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भ्रष्टाचार की जड़ कहां है?

यह बात सभी को मालूम है (जिसे मालूम नहीं है, वह सचेत नागरिक नहीं) कि सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को महीनों तक, सालों तक, कभी-कभी मरने तक पेंशन नहीं मिलती. ऐसी कोई प्रक्रि या या नियम अभी नहीं बना है कि सेवानिवृत्त होने एक महीने बाद से ही मासिक पेंशन मिलने लगे. साल-दो साल के अन्दर […]

यह बात सभी को मालूम है (जिसे मालूम नहीं है, वह सचेत नागरिक नहीं) कि सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को महीनों तक, सालों तक, कभी-कभी मरने तक पेंशन नहीं मिलती. ऐसी कोई प्रक्रि या या नियम अभी नहीं बना है कि सेवानिवृत्त होने एक महीने बाद से ही मासिक पेंशन मिलने लगे. साल-दो साल के अन्दर पेंशन मिल सके इसके लिए हजारों कर्मचारी प्रतिवर्ष घूस देते हैं.

सेवानिवृत्त होने के एक महीने बाद अगर पेंशन मिलने लगेगी, तो बहुतों को लगेगा कि रामराज्य आ गया है. हमारे सामान्य नागरिक इस तरह की स्थितियों में जीते हैं कि कुछ मामूली परिवर्तनों से ही रामराज्य का एहसास दिलाया जा सकता है. कुछ प्रक्रियाओं में परिवर्तन कर न सिर्फ प्रतिदिन होने वाली करोड़ों की घूसखोरी को रोका जा सकता है, बल्कि देश के किसानों को रामराज्य के दर्शन कराये जा सकते हैं. जमीन के हस्तांतरण तथा खरीद-बिक्र ी के नियमों का सरलीकरण इसके लिए जरूरी है. दूसरी जरूरत यह है कि सरकारी प्रशासन से किसानों का कृषि सम्बन्धी जितना काम पड़ता है, उसके लिए एक खिड़की की व्यवस्था कर दी जाए और यह खिड़की किसी भी गांव से दस किमी से ज्यादा दूर न हो. क्या ऐसा नियम नहीं हो सकता कि किसी जायज काम के लिए एक किसान को दो बार से ज्यादा संबन्धित द़फ्तर में न जाना पड़े?

किताबों के अनुसार कचहरी लोकतंत्र में नागरिकों की आजादी का प्रतीक है. लेकिन गांववालों के लिए कचहरी और पुलिस में कोई फर्क नहीं होता. कचहरी वह है, जिसके द्वारा पुलिस या पटवारी किसानों को सताता है. क्या यह समाजशास्त्रियों और राजनीतिशास्त्रियों के खोज का विषय नहीं है कि भारत के आम नागरिकों के लिए न्याय विभाग सुरक्षा का एक प्रतीक है या नहीं? झूठे मामले में फंसना उतनी बड़ी यातना नहीं है जितनी सैकड़ों बार कचहरी और वकील के यहां जाना और बार-बार कचहरी में घूस और वकील की फीस अदा करना. किसानों से करोड़ों रु पयों की लूट प्रति दिन इसी तरीके से होती है. अगर अधिकांश मामलों के निपटारे के लिए समय की सीमा बंध जाए और झूठे मामलों की छानबीन की कोई प्रक्रि या तय हो जाए, तो यह घूसखोरी और जलालत पचास फीसदी घट जाएगी.

ये सब हैं जनता के स्तर पर होनेवाली घूसखोरी और भ्रष्टाचार. इस तरफ महानुभावों का ध्यान नहीं जाता. भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों में ज्यादातर शहरी लोग दिलचस्पी लेते हैं. इसीलिए उनमें भ्रष्टाचार की इस बुनियाद की समझ दिखाई नहीं पड़ती.

