के शासकों की आत्मा मर गयी है.
कारण? इंदिरा गांधी के कटु आलोचक भी मानते थे कि वह निर्णायक थीं. मधु लिमये जैसे उनके कटु आलोचक ने भी उनकी यह खूबी मानी थी. इंदिरा जी की लगातार कटु आलोचना के बाद भी मधु लिमये ने उनके बारे में लिखा है, ‘इंदिरा जी ने अपने व्यक्तित्व को भारतवर्ष या भारतमाता कहिए, से जोड़ा था. मेरा हर कार्य भारतमाता के गौरव के लिए है. भारतमाता का अपमान मेरा अपमान है और मेरा अपमान भारतमाता का अपमान है- यह उनका गहरा विश्वास था. उसके कारण हमारे पड़ोसियों को ही नहीं, विश्व की महाशक्तियों को भी वह भारतमाता को जलील करने नहीं देती थीं.’
यानी एक मजबूत व्यक्तित्व, दृढ़ राजनेता. उनके बारे में यह भी कहा गया कि अपने मंत्रिमंडल में वह एकमात्र पुरुष थीं. निर्णायक, कठोर और दृढ़. जनता को यह बोध-एहसास करानेवाला कि जब तक हम हैं, अमन- चैन कायम हैं. जनता सुरक्षित है. हर एक का जीवन, मर्यादा और सम्मान सुरक्षित है. आज कांग्रेस राज (केंद्र) में देश में यह बोध कहां रह गया है? इसलिए कांग्रेस के मुकाबले क्षेत्रीय नेताओं की देशव्यापी चर्चा हो रही है. कांग्रेस को आत्ममंथन करना चाहिए कि इस पुरानी पार्टी को क्या हो गया कि आज उसके पास एक ऐसा नेता नहीं है, जिसका अखिल भारतीय प्रताप-असर हो. जिसे लोग गद्दी पर देख कर अपना जीवन सुरक्षित समझ सकें. राजा का प्रताप होता है कि अमन, चैन, शांति से जनता रहे. सरकार या राजसत्ता का गठन ही इसलिए हुआ है कि वह लोगों को सुरक्षा दे. सुरक्षा, राज्य या सरकार का पहला दायित्व है. अगर आज ‘इंदिरा गांधी’ वाली कांग्रेस होती, तो ‘नरेंद्र मोदी’ जैसे नेताओं को शायद गुजरात से बाहर कोई नहीं जानता? अंतत: जनता, नेता में अपने संरक्षक का गुण देखती है. भारत में चक्रवर्ती राजाओं की कल्पना रही है, जो जनता को अमन-चैन से रहने का माहौल दे. न्याय दे. हमारे यहां कल्पना रही है कि आधी रात के घोर अंधेरे में गहने से लकदक एक औरत अकेले पूरा नगर, गांव और राज्य घूम आये, सुरक्षित रूप से. यह कसौटी रही है, कानून-व्यवस्था की. पर आज क्या हालत है? जो लोग उत्तर प्रदेश को जानते हैं, उन्हें पता होगा कि चरण सिंह मुख्यमंत्री बनते थे और अपराधी उत्तर प्रदेश छोड़ कर भाग जाते थे. यहां तक कि कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनते ही उत्तर प्रदेश के बदमाश, अपराधी और गुंडे पलायन कर जाते थे. यह एहसास करानेवाला आज मजबूत नेता देश में कांग्रेस के पास होता, तो अराजकता की यह स्थिति पूरे देश में नहीं होती?
आज कांग्रेस के नेता राशिद अल्वी कहते हैं कि दंगाग्रस्त गुजरात को भी पहले मैंने देखा है, पर मुजफ्फरनगर ने गुजरात को पीछे छोड़ दिया है. ऐसा कांग्रेस के कई अन्य बड़े नेता लगातार कह रहे हैं. अत्यंत आक्रामक रूप में. फिर भी केंद्र सरकार क्या कर रही है? मुजफ्फरनगर दंगों ने देश के सामने एक और बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या वोट बैंक के अनुसार ‘न्याय’ की प्रक्रिया तय होगी?
कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रीय नेताओं ने अपनी-अपनी सरकार को अपना ‘खिलौना’ बना लिया है. क्या ऐसी स्थिति में केंद्र की भूमिका महज मूकदर्शक की होनी चाहिए? प्रशासन ऐसे चलाया जा रहा है, मानो घर की जागीरदारी हो? किसी कानून, संविधान या परंपरा का बोध ही नहीं है? जब देश में ऐसा माहौल हो, तब अराजकता पसरती है और अराजकता के बीच निरंकुश नेता पैदा होते हैं. देश में कांग्रेस के सौजन्य से यह अराजकता पसर रही है और निरंकुश शासकों के उदय की जमीन तैयार की जा रही है. इसलिए दोष, उभरते निरंकुश प्रवृत्ति के नेताओं का नहीं, इन नेताओं के पनपने-जन्मने और चर्चित होने के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करनेवाले शासकों व राजनीतिक दलों का है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा का आधार नहीं था. पर एक घटना (लड़की से छेड़छाड़) से निबटने में संपूर्ण अराजक संस्कृति से उसे बढ़ने का मौका कैसे दिया गया? यह समझना-जानना जरूरी है. इस ‘इश्यू’ की चर्चा इसलिए भी, ताकि ऐसे मामलों में ‘मिसहैंडलिंग’ (सुलझाने में अराजकता) बंद नहीं हुई, तो अराजकता को पसरने-फैलने से रोकना नामुमकिन है.
मुजफ्फरनगर प्रसंग में लखनऊ से ताजा खबर है. उत्तर प्रदेश पुलिस के बड़े अफसर (सहायक महानिदेशक) अरुण कुमार लंबी छुट्टी पर चले गये हैं. पूरे राज्य में वह दूसरे नंबर के बड़े अफसर हैं. अत्यंत ईमानदार और सक्षम अफसर माने जाते हैं. उनका कैरियर रिकार्ड बेदाग और श्रेष्ठ रहा है. वह सीबीआइ में संयुक्त निदेशक थे. अनेक गंभीर मामलों को उन्होंने सुलझाया है. मायावती ने भी उन्हें महत्वपूर्ण पद दिया. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने एडीजी (कानून-व्यवस्था) बनाया. मुजफ्फरनगर के दंगाग्रस्त इलाकों में वह एक सप्ताह रहे. जब हालात सामान्य हुए, तब लौटे. उन्हें राज्य सरकार द्वारा मामले की मिसहैंडलिंग से गहरी नाराजगी थी और अब वह लंबी छुट्टी पर चले गये हैं. क्यों सक्षम और साफ -सुथरे अफसर एक -एक कर नाराज होकर भाग रहे हैं? दुर्गाशक्ति नागपाल का मामला क्या था? अवैध बालू कारोबार करनेवाले लोगों को संरक्षण देने के लिए उन्हें हटाया गया. आरोप लगाया गया कि एक मसजिद द्वारा अनधिकृत जमीन पर बनायी गयी दीवार वह हटा रही थीं. हालांकि उनके जिलाधीश ने लिखित रूप से इसे गलत बताया. हद तो तब हुई, जब मसजिद कमिटीवालों ने भी कह दिया कि वह ऐसा कुछ नहीं कर रही थीं. पर यह सवाल अगर है भी, तो यह साफ होना चाहिए कि क्या किसी मंदिर या मसजिद को सरकारी-सार्वजनिक जमीन पर कब्जा करने का अधिकार है? इस मामले में तो अखिलेश सरकार ने तुरंत कार्रवाई की. क्योंकि सच यह था कि अवैध तरीके से बालू का यह कारोबार सरकार के इशारे पर ही हो रहा था. ऊपर से समाजवादी सरकार ने केंद्र सरकार को यह जवाब दिया कि आप चाहें, तो सारे आइएएस बुला लें.
