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मद्रास हाइकोर्ट के भ्रष्ट जज को मिला राजनीतिक संरक्षण:काटजू

मद्रास हाइकोर्ट के एक एडिशनल जज पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. उसे तमिलनाडु में सीधे डिस्ट्रक्टि जज बना दिया गया. डिस्ट्रक्टि जज के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान मद्रास हाइकोर्ट के विभिन्न पोर्टफोलियोवाले जजों ने उन पर आठ प्रतिकूल टिप्पणी की. लेकिन मद्रास हाइकोर्ट के एक एक्टिंग चीफ जस्टिस की कलम की ताकत […]

मद्रास हाइकोर्ट के एक एडिशनल जज पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे. उसे तमिलनाडु में सीधे डिस्ट्रक्टि जज बना दिया गया. डिस्ट्रक्टि जज के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान मद्रास हाइकोर्ट के विभिन्न पोर्टफोलियोवाले जजों ने उन पर आठ प्रतिकूल टिप्पणी की. लेकिन मद्रास हाइकोर्ट के एक एक्टिंग चीफ जस्टिस की कलम की ताकत से प्रतिकूल टिप्पणियों को दरकिनार कर दिया गया. जज मद्रास हाइकोर्ट के एडिशनल जज बना दिये गये. नवंबर, 2004 में मैं मद्रास हाइकोर्ट का चीफ जस्टिस बना, तो वह इसी पद पर थे.

इस जज को तमिलनाडु के महत्वपूर्ण राजनेता का समर्थन प्राप्त था. मुझे बताया गया था कि डिस्ट्रक्टि जज रहते उन्होंने उस नेता को जमानत दी थी. जज के भ्रष्टाचार से जुड़ी कई रिपोर्ट मुझे मिली. मैंने भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस आरसी लाहोटी से जज की गुप्त आइबी जांच कराने की मांग की. कुछ हफ्तों बाद, जब मैं चेन्नई में था, चीफ जस्टिस ने फोन पर मुझे बताया कि मेरी शिकायत सही है. आइबी को जज के भ्रष्टाचार से जुड़े पर्याप्त सबूत मिले हैं. एडिशनल जज के रूप में उस जज का दो वर्ष का कार्यकाल खत्म होनेवाला था. मुझे लगा कि आइबी की रिपोर्ट के आधार पर जज को हाइकोर्ट के जज के रूप में कार्य करने से रोका जायेगा, लेकिन एडिशनल जज के तौर पर उनका कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया गया. उनके साथ नियुक्त होनेवाले छह अन्य जज हाइकोर्ट में स्थायी जज बने.

बाद में मैं समझ पाया कि यह सब कैसे हुआ. सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में नियुक्ति हेतु नामों की सिफारिश करने के लिए पांच वरिष्ठ जजों की कॉलेजियम होती है, जबकि हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए तीन जजों की कॉलेजियम होती है. उस समय सुप्रीम कोर्ट में तीन सबसे वरिष्ठ जजों में चीफ जस्टिस लाहोटी, जस्टिस वाइके सभरवाल और जस्टिस रुमा पाल थे. इस कॉलेजियम ने आइबी की प्रतिकूल रिपोर्टों के आधार पर हाइकोेर्ट के जज के दो वर्ष के कार्यकाल को आगे न बढ़ाने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी थी.

उस समय केंद्र में यूपीए की सरकार थी. गंठबंधन में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, पर लोकसभा में उसके पास बहुमत नहीं था. सो सहयोगी पार्टियों के समर्थन पर निर्भर थी. उसमें से एक पार्टी तमिलनाडु से थी, जो इस जज का समर्थन कर रही थी. सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की कॉलेजियम के फैसले का उस पार्टी ने जोरदार विरोध किया. मुझे जानकारी मिली कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संयुक्त राष्ट्र की बैठक में शामिल होने न्यू यार्क जा रहे थे. दिल्ली एयरपोर्ट पर तमिलनाडु की पार्टी के मंत्रियों ने उन्हें बताया कि न्यूयॉर्क से लौटने पर उनकी सरकार गिर चुकी होगी, क्योंकि तमिलनाडु की पार्टी यूपीए से समर्थन वापस ले लेगी (एडिशनल जज का कार्यकाल नहीं बढ़ाने पर).

इससे मनमोहन सिंह चिंतित हो गये. लेकिन, कांग्रेस के एक सीनियर मंत्री ने उन्हें सब कुछ संभाल लेने का आश्वासन दिया. कांग्रेस के वह मंत्री तब जस्टिस लाहोटी के पास गये और बताया कि एडिशनल जज को हटाया गया, तो सरकार की समस्या बढ़ जायेगी. जस्टिस लाहोटी ने उस जज का कार्यकाल बढ़ाने के लिए भारत सरकार को पत्र भेजा. (मैं चकित था कि चीफ जस्टिस ने कॉलेजियम के दो सदस्यों से मशविरा किया या नहीं). एडिशनल जज को बाद में नये सीजेआइ जस्टिस सभरवाल ने एक और कार्यकाल दिया. अगले चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन ने उन्हें स्थायी जज तो बनाया, लेकिन किसी और हाइकोर्ट में उनका ट्रांसफर कर दिया. मैं बताना चाहता हूं कि सिस्टम कैसे काम करता है और सिद्धांत क्या हैं? कायदे से आइबी की रिपोर्ट के बाद जज को एडिशनल जज के रूप में काम करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए थी.

(जस्टिस काटजू के ब्लॉग से साभार)

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