यह सवाल उठ सकता है कि अगर इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं तथा प्रक्रि याओं को बदलना इतना आसान है तो यह क्यों नहीं कर लिया जाता? इसका उत्तर यह है कि इससे करोड़ों लोगों की आजादी बढ़ जाएगी. किसानों को अगर पुलिस और पटवारी के सामने झुकना नहीं पड़ेगा, शहर के वकीलों के मुकाबले अगर उनमें हीनभावना नहीं रहेगी, तो यह औपनिवेशिक व्यवस्था चलेगी कैसे? अगर लोगों का जायज काम समय पर सही ढंग से होने लगेगा, तो उन्हें आजादी का जो बोध होगा, वह क्या उन बहुत सारे अन्यायों अत्याचारों के लिए बाधक नहीं हो जाएगा, जिन अन्यायों-अत्याचारों के सहारे भारत का शिक्षित समाज इतना आत्मसन्तुष्ट रहता है ?

प्रशासन के सुधार को हम इसलिए आसान मानते हैं कि इसके लिए संविधान या देश की आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन जरूरी नहीं होगा. सिर्फ औपनिवेशिक नियमों को बदलकर लोकतांत्रिक नियम प्रचलित करने होंगे. लेकिन अनुभव बतलाता है कि देश के उदारवादी नेता और बुद्धिजीवी इस सम्बन्ध में बिलकुल संवेदनशील नहीं हैं. इसीलिए यह मामूली परिवर्तन अब कठिन लगता है.

इस कठिनाई को समझना चाहिए. ब्रिटिश राज में जो औपनिवेशिक प्रशासन था, नेहरू जी ने अगर उसी को बरकरार रखा, तो लोग मौके-मौके पर क्यों कहते हैं कि इससे तो अंग्रेजी राज बेहतर था? एक अन्तर यह आ गया है ब्रिटिश राज में जवाबदेही तथा नियंत्रण का एक मजबूत केन्द्र था. कोई भी भारतीय कर्मचारी, अफसर या मजिस्ट्रेट अंग्रेज साहब से डरता था. इस डर के स्थान पर जवाबदेही का एक लोकतांत्रिक ढांचा बनाना जरूरी था, जो कभी नहीं बना. किसी भी प्रशासन के लिए जवाबदेही केन्द्रीय महत्व की चीज है, जो भारतीय प्रशासन में नदारद है. किसी गांव में पुल बना और चार महीने बाद टूट गया, तो इंजीनियर को दंडित किया जाएगा या नहीं? कोई सेना बिना लड़े भागती जाएगी तो सेनापति को दंड मिलना चाहिए या नहीं? कोई कंपनी लगातार घाटे में चलती है, तो मैनेजर से जवाबतलबी होनी चाहिए या नहीं? अगर दिल्ली के बैंक में पटना का चेक जमा होता है और छह महीने बाद भी भुगतान नहीं होता है, तो किसी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए या नहीं? आजादी के बाद से इस जवाबदेही की तरफ राजनेता, प्रशासक, समाजशास्त्री किसी ने गम्भीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया है. फलस्वरूप लापरवाही और अराजकता की ऐसी आदतें बन गई हैं कि कोई भी इसे बदलना चाहेगा तो उसे बहुत सारे कठोर कदम उठाने होंगे. अगर कोई सरकार ये कठोर काम करने लगेगी, तो आईएएस अफसर और वामपंथी ट्रेड यूनियन सबसे ज्यादा बाधा डालेंगे. फिर भी संकल्प के बल पर सुधार का काम शुरू हो सकता है, हमने देखा है कि कभी-कभी एक ईमानदार अधिकारी अपने विभाग में व्यक्तिगत संकल्प के बल पर भ्रष्टाचार को रोकने में सफल भी होता है. लेकिन यह कोई कारगर उपाय नहीं.