क्या उत्तर प्रदेश इस देश से बाहर या ऊपर है? अलग देश है? निजी जागीरदारी है? क्या इंदिरा गांधी जैसे नेता के रहते, यह कहने का साहस किसी में होता? यही नहीं, जो तथ्य आये हैं, उनसे साफ है कि कैसे उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगे आमंत्रित किये? दस दिन में दंगाग्रस्त मुजफ्फरनगर में तीन-तीन डीएम और तीन-तीन एसएसपी बदले. किस तरह की आपराधिक गड़बड़ियां मुजफ्फरनगर में हुई हैं. 27.08.13 को मुजफ्फरनगर में तीन मौतें हुईं. इस घटना के बाद तत्कालीन डीएम ने हाउस टू हाउस सर्च (घर-घर की तलाशी) का आदेश दिया. तत्कालीन एसपी ने कुछ दोषी युवकों को पकड़ा, जिन पर दो युवकों की हत्या का आरोप था. उधर से भी कुछेक पकड़े गये. पर आधी रात होते-होते डीएम और एसपी दोनों बदल दिये गये. यह फैसला सपा के नेता लखनऊ में बैठ कर कर रहे थे. स्थानीय सपा नेताओं ने लखनऊ के नेताओं को कहा कि दोषियों की गिरफ्तारी से वोटों का नुकसान हो सकता है? याद रखिए, व्यवस्था में जब न्याय से बड़ा वोट हो जाये, तो देश बचेगा कैसे? दूसरी बड़ी गड़बड़ी हुई कि एक लड़के की हत्या के आरोप में दूसरे दो लड़कों की हत्या हुई. जिस परिवार का एक लड़का मारा गया, उनके द्वारा दूसरे पक्ष के खिलाफ नामजद रिपोर्ट दर्ज हुई. लेकिन जिस परिवार के दो लड़के मारे गये, उनके द्वारा दायर रिपोर्ट में किसी को नामजद नहीं किया गया. सारी सीमा तो तब टूटी, जब एक पक्ष के जो लोग पुलिस द्वारा हत्या के आरोप में पकड़े गये थे, उन्हें थाने से रिहा कर दिया गया. अब स्टिंग आपरेशन से यह मामला साफ हो रहा है कि कैसे मुजफ्फनगर के मिनिस्टर इन चार्ज, आजम खां छोटे स्तर के पुलिस अधिकारियों को निर्देश दे रहे थे कि किसे पकड़ो और किसे छोड़ो? इस स्टिंग आपरेशन से पता चलता है कि जब दंगे हो रहे थे, तब पुलिस धर-पकड़ नहीं कर रही थी. पुलिस द्वारा, आजम खां के निर्देश पर लोग पकड़े और रिहा किये जा रहे थे. यानी संविधान और कानून काम नहीं कर रहा था. एक नेता, संविधान और कानून को अपने हाथ में लेकर मंत्री के साथ-साथ पुलिस अफसर बन बैठा था. उनका आदेश हो रहा था कि जो दंगाई हैं, उन पर कार्रवाई मत करो. इसकी पुष्टि या प्रामाणिकता भी हो गयी. क्योंकि मंत्री ने जिन छोटे पुलिस अफसरों से बात कर यह सब कराया, वे पुलिस अफसर भी अब उन थानों से बदल दिये गये हैं.
इस तरह यह दंगा तो साफ -साफ सरकार द्वारा आमंत्रित दंगा है. क्योंकि लड़की से छेड़खानी और तीन हत्याओं तक यह मामला प्रतिशोध का मामला था, पर नेता के इशारे पर पुलिस ने जब एक वर्ग के दंगाइयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की और दूसरे वर्ग के खिलाफ वह कठोर हो गयी, तब छेड़खानी का यह मामला दंगे में बदल गया. तीसरी बड़ी गड़बड़ी हुई कि घटना के एक दिन बाद बड़े अफसर उस कवाल गांव गये, जहां छेड़खानी की यह घटना हुई. एक पक्ष के घर सभी अफसर गये. जिस घर के दो बच्चे मारे गये थे, वहां कोई नहीं गया. अफसरों के इस दोहरे रवैये से लोगों ने पंचायत बुलानी शुरू की. साफ है कि यह दंगा, प्रशासन ने कराया. ऐसे संवेदनशील मामलों में यह भेदभाव समाज में आग बोने जैसी कोशिश थी. अगली गड़बड़ी हुई कि सपा नेता राशिद सिद्दिकी ने 30.08.13 को मुजफ्फरनगर में भड़काऊ भाषण दिया. लेकिन इनके खिलाफ एफआइआर दर्ज नहीं