27.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

पहले से कितनी बदल गयी है भारत की चुनावी राजनीति ?

चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तम्भ है. आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है. समय और परिस्थिति के अनुरुप इसमें बदलाव किये गये हैं. देश में चुनाव के तौर-तरीकों में महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं. अगर मौजूदा समय की चुनावी तौर-तरीकों की पूर्व के चुनावी तौर-तरीकों से तुलना किया जाय […]

चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तम्भ है. आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है. समय और परिस्थिति के अनुरुप इसमें बदलाव किये गये हैं. देश में चुनाव के तौर-तरीकों में महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं. अगर मौजूदा समय की चुनावी तौर-तरीकों की पूर्व के चुनावी तौर-तरीकों से तुलना किया जाय तो उसमें काफी बदलाव दिखाई देते हैं. इस बदलाव के लिए कई फैक्टर जिम्मेवार हो सकते हैं या फिर यह समय की मांग हो सकती है लेकिन इसके बावजूद इस बात को स्वीकार करने में शायद कोई झिझक नहीं होगी कि आज की चुनावी राजनीति ली पहले की तुलना में कई मायनों में बिलकुल अलग है.

पार्टी से अब व्यक्ति केंद्रित हो गया है चुनाव

अगस्त 1947 में स्वतंत्र होने और २6 जनवरी 1950 को अपना संविधान लागू करने के बाद 1951 में भारत का पहला आम चुनाव सम्पन्न हुआ. तत्पश्चात देश में पहली बार 1952 में लोकसभा का गठन हुआ. इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 364 सीटों के साथ सत्ता में आई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1952 की अपनी सफलता की कहानी को 1957 में आयोजित हुए दूसरे लोकसभा चुनावों में भी दोहराने में कामयाब रही. उस वक्त व्यक्ति से ज्यादा पार्टी का महत्व था क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसका गठन 1885 में हुआ था एक सर्वमान्य और बडी पार्टी थी. लोगों का इसपर विश्वास था कि इस पार्टी के लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ-चढ कर हिस्सा लिया. कई छोटी-छोटी पार्टिया भी उस वक्त थी लेकिन कांग्रेस का महत्व उस वक्त देश में अधिक था. 1999 में वाजपेयी के पहले तक पार्टी को ही केंद्र बनाकर मुख्यतः चुनाव लडे गये. लेकिन देश की राजनीतिक पटल पर वाजपेयी के आने के बाद यह धीरे-धीरे व्यक्ति केंद्रित होने लगी. हालांकि पहले भी वीपी सिंह के समय व्यक्ति को केंद्रित कर चुनाव लडा गया था. उस समय वीपी सिंह भ्रष्टाचार विरोधी महानायक बनकर उभरे थे. इसके पहले इंदिरा गांधी के समय इमरजेंसी में भी कुछ इसी रुप में चुनाव लडे गये थे.

किन्तु मौजूदा समय में यह पूरी तरह से व्यक्ति विशेष हो गया है. अभी जो चुनाव लडे जा रहे हैं वह पार्टी से ज्यादा व्यक्ति विशेष हो गया है. भाजपा के जीतने पर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होंगे या फिर आडवाणी यह एक महत्वपूर्ण फैक्टर होता है. इसलिए अगर भाजपा को जीतना है तो पहले उसे बताना पडता है कि हम भाजपा को जिताएंगे तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या फिर आडवाणी ?

पहले जहां गांधी, नेहरु की उपलब्धियों और सिद्धांतो को लेकर चुनाव लडे जाते थे वहीं अब राहुल और सोनिया को मुखौटा बनाकर चुनाव लडा जा रहा है.

उसी तरह की स्थिति आज विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल रहे हैं. आज पार्टी जनता को यह बताना चाहती है कि अगर दिल्ली में भाजपा जीतेगी तो बेदी सीएम होगा और आप जीतेगी तो केजरीवाल. आज केवल एक आदमी के नाम पर चुनाव लडा जा रहा है. इसका ताजा उदाहरण आम आदमी पार्टी है. इसमें केवल एक चेहरा अरविंद केजरीवाल है जिसके दम पर इस पार्टी ने 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की और वे मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे.

कैडर बेस्ड पॉलिटिक्स का बोलबाला

आज की चुनाव प्रणाली में कैडर बेस्ड पॉलिटिक्स की प्रमुखता देखी जा रही है. भाजपा- कांग्रेस जैसी पार्टियों की राजनीति अब कैडर बेस्ड मानी जाती है. इन पार्टियों के पीछे अपने कैडर होते हैं जो उस पार्टी की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं. वोटरों को बूथ तक पहुंचाने में उसके कैडर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. आज पार्टियों में अपनी रैली को बडा दिखाने की होड होती है. ऐसे में कैडर बडी भूमिका निभाते हैं कि किस तरह से अधिक-से-अधिक भीड ट्रकों में भर-भर के लाया जाय. ये कैडर पार्टी का बहुत छोटा संगठन होता है लेकिन किसी भी पार्टी की जीत में इसकी भूमिका बडी होती है. मौजूदा समय में भाजपा के लिए कहा जाता है कि आरएसएस उसके लिए कैडर संगठन है. विपक्षी पार्टियां तो यहां तक कहते हैं कि भाजपा आरएसएस के निर्देश के अनुसार चलता है.

चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का इस्तेमाल

हालांकि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (इवीएम) का उपयोग प्रायोगिक आधार पर आंशिक रूप से 1982 में ही शुरु हो गये थे. लेकिन भारत में पहली बार वर्ष 2004 में 14वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में देश के सभी मतदान केंद्रों पर इवीएम का इस्तेमाल किया गया. पहले वोट देने के लिए मतपत्र का इस्तेमाल होता था. यह एक पुरानी व्यवस्था थी. आज लोकसभा के साथ-साथ सभी विधानसभा चुनावों में इसका उपयोग हो रहा है जो लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था के लिए अच्छी पहल है.

सूचना प्रौद्योगिकी का भरपूर इस्तेमाल

पहले के चुनाव और अब के चुनाव में देखा जाय तो सूचना प्रौद्योगिकी के रुप में इसमें एक बहुत बडा बदलाव आया है. पहले जहां चुनाव अभियान में पारंपरिक संसाधनों व तरीकों का इस्तेमाल होता था वहीं अब सूचना प्रौद्योगिकी का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. सोशल मीडिया का इसमें अहम रोल माना जा रहा है. आज उम्मीदवार न कोई रैली व सभाओं के माध्यम से जनता के समक्ष रुबरु हो रहे हैं बल्कि फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया के द्वारा जन-जन तक अपनी बातों को रख रहे हैं. चुनाव में टेक्नोलॉजी की शुरुआत की कोशिश हालांकि 2004 में प्रमोद महाजन की ओर से किया गया था. बाद 2009 में अरुण जेटली ने भी इसकी ओर कदम बढाया लेकिन इसका सबसे ज्यादा लहर 2014 के चुनाव में दिखा.

चुनाव में धन का इस्तेमाल बढा

हालांकि समय के अनुसार चुनाव खर्च बढते गये हैं. लेकिन इसके बावजूद मौजूदा समय में देखा जाय तो धन बल की महता काफी बढ गयी है. चुनाव आते ही प्रतिनिधियों का दौरा, जगह-जगह सभाएं आदि तो आम बात है लेकिन कहीं-कहीं किसी के गाडी से रुपये मिलना, शराब की पेटी पकडाना, रुपये बांटने का आरोप लगना जैसी घटनाएं अब की चुनाव में आम हो गया है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें