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कांग्रेस के अंदर बढ रहा विरोध, कहीं परिवार से बाहर आने का सूचक तो नहीं

लोकसभा चुनाव में करारी हार, फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड के विधानसभा चुनावों में कुछ भी कमाल नहीं दिखा पाने वाली कांग्रेस का जनाधार काफी कमजोर नजर आ रहा है. इधर दिल्ली विधानसभा चुनाव ने तो जैसे उसकी कमर ही तोड दी. 70 विधानसभा सीटों में से एक भी सीट नहीं जीत पाना वो भी तब […]

लोकसभा चुनाव में करारी हार, फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड के विधानसभा चुनावों में कुछ भी कमाल नहीं दिखा पाने वाली कांग्रेस का जनाधार काफी कमजोर नजर आ रहा है. इधर दिल्ली विधानसभा चुनाव ने तो जैसे उसकी कमर ही तोड दी. 70 विधानसभा सीटों में से एक भी सीट नहीं जीत पाना वो भी तब जब उन्होंने वहां 15 साल तक शासन किया है कांग्रेस के लिए गहन चिंतन का विषय है.

अब कांग्रेस की स्मिता पर तो पार्टी के अंदर भी विरोध के स्वर दिखने लगे हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव के दौरान ही पार्टी नेतृत्व को लेकर दबे जुबान ही सही लेकिन विरोध होने लगे थे.पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री रहे शशि थरुर ने भी कांग्रेस नेतृत्व को लेकर बयानबाजी की थी जिसका खामियाजा भी उनको भुगतना पडा था.

पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह तो समय-समय पर अपनी ही पार्टी को लेकर सवाल खडे करते रहते हैं. हाल ही में दिल्ली चुनाव के बाद जब एक्जिट पोल में आम आदमी पार्टी को बढत, भाजपा को दूसरी बडी पार्टी और कांग्रेस को तीसरे नंबर पर दिखाया जा रहा था तो दिग्विजय सिंह ने कहा था कि अगर एक्जिट पोल सही होता है तो यह कांग्रेस के लिए विनाशकारी होगा.

तो इस चुनाव परिणाम में तीसरे नंबर पर तो क्या कांग्रेस कहीं का नहीं रही. ऐसे में पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठना लाजमी है. कई नेता तो राहुल की जगह प्रियंका के नेतृत्व की मांग कर रहे हैं.

कांग्रेस के कई बडे चेहरों ने या तो पार्टी छोड दी है या फिर भाजपा में शामिल हो गये हैं. यह पार्टी की विश्वसनीयता पर एक और बडा सवाल है. जयंती नटराजन, कृष्णा तीरथ, जगदंबिका पाल, तमिलनाडु के जीके मासन जैसे कई बडे नाम हैं जिन्होंने कांग्रेस को अलविदा कह दिया है.

जानकारों का मानना है कि कांग्रेस की हार की एक बडी वजह उसका नेतृत्व हो सकता है. सोनिया गांधी के लीडरशीप को तो जनता उसी वक्त अस्वीकार कर चुकी थी जब पहली बार यूपीए की सरकार बनी थी और सोनिया को प्रधानमंत्री के लिए आगे किये जाने पर भारी विरोध हुआ था. इसके बाद से सर्वसम्मति से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था. बाद में पार्टी ने राहुल की नेतृत्व क्षमता पर विश्वास किया लेकिन राहुल भी कुछ खास कमाल नहीं कर पाये. अब लोग प्रियंका गांधी को भी देखना चाह रहे हैं. लेकिन जानकारों की माने तो कहीं न कहीं जो छवि नेहरु-गांधी परिवार की रही है और जिसकी छत्रछाया में कांग्रेस चुनाव लडती आयी है और जीतती आई है वह छवि सोनिया-राहुल में नहीं दिख पा रही है. ऐसा भी हो सकता है कि अब वे इस नेतृत्व से उब चुके हो और नये लीडरशीप की छवि उनके मन में बन रही हो.

जो भी हो अब बिहार और उत्तर प्रदेश में होने वाला विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा के समान है. अगर इन दोनों राज्यों में भी वह अपना जनाधार खो देती है तो पार्टी को बने रहने के लिए पार्टी नेतृत्व के सवाल पर नये सिरे से विचार करना शायद कांग्रेस के लिए अतिआवश्यक हो जाएगा वरन भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना सच होते देर नहीं लगेगा.

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