आधुनिकतावादियों का संकट यह है कि वे पारिवारिक वफादारी से तो मुक्त नहीं हो पाते लेकिन आधुनिकता के नाम पर अपने समाज के उन परंपरागत मूल्यों को नकार देते हैं जो हमारे समाज में कभी वैयक्तिक महत्वाकांक्षा पर अंकुश का काम करते थे. एक अंकुश तो था एक सीमा के बाद भौतिक वस्तुओं के प्रति उपेक्षा की दृष्टि. दूसरा अंकुश था व्यक्ति के जीवन का चार कालों में विभाजन का आदर्श जिसमें तीसरा वानप्रस्थ और चौथा सन्यास था. इसके अनुसार अधेड़ होने पर पारिवारिक जवाबदेही से निवृत्ति और बुढ़ापा आने पर सांसारिक मोहमाया से निवृत्ति जीवन का लक्ष्य था. ऐसा शायद कभी नहीं था कि आम लोगों की जिन्दगी इस आदर्श पर चलती थी. लेकिन चूंकि यह जीवन के आदर्श प्रतिमान थे, लोगों के जीवन पर परोक्ष रूप से इन आदशरें का प्रभाव हमेशा बना रहता था. सर्वस्व दान यहां तक कि संतान दान तक के मिथक समाज में व्यापक थे और इनसे लोगों का जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. इस तरह यहां के परंपरागत समाज में संपत्ति और संतान के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव कभी भी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता था. प्राचीन भारतीय समाज में शासक (राजा) स्वेच्छाचारी भी नहीं हो सकता था. उसे धर्मशास्त्रों और अनेक श्रेणियों के बंधन में रहना पड़ता था. ये मूल्य सूफी संतों के माध्यम से इस्लाम के भारत में आने के बाद भी और मुगल सल्तनत तक में कायम रहे. औरंगजेब का अपने निजी खर्च के लिए खजाने से कोई रकम लेने के बजाए कुरान के आयतों की नकल कर खर्च चलाना और अपनी कब्र तक को बिना किसी तामझाम के फकीरों की कब्रों के बीच स्थापित करने की आज्ञा देना इसका प्रमाण है. इन सबके ऊपर असंग्रह या अपरिग्रह जीवन के उच्चतम आदशरें में थे. यह स्वाभाविक रूप से संपत्ति के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करता था. महात्मा गांधी अगर संपत्ति और संतान के संकीर्ण मोह से बचे रहे तो इसका खास कारण ऊपर बताए गए मूल्यों के प्रति उनकी गहरी आस्था ही थी.

इसके विपरीत भारत के आधुनिकतावादी जीवन का प्रधान लक्ष्य भौतिक या आर्थिक उपलब्धि मानते हैं. लेकिन इनके लिए खुली प्रतिस्पर्धा की जगह जो आधुनिकता की मांग है, पारिवारिक या जातीय खोल के भीतर से ही उपलब्धि के संघर्ष में जुटना चाहते हैं. यह दोष दिनोंदिन और भी सघन होता गया है.

इसका एक खास सामाजिक कारण भी रहा है जिसे दूसरे समाजों में भी देखा जा सकता है. इसका सबसे प्रधान कारण है आधुनिक समाज में जीवन की उपलब्धि को एक ही आयाम यानी अर्थ उपार्जन में देखना. उपलिब्ध का एक आयामी होने से व्यक्तियों के कर्म चाहे वे जिस क्षेत्र में हों आर्थिक कसौटी पर कसे जाने लगते हैं. सभी तरह के सृजन, चाहे वे शिल्प में हों, अन्य कलाओं में हों या विज्ञान में, बाजार में विनिमय की वस्तु बन जाते हैं. उनको आंकने का एक ही मापदंड है-यह देखना कि उससे कितना धन का उपार्जन होता है. इसमें सफलता के रूप में होती हैं वे सारी सामग्रियां जिन्हें पैसे से खरीदा जा सकता है. यहीं से उपभोक्तावादी संस्कृति को उर्जा मिलती है और लोग अपनी उपलब्धि के पैमाने के रूप में उपभोग के विभिन्न उपकरणों का जखीरा लगाने लगते हैं. जैसे-जैसे उपभोग की वस्तुओं की किस्में बढ़ती जाती हैं वैसे-वैसे लोगों के जीवन के ढंग और स्तरों का फर्क भी बढ़ने लगता है. इससे एक ओर संपन्नता के प्रतीक वस्तुओं की संख्या अनगिनत होती जाती हैं और दूसरी ओर इन्हें प्राप्त करने की स्पर्धा उत्तरोत्तर अधिक कठोर होती जाती है.

एक और चीज जो आधुनिक औद्योगिक समाज के विकास का अभिन्न अंग है वह है सुविधाओं का व्यवस्था में हासिल किए गए स्थानों पर निर्भर होना. जो व्यक्ति व्यावसायिक या राजनैतिक प्रतिष्ठानों में जितना ही ऊंचा स्थान हासिल करता है उसकी आय और सुविधाएं उतनी ही अधिक होती हैं. इसे योग्यता के आधार पर समान अवसर के सिद्धांत के रूप में गरिमामंडित किया जाता है. इसके कारण आधुनिक समाज में कोई भी अपनी सुविधा को कानून और नियम के तहत अपने वंशजों को उस तरह हस्तांतरित नहीं कर सकता जिस तरह वंश परंपरा वाले पारंपरिक समाज में संभव था. लेकिन चूंकि समाज के भीतर जीवन स्तरों का फर्क बहुत ही ऊंचा होता है, इससे कोई भी आदमी यह नहीं चाहता है कि उसकी संतान या अन्य नजदीकी रिश्तेदार समाज की निचली सीढ़ियों पर फेंक दिए जाएं जहां उन्हें जीवन की वे सुविधायें उपलब्ध नहीं हो सकें जिनके वे अभ्यस्त हैं. यहीं से आधुनिक समाज में कुनबापरस्ती और भ्रष्टाचार की शुरु आत होती है. ऊंचे स्थानों पर जमे लोग अनेक तरह से समान अवसर के आधुनिक सिद्धांत के प्रतिकूल ऐसे तरीकों की तलाश करते हैं, जिनसे समान प्रतिस्पर्धा के कठिन रास्ते से उनके वंशजों को निजात मिल जाए और वे चोर दरवाजे से ऊचे स्थानों पर पहुंच जाएं, या अपनी योग्यता के अनुपात से कहीं अधिक आर्थिक लाभ ले सकें.

आधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊंचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि पहुंचा सकते हैं. लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है. इस कारण एक ऐसे समाज में जहां धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें. यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरू होता है. लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम पर चलने और बराबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है. ऐसे समाज में लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है.

हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है. इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग-अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज में संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गयी है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें. आधुनिकतावादियों पर, जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं, भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है. इस तरह हमारे यहां भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्किउस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई हैं.

इसी का नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे-पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते. चूंकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है, कुनबापरस्ती या खानदानशाही के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता. ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है. ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीकरण रहेगा जहां थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीर और किसी को गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी बनी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार से समाज मुक्त नहीं हो सकता. यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं. एक ऐसे समाज में ही जहां जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता है.

भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्र म में ही हो सकता है जहां समाज के ढांचे को बदलने के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमेशा हमला हो सके. बिहार में चलने वाले 1974 के छात्र आंदोलन की कुछ घटनाएं इसका उदाहरण हैं, जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ‘संपूर्ण क्र ांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी ऊर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी. लेकिन न तो संपूर्ण क्र ांति का लक्ष्य स्पष्ट था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था. इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी ऊर्जा प्राप्त हो गई. अंतत: हर बड़ी क्र ांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्द गिर्द होती है. इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करते हैं. हमारे देश में, जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है, भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले. इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलाओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे.

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