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आज जेपी होते तो फिर सड़क पर उतर जाते

चौहत्तर के छात्र आंदोलन ने बहुत सारे छात्र-युवाओं को आकर्षित किया था. छात्रों का यह आंदोलन सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया का हिस्सा बन गया. आंदोलन को कुचलने के लिए तब की सत्ता ने पुलिस को खुली छूट दे दी थी. कंचन बाला उन दिनों पटना के अरविंद महिला कॉलेज में इंटर में पढ़ती थीं. पिता […]

चौहत्तर के छात्र आंदोलन ने बहुत सारे छात्र-युवाओं को आकर्षित किया था. छात्रों का यह आंदोलन सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया का हिस्सा बन गया. आंदोलन को कुचलने के लिए तब की सत्ता ने पुलिस को खुली छूट दे दी थी. कंचन बाला उन दिनों पटना के अरविंद महिला कॉलेज में इंटर में पढ़ती थीं. पिता सचिवालय में काम करते थे. मध्यवर्गीय परिवार में लड़कियों का ऐसे आंदोलनों में शामिल होना अच्छा नहीं माना जाता था.

लेकिन कंचन बाला उस आंदोलन में कूद गयीं. दर्जनों बाद गिरफ्तार हरुई. 18 मार्च 1974 को छात्रों के आंदोलन पर लाठी-गोली चली थी. उसी साल आठ अप्रैल को जेपी ने छात्रों से एक साल के लिए परीक्षाओं के बहिष्कार का आह्वान किया था. उस आंदोलन ने सत्ता परिवर्तन तो कर दिया पर उसके मुद्दे अब भी जीवित हैं. उस आंदोलन से निकले नेता सत्ता केंद्रित राजनीति के चेहरा बन गये. कंचन बाला मानती हैं कि किसी राजनीतिज्ञ के आचरण से उस दौर की राजनीति के दर्शन को खारिज नहीं किया जा सकता. समाज में बदलाव की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है. बदलाव की कोशिश जहां भी चल रही होती है, उससे कंचन बाला खुद को जोड़ने की कोशिश करती हैं. चौहत्तर आंदोलन का हिस्सा रहीं कंचन बाला से जेपी आंदोलन, आपातकाल और आज की राजनीति पर बात की अजय कुमार ने.

आज की राजनीति को देखकर आपको निराशा नहीं होती? जेपी आंदोलन से निकले नेताओं ने उस आंदोलन के मूल्यों को आगे नहीं बढ़ाया?

निराशा नहीं होती है. तकलीफ होती है. जेपी आंदोलन से निकले नेता सत्ता के चमक-दमक से बाहर नहीं निकल सके. उनको इतिहास ने शानदार मौके दिये. पर उन्होंने इन अवसरों को गंवा दिया है. यही वजह है कि आंदोलनों के प्रति लोगों के मन में एक प्रकार का नैराश्य भाव बना रहता है. व्यवहार में वे इन्ही नेताओं को देखते हैं और एक धारणा बना लेते हैं. मुङो तो लगता है कि जेपी आज होते तो आज की राजनीति के खिलाफ सड़क पर होते. उस आंदोलन के मुद्दे अब भी हैं. लेकिन बदलाव को आवाज देने वाली ताकतें एकजुट नहीं हैं. भरोसेमंद लीडरशिप भी नहीं है.

अब लोग यह मानने लगे हैं कि उस आंदोलन ने समाज को कुछ दिया नहीं. क्या यह सही नहीं है?

नहीं. उस आंदोलन ने समाज को बहुत कुछ दिया. सामाजिक परिवर्तन की उसकी भूमिका रही. चौहत्तर के पहले और उसके बाद की राजनीति को देखिए. साफ-साफ चीजें बदलती हुई दिखेंगी. जो शक्तियां राजनीति में कदम रखने के बारे में सोच नहीं सकती थीं, उन्हें राजनीति के अग्रिम कतार में लाकर खड़ा कर दिया. पारंपरिक राजनीति को जेपी मूवमेंट ने बदल कर रख दिया. सत्ता पर जिन शक्तियों का दबदबा हुआ करता था, उन्हें वहां से बाहर कर दिया. यह मामूली बदलाव नहीं हुआ. ऐसा तो सैकड़ों सालों में होता है. उसी आंदोलन की देन है कि महिलाएं घर से निकल कर सामाजिक मुद्दों पर मुखर हुईं. जेल गयी. उसके पहले, आजादी की लड़ाई को छोड़ दें, तो महिलाओं की ऐसी भागीदारी देखने को नहीं मिलती. आपातकाल लगा तो आरा की प्रो दुर्गा दीदी को मीसा में पकड़ा गया. वह पहली महिला थीं जिनके खिलाफ मीसा के तहत कार्रवाई हुई थी. और भी अनेक महिलाएं हैं जो आंदोलन का हिस्सा बनीं. यह अगल बात है कि उस आंदोलन के दौरान बनी संचालन समिति में एक भी महिला नहीं थी. शराब भट्टी के खिलाफ महिलाओं ने पिकेटिंग शुरू कर दी थी. उस आंदोलन का सभी स्तरों पर, सामाजिक चिंतन पर असर पड़ा.

पर उस आंदोलन से समाज को क्या मिला?

