यह बिल्कुल सही तथ्य है कि आजादी के बाद के कुछ सालों में देश में जिस तरह आइआइटी, एम्स, भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर जैसी विश्वस्तरीय संस्थाओं का गठन किया गया बाद के दिनों में वह गति कुंद पड़ती गयी. इतना ही नहीं नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों और बड़े बांधों का निर्माण कराकर देश की अधिसंरचना को पुख्ता किया था. (देखें बॉक्स) मगर बाद के दिनों में खास तौर पर हाल के कुछ वर्षो में सरकारों ने एक तरह से मान लिया कि संस्थाओं का निर्माण और उद्योग की स्थापना सरकार का काम नहीं है.
इस चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जो दस प्रमुख वादे किये हैं, उनमें देश के हर राज्य में आइआइटी, आइआइएम और एम्स जैसी संस्थाओं का खोला जाना प्रमुख है. उन्होंने बुलेट ट्रेन चलाये जाने का वादा भी शामिल है और सौ से अधिक शहरों को खड़े करने की बात कही है जो औद्योगिक केंद्र के रूप में विकसित होंगे.
नदियों को जोड़ना और सबके लिए मकान की व्यवस्था. ये तमाम ऐसे वादे हैं जिसके लिए लंबे समय तक काम करने की जरूरत है और अगर ये काम होते हैं तो इसके नतीजे पांच साल के लिए नहीं लंबी अवधि के लिए देश को प्रभावित करेंगे. वे कहते हैं इक्कीसवीं सदी भारत के नाम होगी. इन तमाम वादों में एक बात तो साफ है कि वे भारत को विश्व शक्ति के रूप में स्थापित करने की बात करते हैं. हालांकि दोनों राजनीतिक नेतृत्व में तुलना करना बेमानी होगा, फिर भी नया नेतृत्व अपने दावों को कहां तक सच कर पायेगा, इसका आकलन प्रस्तुत है.
सोलहवीं लोकसभा के लिए चुनाव की घोषणा के बाद से ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जितनी भी रैलियां की, उन सब में उन्होंने विकास की खूब बातें कीं. उन भाषणों के दौरान मोदी ने गुजरात के विकास मॉडल की चर्चा कुछ इस अंदाज में की, कि यह लोगों के दिलो-दिमाग में विकास के लिए एक तरह के आंदोलन की एक नयी परिकल्पना जैसा लगने लगा है. इस लिहाज से उनकी तुलना जवाहर लाल नेहरू के विकास कार्यो से की जाने लगी है, लेकिन यह तुलना उचित नहीं है.
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में भारत निर्माण का काम जीरो स्तर से शुरू होकर एक मुकाम पर पहुंचा था, लेकिन हमारे देश की पिछली सरकारों ने जिस तरह से विकास कार्य किया है, नरेंद्र मोदी को उसी को और विस्तार देना है. पंडित नेहरू का दौर अलग था और मौजूदा दौर उससे बिल्कुल अलग है. उस वक्त देश को आजादी मिली थी और देश अपने लोकतांत्रिक स्वरूप को पाने के बाद उसे मजबूत करने की कोशिशों में लगा हुआ था. उस वक्त पंडित नेहरू ने जो काम किये, उसमें बहुत महत्वपूर्ण था भारत को एक आधुनिक देश बनाना. पंडित नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखते हुए भारतीय लोकतंत्र को एक नया आयाम दिया. तब वे चाहते तो तानाशाह हो सकते थे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. पंडित नेहरू के समय भारत कई तरह की बुनियादी चुनौतियों और संसाधनों की कमी से जूझ रहा था, फिर भी उन्होंने अपने विकास के कामों में लोक व्यवहारिता को शामिल रखा. जबकि मौजूदा दौर में जिस तरह से सत्ता में कॉरपोरेट घरानों का दखल बढ़ा है और संसाधनों का बेतहासा दोहन हो रहा है, इसमें पूर्ण बहुमत पानेवाले मोदी नया क्या करते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा.
सोलहवीं लोकसभा के लिए चुनाव की घोषणा के बाद से ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जितनी भी रैलियां की, उन सब में उन्होंने विकास की खूब बातें कीं. उन भाषणों के दौरान मोदी ने गुजरात के विकास मॉडल की चर्चा कुछ इस अंदाज में की, कि यह लोगों के दिलो-दिमाग में विकास के लिए एक तरह के आंदोलन की एक नयी परिकल्पना जैसा लगने लगा है. इस लिहाज से उनकी तुलना देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के विकास कार्यो से की जाने लगी है, लेकिन मुङो लगता है कि यह तुलना उचित नहीं है. नेहरू और मोदी की तुलना किसी भी रूप में नहीं की जा सकती.
आजकल एक प्रचलन हो गया है, कि लोग उठते हैं और पंडित नेहरू की नीतियों को गाली देने लगते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि नेहरू की आर्थिक नीतियों पर उस वक्त सबकी सहमति हुआ करती थी और वे नीतियां उस दौर के लिए बहुत ही सटीक हुआ करती थीं. आजादी से पहले 1944 में एक ‘बांबे क्लब’ का गठन हुआ था. उस क्लब में टाटा, बिरला और सिंघानिया जैसे बड़े व्यापारिक घराने के लोग सदस्य थे. वहीं से पंचवर्षीय योजना का खाका खींचा गया, जिसमें यह बात रखी गयी कि प्राइवेट सेक्टर नहीं, बल्कि पब्लिक सेक्टर पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना होगा.
उसी दौरान स्टील प्लांट, एल्यूमिनियम प्लांट और कई बड़े औद्योगिक संस्थानों के साथ-साथ कई सांगठनिक-संवैधानिक संस्थाओं का गठन हुआ, जो आज भी बदस्तूर काम कर रही हैं.
नेहरू के समय भारत का ग्रोथ रेट बहुत अच्छा था, लेकिन 1962 में चीन से हार के बाद भारत थोड़ा सा लड़खड़ाया और देश में अकाल जैसी स्थिति बनी, जिससे अर्थव्यवस्था काफी प्रभावित हुई. उसी दौरान 27 मई, 1964 को पंडित नेहरू का देहांत हो गया. उसके बाद जब इंदिरा गांधी आयीं, उन्होंने अपने पिता के उलट आर्थिक नीतियां लागू कर दीं. इंदिरा जी ने पब्लिक सेक्टर को ज्यादा तवज्जो दी और प्राइवेट सेक्टर को स्टेट चाइल्ड बना दिया, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ा और आज हम उसी भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कई आंदोलनों और राजनीतिक परिवर्तनों से रूबरू हो चुके हैं. ऐसे में आज भी पंडित नेहरू की प्रासंगिकता उतनी ही है, जितनी कि तब थी. उनकी नीतियां भले ही आज के दौर में सटीक न बैठें, लेकिन आधुनिक भारत के निर्माण में उनका जो योगदान है, उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता. यही वजह है कि आज जब नरेंद्र मोदी विकास को आंदोलन का स्वरूप देने की बात कर रहे हैं, तो हमारे सामने पंडित नेहरू खड़े नजर आ जाते हैं.
जहां तक बात गुजरात के विकास मॉडल के देश भर में लागू करने की बात है, तो इस बात से खुद नरेंद्र मोदी ने इनकार करते हुए कहा है कि पंजाब के लोगों को गुजरात का ढोकला खिलाओगे तो कतई नहीं चल पायेगा. प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कामों को अभी देखा और परखा जाना बाकी है. इसलिए अभी से उनके काम को लेकर किसी पूर्व प्रधानमंत्री से तुलना कहीं से भी उचित नहीं है. इतना जरूर है कि गुड गवर्नेस को लेकर नरेंद्र मोदी एक प्रतीक के रूप में उभरे हैं, जो हो सकता है कि देश के लिए बहुत ही फायदेमंद साबित हो. विकास की बात तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी करते थे और उन्होंने भी पंडित नेहरू की आधुनिक भारत की परिकल्पना को ही और विस्तार दिया. 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने भी विकास के नाम पर ही वोट मांगा था, लेकिन अब तक कुछ खास नहीं कर पाये हैं.