हुआ. जबकि भाजपा, कांग्रेस और बसपा के नेताओं के खिलाफ एफआइआर दर्ज हुआ. क्या एक ही जुर्म के लिए न्याय दो तरह का होता है? इस तरह के भेदभाव से समाज में गहरे संदेश जाते हैं. नक्सलवाद की उपज के पीछे मूल कारण क्या था? जिनके साथ लगातार भेदभाव होता रहा, उनके मन में आग जलती-धधकती रही. अंतत: यह आग, नक्सलवाद के रूप में विस्फोट कर गयी. किसी कौम, जाति या धर्म के साथ अगर आप भेदभाव करेंगे, तो वह असंतोष की आग विस्फोट बन कर पैदा होगी. वहां के डीएम और एसएसपी एक खास वर्ग की पंचायत में गये और सबसे भड़काऊ भाषण देनेवाले नेता (जिनकी अत्यंत आपराधिक छवि है) से प्रेम से चर्चा करने लगे. दूसरे पक्ष की ओर गये ही नहीं. इन चीजों से सुलगती आग धधकने लगी. इस तरह मुजफ्फरनगर दंगों का मूल दोष तो राज्य सरकार का है. अगर केंद्र सरकार, राज्य सरकार की ऐसी आपराधिक विफलताएं मौनभाव से देखती रहे, तो देश में क्या संदेश जायेगा? यही न कि आज कोई कानून-व्यवस्था नहीं है. उत्तर प्रदेश के दंगों ने एक और बड़ा सवाल खड़ा किया है कि अगर आपके पास वोट बैंक है, तो आपके सौ खून माफ. वोट बैंक नहीं है, तो आपकी कोई हैसियत नहीं. इस मानस के तहत आज देश में जो पारसी हैं, पहाड़िया, जारवा, बिरहोर जैसे आदिवासी हैं, जिनकी संख्या मुट्ठी भर है, उनके साथ अन्याय हो, तो उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं? क्योंकि उनके पास वोट बैंक नहीं है. क्या इसी समाज, व्यवस्था के लिए लोगों ने कुरबानी दी?
दरअसल, आज ये हालात क्यों हो गये हैं? पहला कारण कि राजनीति में गद्दी ही सब कुछ है. वह गद्दी भी पैसे और पावर का प्रतीक है. इसलिए वह चाहिए. कोई सेवा भाव नहीं. आदर्श नहीं. बल्कि कहें, तो लूट और अपार संपदा-सुख पाने का माध्यम भी राजनीति बन गयी है. पर इससे भी आगे इस बीमारी के कारण गहरे और व्यापक हैं. भारतीय मानस के मन से व्यवस्था का आदर या भय दोनों खत्म हो गया है. इसकी वजह हमारी राजनीतिक संस्कृति है. रोज-रोज, बात-बात पर धरना- प्रदर्शन, आंदोलन और विरोध की संस्कृति ने सरकार और सत्ता का अस्तित्व ही खत्म कर दिया है. इनके प्रति न श्रद्धा है, न भय. समाज अपना फर्ज या कर्तव्य जानने-समझने को तैयार ही नहीं है. लोग बेखौफ हैं.
वाल्टर क्राकर, भारत में आस्ट्रेलिया के हाई कमिशनर थे. नेहरू के दौर में. उनकी एक पुस्तक है, नेहरू-ए कंटेंपररी इस्टिमेट. भारत के बदलाव पर बिल्कुल मौलिक दृष्टि से विचार इस पुस्तक में है. एक जगह वह कहते हैं कि ब्रिटिश सरकार को अपदस्थ करने के लिए भारत में जो आंदोलन हुए, उनसे किस तरह की राजनीतिक संस्कृति के बीज बोये गये? उन्होंने लिखा है कि रवींद्रनाथ टैगोर या सप्रू या राजगोपालाचारी ने इन चीजों का विरोध किया था. हर बात पर आंदोलन करनेवालों ने प्रिंसिपल अॅाफ गवर्मेंट (सरकार के सिद्धांत) और प्रिंसिपल अॅाफ अथॉरिटी (सत्ता का सिद्धांत) को ही नष्ट कर दिया. भले ही अंगरेज चले गये, पर जो भी पार्टी हुकूमत में आयी, उसे ये हालात फेस करने पड़े. सत्ता और शासन के सिद्धांत के प्रति भारतीय मन की आस्था खत्म हो चुकी है. वह कहते हैं कि अब सत्ता और सत्ता का प्रताप भारतीय समाज में किराये पर है. किरायेदार को घर में रहने से मतलब है. किसी तरह दिन काटने से. उसकी मजबूती, रखरखाव और अमरता से उसका क्या