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पंजाब में आम आदमी पार्टी को लोकसभा की चार सीटों पर जीत हासिल हुई लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सत्ता में आने वाली यह पार्टी दिल्ली से लोकसभा के चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर सकी. देश के राजनीतिक नब्ज को समझने के लिए आम आदमी पार्टी […]

पंजाब में आम आदमी पार्टी को लोकसभा की चार सीटों पर जीत हासिल हुई लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सत्ता में आने वाली यह पार्टी दिल्ली से लोकसभा के चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर सकी. देश के राजनीतिक नब्ज को समझने के लिए आम आदमी पार्टी के उभार को समझना जरूरी है क्योंकि इस तरह के उभार की स्थिति में कोई नई पार्टी पूरे देश में या देश के किसी भी हिस्से में कभी भी आ सकती है.

यह बेहद पुरानी सोच है कि संसदीय राजनीति में किसी पार्टी को जमने में दसियों साल लग जाते है. इस तरह की सोच के दो हिस्से हो गए हैं. पहला हिस्सा है कि किसी पार्टी को अपना संगठन खड़ा करने व अपने समर्थकों का आधार तैयार करने में वर्षो लग सकते हैं. दूसरा यह है कि चुनाव में जीतने के लिए जिस तरह से वर्षो तक राजनीति में रहना जरूरी नहीं है उसी तरह से नई पार्टी को चुनाव में जीत हासिल करने के लिए वर्षो की मेहनत की जरूरत नहीं हैं. व्यवस्था के दूसरे नये पुराने हिस्से उस नई पार्टी के संगठऩ के रूप में सिक्र य हो जाते हैं.

आम आदमी पार्टी को दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद पंजाब में भी बिना किसी पुरानी सक्रियता के लोकसभा के चार सीटों पर जीत संसदीय राजनीति में हो रहे बुनियादी बदलाव को समझने के कुछ ठोस संकेत दे रहा हैं. प्रधानमंत्री बनने का दावा करने तक नरेन्द्र मोदी को भी महज दो साल का वक्त लगा. उनके पक्ष में लहर होने का दावा किया जाने लगा. यह उन संकेतों का ही विस्तार है.

संसदीय राजनीति ने 1991 में नई आर्थिक नीतियों को लागू करने और भूमंडलीकरण की परियोजना से खुद को जोड़ लेने का फैसला किया था. तब के प्रधानमंत्री नरिसम्हाराव ने यह घोषणा की थी कि भले ही संसदीय विपक्ष उनकी सरकार के फैसलों का मतदाताओं को दिखाने के लिए विरोध करें लेकिन उनके सत्ता में आने के बाद नई नीतियों का विरोध संभव नहीं है. इस तरह संसदीय राजनीति में विचारधाराओं पर आधारित और अलग दिखने वाली पार्टियों का पूरी संसदीय व्यवस्था के लिए एकीकरण हुआ है. संसदीय पार्टियां भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने की प्रतिस्पर्धा में हैं और वे नीतियों के बजाय सरकारी कामकाज के तौर तरीकों व सामाजिक व्यवहार पर अपनी राजनीति को केंद्रित कर रहे हैं.

भारतीय राजनीति में एक विकल्पहीनता की स्थिति में ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात हुआ. लेकिन मजेदार बात है कि जिन लोगों ने दिल्ली में इस आंदोलन को शुरू किया वे सभी एक एक करके आंदोलन से अलग होते चले गए और उस आंदोलन पर कोई असर नहीं पड़ा. तब अन्ना हजारे, योगगुरु रामदेव, किरन बेदी, स्वामी अग्निवेश आदि कई लोग पहली कतार में थे. आखिरकार राजस्व विभाग की अपनी नौकरी के बाद सामाजिक आंदोलन में सक्रि य होकर अरविंद केजरीवाल ने उसकी कमान संभाली. भारतीय समाज में राजनीति, राजनीतिज्ञों के बारे में जो समझ और अनुभव लोगों के मन मिजाज में बना है उसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि वह स्थिति स्वंय ही संगठन है, संगठन का नेतृत्व है.

अरविंद केजरीवाल ने पहले खुद कोई राजनीतिक पार्टी बनाने से मना कर दिया था. लेकिन जब स्थितियां ही संगठन और नेतृत्व के रूप में स्थापित है तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी के गठन और चुनाव मैदान में उतरने की प्रक्रि या बेहद सहज तरीके से कामयाबी तक पहुंच गई. यह आश्चर्यजनक है कि अरविंद केजरीवाल ने एक ऐसी पार्टी के रूप में आम आदमी पार्टी को चुनाव मैदान में उतारा जिसने खुद का किसी विचारधारा से जुड़ाव होने से इंकार किया. केवल ईमानदारी और भ्रष्टाचार विरोध का नारा दिया. यानी संसदीय पार्टियों के भीतर जो बेहतर सरकार देने की जो जोर-आजमाइश चल रही थी उस जोर-अजमाइश में आम आदमी पार्टी ने खुद को सबसे काबिल जाहिर किया.

लेकिन भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध सत्ताधारी पार्टियों द्वारा सरकारों को ठीक से चलाने या नहीं चलाने का नहीं है. भारतीय समाज में कई तरह के अंतर्विरोध व संघर्ष हैं. जिस तरह से नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान बिना राम मंदिर, कॉमन सविल कोड आदि जैसे अपने बुनियादी विषय को उठाए ही हिन्दुत्ववाद का संदेश मतदाताओं के बीच भेजा उसी तरह से अरविंद केजरीवाल ने किसी घोषित विचारधारा से खुद के जुड़ने की बात किए बिना ही समाज में वर्चस्व रखने वाली विचारधारा से खुद को जुड़ा बताने का संदेश देने की कामयाब कोशिश भी की. दोनों ही मामलों में पार्टियां नहीं बल्कि व्यक्ति ने प्रमुखता हासिल कर ली.

राजनीति में वर्चस्ववादी समूहों के बीच संदेश देने की पैकेजिंग महत्वपूर्ण हो गई है. आम आदमी पार्टी को महज पंजाब में कामयाबी वहां बनी स्थितियों का विरोध है. इसे पार्टी के आधार के रूप में स्वीकार करना मुश्किल हैं. ऐसे उदाहरण हैं जब स्थितियों की वजह से बेहद नई पार्टी व किसी समूह को थोड़ी बहुत कामयाबी मिल जाती है. संगठनात्मक ढांचा ही पोख्ता आधार तैयार करता है वरना हवा और लहर में बनने बिगड़ने वाले नेतृत्व उभरते रहते हैं.

अनिल चमड़िया

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