दरअसल, हमारा लोकतंत्र अब एक ऐसी परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है, जहां नेताओं को लगने लगा है कि जाति-धर्म की बात करना अब बेमानी होती जा रही है. यही वजह है कि अब वे विकास की बातों पर जोर देने लगे हैं और इसी आधार पर केंद्र-राज्य की सत्ताएं एक नया रूप अख्तियार करने लगी हैं. पंडित नेहरू के दौर में कांग्रेस में गवर्नेस को लेकर लीडरशिप की कमी नहीं थी, नेतृत्व का संकट नहीं था, जैसा कि मौजूदा दौर में है. इस वक्त कांग्रेस में दूरदर्शी नेतृत्व का घोर संकट है, जिसका फायदा मोदीजी को मिला है और देश में एक कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत सरकार की उम्मीद जगी है.
हालांकि किसी भी चीज को लेकर बहुत एक्स्ट्रीम (अति) में चले जाना किसी देश के लिए बहुत अच्छी बात नहीं होती. सिर्फ विकास-विकास की बात करके एक्स्ट्रीम होना अच्छा नहीं है, क्योंकि अति से कुछ को फायदा तो होता है, लेकिन ज्यादा को नुकसान होता है. पंडित नेहरू की तरह ही आज नरेंद्र मोदी के विकास की बात को भी कई लोग नकारते हैं, जो कि गलत है.
दरअसल, गुजरात में मोदी ने एक भी पब्लिक सेक्टर को बेचा नहीं, बल्कि उसके प्रबंधन को छूट दी है कि वे अपने हिसाब से बिजनेस करें. मोदी बहुत ही प्रैक्टिकल आदमी हैं. प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की सरकार किसी आइडियोलॉजी पर नहीं चलेगी. मेरा मानना है कि उन्हें जो अच्छा लगेगा और विकास के लिए जो नीति अच्छी होगी, उसी को वे आगे बढ़ायेंगे. इस बात की तस्दीक इससे होती है कि 2007 के गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद मोदी ने बजरंग दल, संघ और विहिप की एक न सुनी. इस वजह से गुजरात में ये संगठन मोदी से खिलाफ थे और आज भी बहुत से लोग नाराज रहते हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि मोदी ने इन संगठनों की ज्यादती और मनमानी को बंद कर दिया. जहां कहीं भी लगा कि ये संगठन मुसलिम विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने की कोशिश कर रहे हैं, मोदी ने उनके खिलाफ वहां सख्त कदम उठाये. मोदी को अच्छी तरह पता है कि अगर वह इनकी आइडियोलॉजी पर चलेंगे, तो उनकी आगे की राजनीति कुंद हो सकती है.
इन सब के बावजूद भी नरेंद्र मोदी के लिए अपने वादों को पूरा करने की चुनौतियां तो रहेंगी ही. देश बहुत बड़ा है . सवा सौ करोड़ लोगों में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक रोजगार की उपलब्धता एक बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन उसी के साथ मोदी के पास संभावनाएं भी हैं, जैसा कि वे अपने भाषणों में कहते रहते हैं. किसी भी देश के निर्माण में वहां की जनसंख्या का बेहद अहम रोल होता है. संसाधन कम होंगे, जनसंख्या ज्यादा होगी, तो देश निर्माण में बाधा आयेगी ही. आजादी के बाद से अब तक भारत की जनसंख्या चौगुनी हो गयी है. इस ऐतबार से देखें तो विकास और गवर्नेस के लिए यह विशाल आबादी कुछ हद तक बाधक है. ऐसे में नरेंद्र मोदी के लिए अपने वादों पर पूरी तरह से खरा उतरना काफी मुश्किल होगा. वैसे अभी से निराशाजनक बातें करना उचित नहीं है. अभी तो उनके कार्यो को देखा-परखा जाना बाकी है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)