लेना-देना? क्राकर मानते हैं कि भारत में पूरी तरह सरकार और सत्ता का प्रताप खत्म हो गया है. बिना सर्वसत्तावादी सत्ता के यह कायम होना संभव नहीं है. वह कई उदाहरण गिनाते हैं कि आये दिन कभी किसी शहर में, किसी जगह पर कैसे हुड़दंग करनेवाले, कानून तोड़नेवाले या दंगाई, कानून-व्यवस्था को बंधक बना लेते हैं. सत्ता, सरकार और पुलिस मूकदर्शक बन जाते हैं. क्राकर मानते हैं कि नेहरू ने बड़े सपने देखे. वे बड़े थे. खर्चीले थे. पर उनका असर इतना व्यापक नहीं था कि भारत में ‘स्ट्रक्चरल रिवोल्यूशन’ (ढांचागत क्रांति) हो सके. नेहरू के बड़े सपनों से लोगों के रहन-सहन में बड़ा बदलाव नहीं हुआ. पर नेहरू के बड़े सपनों ने भारत के सामाजिक जीवन और अर्थव्यवस्था दोनों को छिन्न-भिन्न कर दिया. पुस्तक में एक अत्यंत उल्लेखनीय बात क्राकर ने लिखी है कि नेहरू के बड़े सपनों के प्रचार ने भारत की सबसे बड़ी संपदा-धन खत्म कर दिया. वह था, लोगों का संतोष भाव. क्राकर कहते हैं कि भारत गरीब रहा. पुरानी परंपरा का रहा. पर इसके लोगों की एक जीवन पद्धति थी. अपने धर्म-विश्वास थे. कठिन जीवन था. बिना किसी से शिकायत या दुखी हुए वे सामान्य प्रकृति के परिवेश में सुखपूर्वक रहते थे. उन्होंने कहा कि संपन्नता और भोग के देखे बड़े सपनों से भारतीय समाज में अंतहीन भोग की कामना जग गयी. टीवी, कार या अन्य उत्पादित बड़ी चीजों की भूख, खूबसूरत पत्रिकाएं, सिनेमा वगैरह का भारतीय शहरों-गांवों के मानस पर गहरा असर पड़ा. मार्क्सवादी या किसी अन्य विचारों से भी अधिक. याद रखिए, यह दशकों पहले लिखी गयी किताब है. तब नेहरू के इस प्रशंसक व आलोचक लेखक ने भविष्यवाणी की थी भारत में भोग की कैसी प्रबल लहर आयेगी? सरकार और सत्ता की क्या स्थिति होगी? गांधी से दूर हट कर भारत कैसे रास्ते पर चल पड़ा है?
बहुत बाद में जयप्रकाश आंदोलन के दौरान भी एक व्यक्ति ने जेपी को लिख कर कहा था कि कैसे हम लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट कर रहे हैं. सरकार, पुलिस, प्रशासन सबको? फिर शासन चलेगा कैसे? भारतीय समाज में फैल रही अराजकता या मुजफ्फरनगर की घटना को भी समझने के लिए इस प्रसंग को जानना जरूरी है. कैसे-कैसे तत्व आज राजनीति में आ गये हैं, जिन्होंने राजनीति का ताना-बाना ही छिन्न-भिन्न कर दिया है. रामचंद्र गुहा की पुस्तक, भारत : नेहरू के बाद. दुनिया के विशालतम लोकतंत्र के इतिहास में इसका उल्लेख है. इस पुस्तक में वह एक जगह लिखते हैं –
‘जाहिर है, जेपी आंदोलन की कई बुद्धिजीवियों ने आलोचला भी की. खासकर, आंदोलन में शामिल तत्वों पर कई लोगों को गहरी आपत्ति थी. पूर्व आइसीएस अधिकारी और समाजसेवी आरके पाटिल ने इस आंदोलन की व्याख्या करते हुए इसके प्रति अपनी सहजता दिखायी. पाटिल, ग्रामीण महाराष्ट्र में सक्रिय थे और अपने कार्यों की बदौलत लोगों में काफी सम्मानित थे. जेपी के निमंत्रण पर उन्होंने दो सप्ताह का बिहार दौरा किया था और समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों से बातचीत की थी. 4 अक्टूबर, 1974 को जेपी को लिखे अपने लंबे पत्र में उन्होंने कहा कि ‘इसमें कोई शक नहीं कि आंदोलन ने लोगों के मन में भारी उत्साह पैदा किया है और आपकी जनसभा में भारी भीड़ उमड़ी है. लोग शांतिपूर्वक आपको सुनते हैं, लेकिन जब वे अपने पर उतर आते हैं तो अनुशासनहीन हो जाते हैं जैसा कि विधानसभा पर हमले के वक्त और राज्यपाल को जबर्दस्ती उनके सालाना भाषण से रोकते वक्त देखने को मिला था.