हमने कहा कि राजनीति के पारंपरिक मुहावरे को उसने बदल दिया. चिंतन के स्तर पर फर्क पड़ा. लड़कियां आज जितनी उन्मुक्त होकर अपने बारे में फैसले ले सकती हैं, वैसा तीन-चार दशक पहले तक नहीं था. आधी आबादी के बारे में मान्यताएं बदली हैं. लेकिन साथ में महिलाओं पर बर्बर हमले भी हो रहे हैं. इसके बावजूद समाज आगे की ओर सोच रहा है और वह आगे ही जा रहा है. मेरे कहने का मतलब है कि समाज अपने हिसाब से रास्ता बनाता है. ऐसा नहीं है कि कोई आंदोलन आपको नहीं दिख रहा है तो इसका अर्थ यह मान लिया जाये कि समाज पीछे की ओर जा रहा है. बदलाव की लड़ाई तो हर स्तर पर हर वक्त चल रही होती है. उन छोटी-छोटी लड़ाइयों को एक आवाज देना ही आंदोलन है. यह काम नहीं हो रहा है. शिक्षा के सवाल को ही लें. पहले की तुलना में इसकी हालत और खराब हुई है. कैंपस में शिक्षण का माहौल नहीं रह गया है. शिक्षा का स्तर दिनों-दिन गिरता जा रहा है. निजी कोचिंग संस्थानों की बाढ़ आ गयी है. महंगाई से लोग परेशान हैं. भ्रष्टाचार पहले से बढ़ ही गया है. गरीबी बढ़ी है. समाज में असमानता साफ-साफ दिख रही है.

आपने कहा कि जेपी आंदोलन ने राजनीति के मुहावरे को बदल दिया. पर क्या यह सच नहीं है कि उस राजनीति से निकले नेताओं ने व्यक्ति आधारित राजनीति को बढ़ाया और राजनीति में नया मूल्य गढ़ने में वे लोग नाकाम रहे?

इसके कई अंतरविरोध हैं. पांरपरिक शक्तियां जब सत्ता से बाहर हो गयीं तो उन्होंने आंदोलन से निकले नेताओं को जातिवादी कहना शुरू कर दिया. उन्हें ज्यादा भ्रष्ट बताया जाने लगा. पर तथ्यों को देखें तो यह सही बात नहीं है. चौहत्तर के पहले तो ऐसा नहीं था कि राजनीति जाति निरपेक्ष थी? हां, उपेक्षित वर्गो-जातियों का जब मुख्यधारा की राजनीति में उदय हुआ तो उन पर आरोप भी बरसने लगे.

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि आंदोलन से निकले नेताओं में सब कुछ सकारात्मक ही था. वे लीक से नहीं हट सके बल्कि पारंपरिक राजनीति को एक तरह से मजबूत ही किया. अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि वे नेता संगठन के अधिकारों को भी अपने पास ही रख लेते हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि आंदोलन के गर्भ से निकले नेताओं ने लोकतांत्रिक मूल्यों को किनारे लगा दिया. उन नेताओं को संगठन कोई फैसला लेने के लिए अधिकृत कर देता है. इसका सीधा अर्थ उस नेता को सर्वशक्तिमान बना देना है. सुप्रीमो और किंगमेकर सिर्फ शब्द नहीं एक विचार है. यह विचार डेमोक्रेसी के खिलाफ जाता है. जेपी आंदोलन के दौरान जहां तक मुङो ध्यान आता है किसी भी फैसले के लिए जयप्रकाश नारायण को अधिकृत किया गया हो. मुङो लगता है कि कपरूरी ठाकुर को छोड़कर इस धारा के किसी भी राजनीतिज्ञ ने कोई मिशाल पेश नहीं की. कपरूरी जी ने सत्ता के चमक-दमक को अपने पर हावी नहीं होने दिया था. जाहिर है कि यह आपनी अच्छी राजनीति के प्रति कमिटमेंट के चलते ही हो सकता है. यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपकी दृष्टि कैसी है. विजन और कमिटमेंट कैसा है? 1977 में विधानसभा का चुनाव जीतकर आने वाले लोगों को हमने देखा कि उनके किस कदर ईमानदारी थी. वे अच्छी राजनीति के प्रति समर्पित थे. यह उस आंदोलन के मूल्य के चलते हुआ. पर बाद में उन्हीं लोगों की जन सरोकार की राजनीति के प्रति निष्ठा कम होती गयी. वही राजनीतिज्ञ अब 33 फीसदी महिलाओं के आरक्षण का विरोध कर रहे हैं. उन्हें डर लग रहा है कि सत्ता-राजनीति कहीं दूसरी जगह शिफ्ट कर जायेगी.

बदलाव की राजनीति को लेकर कोई उम्मीद दिखती है?

बदलाव तो अनवरत प्रक्रिया है. जेपी भी कहा करते थे कि समाज के बदलने की प्रक्रिया चलती रहेगी. यही नियम है. अभी बीते दिनों अन्ना के आंदोलन को हमने देखा. बड़ी तादाद में युवाओं की उसमें भागीदारी देखी. लेकिन उस आंदोलन का कोई वैचारिक आधार नहीं था. एक और खतरा दिखता है कि राजनीति जिस तरह से पैसा आधारित होती जा रही है, उससे बड़ा विक्षोभ पैदा होगा. हाल में खत्म हुए संसदीय चुनाव को ही लें. पैसे का जो जोर दिखा, वह हैरान करने वाला है. ऐसी राजनीति के खिलाफ रास्ता निकालने के लिए समाज को तैयार होना होगा.

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