‘पाटिल ने आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या बिहार में जिस तरीके का आंदोलन किया जा रहा है, वो वाकई गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है? उन्होंने सवाल किया कि हमारे जैसे देश में जहां औपचारिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम है, सत्याग्रह का क्या भविष्य है? उन्होंने कहा कि जनता द्वारा चुनी गयी बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग ‘असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक’ है. पाटिल ने कहा कि यह सच है कि चुनाव प्रक्रिया में सुधार होना चाहिए, इसमें ज्यादा पारदर्शिता होनी चाहिए और इसे धन-बल के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए, लेकिन एक बार अगर चुनाव हो जाता है, तो जनता के फैसले का सम्मान होना चाहिए. उनके मुताबिक राष्ट्र-राज्यों की परिकल्पना में जनता की भावना को चुनावों द्वारा व्यक्त करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है.
‘पत्र के अंत में पाटिल ने लिखा कि इंदिरा गांधी सरकार की खामियों से पूरी तरह वाकिफ हैं, लेकिन वह इस बारे में अभी तक आश्वस्त नहीं हैं कि ‘क्या गलियों-मुहल्लों की बहस से चलनेवाली सरकार, संसदीय बहसों द्वारा बने कानून के तहत चल रही सरकार से बेहतर हो पायेगी?’ पाटिल ने आगे लिखा कि ‘आज आप अच्छाई के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ द्वारा चलाया जानेवाला आंदोलन रॉब्सपियर भी पैदा कर सकता है. यही वजह है कि बिहार आंदोलन जैसे किसी भी आंदोलन से जुड़ने के प्रति मैं अनिच्छुक हूं.’
आज हमने पूरी व्यवस्था को मॉबोक्रेसी वर्सिस ब्यूरोक्रेसी (भीड़तंत्र बनाम नौकरशाही) में तब्दील कर दिया है. साफ है कि आज गलियों-मुहल्लों से लेकर राज्य की राजधानियों तक जो लोग सरकार चला रहे हैं, उनके मानस पर भीड़ का असर है. न्याय-अन्याय का नहीं. जिस जमात की भीड़ अपने नेता को जैसा कहती है, वह वैसे कर रहा है. क्या ऐसे देश चलेगा? हर जगह रॉब्सपियर पैदा हो गये हैं. गली-मोहल्ले तक. वे अपने नेताओं को जैसा कहते हैं, वे वैसा करते हैं.
फर्ज करिए अपराध, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और दंगों के खिलाफ सख्त कानून केंद्र सरकार द्वारा स्वत: बनाये गये होते, तो आज क्या हालात होते? अन्ना के दबाव में केंद्र सरकार ने लोकपाल पर सहमति न दी होती. एक साल पहले दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ जमी भीड़ के आक्रोश से नया कानून नहीं बना होता. मौलिक सुधारों के ये सारे कदम केंद्र सरकार ने स्वत: उठाये होते, तो आज देश में कैसा माहौल होता? लोकतंत्र में नये प्रयोग से शासन को मजबूत करने का काम देश में अकेले बिहार में हुआ. अपराध पर विशेष अदालतें बना कर समयबद्ध फैसला कराना या भ्रष्टाचार के खिलाफ अफसरों की संपत्ति जब्त करने का मामला. आज देश के पैमाने पर ऐसे अनेक सख्त कानूनों की जरूरत है. अगर ये कानून केंद्र सरकार की पहल पर पहले ही बने होते, प्रभावी हुए होते, तो आज देश में न मुजफ्फरनगर होता और न मोदी की चर्चा होती.