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यह राष्ट्रीय रूपांतरण की घड़ी भी है

यह बदलाव भारतीय वोटर की परीक्षा की घड़ी भी है. हमारा काम केवल सरकार चुनना भर नहीं है. उसे भटकने से रोकना भी है. याद रखें तकरीबन दस साल तक हमारा आर्थिक विकास ठीक रास्ते पर रहे तो हम अपनी गरीबी को पूरी तरह खत्म कर सकते हैं. यह नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत जीत है, […]

यह बदलाव भारतीय वोटर की परीक्षा की घड़ी भी है. हमारा काम केवल सरकार चुनना भर नहीं है. उसे भटकने से रोकना भी है. याद रखें तकरीबन दस साल तक हमारा आर्थिक विकास ठीक रास्ते पर रहे तो हम अपनी गरीबी को पूरी तरह खत्म कर सकते हैं.

यह नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत जीत है, पर इसके पीछे छिपे बड़े कारणों की ओर भी हमें देखना चाहिए. एक बात साफ है कि भारतीय लोकतंत्र का रूपांतरण हो रहा है. इस बात को ज्यादातर पार्टियों ने नहीं समझा. इनमें भाजपा भी शामिल है, जिसे इतिहास में सबसे बड़ी सफलता मिली है. ऐसा कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी जगह भाजपा से भी ऊपर बना ली थी. इसकी आलोचना भी की गई. पार्टी के भीतर भी मोदी विरोधी थे. इतना तय है यह चुनाव यदि मोदी के बजाय लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा जाता तो ऐसी सफलता नहीं मिलती. उस स्थिति में पार्टी पुराने मुहावरों को ही दोहराती रहती. बीजेपी केवल कांग्रेस की खामियों के सहारे नहीं जीती, बल्किउसने देश को एक नया सपना दिया है. भाजपा की जीत के पीछे देश के नौजवानों के सपने हैं. नरेंद्र मोदी ने इन सपनों को जगाया है. अब यह उनकी परीक्षा है कि वे इन सपनों को पूरा करने में सफल हो पाते हैं या नहीं.

दूसरी ओर कांग्रेस ने भी इतिहास से सबक नहीं सीखा. उसे इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली है. क्षेत्रीय दलों ने भी समय से कोई खास पाठ नहीं सीखा. मामला केवल कांग्रेस के खिलाफ होता तो इसका फायदा क्षेत्रीय दलों को भी मिलना चाहिए था. देश की नई राजनीति की दशा-दिशा को समझने की कोशिश करनी चाहिए. वोटर ने शासक बदलने का रास्ता देख लिया है. इस बार का वोट केवल पार्टियों के बूथ मैनेजमेंट को नहीं दिखा रहा है. जो पार्टियाँ संकीर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों के सहारे आगे बढ़ना चाहती है, उन्हें अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना होगा.

भारतीय जनता पार्टी हिंदू राष्ट्रवाद की पार्टी है. हालांकि नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में धार्मिक आधार पर कोई अपील नहीं की और संघ परिवार के उन लोगों को ङिाड़की भी लगाई. बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि नरेंद्र मोदी के ऊपर हिंदुत्व का तमगा नहीं है. उन्हें हिंदुत्व की छवि का प्रचार करने की ज़रूरत ही नहीं थी. वह अच्छी तरह स्थापित है. सवाल है क्या वे अपनी हिंदू छवि के साथ देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते हैं? इसका जवाब समय देगा और मोदी सरकार के काम बताएंगे कि वे करना क्या चाहते है. उनके ऊपर अर्थव्यवस्था को सम्हालने के साथ-साथ देश के आधुनिकीकरण की प्रक्रि या को गति प्रदान करने की जिम्मेदारी है. बीजेपी विरोधी पार्टियों को भी समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए धर्म निरपेक्षता का इस फूहड़ हद तक सहारा नहीं लेना चाहिए था. चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले दिग्विजय सिंह का यह कहना कि नरेंद्र मोदी को किसी भी कीमत पर सत्ता में आने से रोकना चाहिए. किस कीमत पर? उन्हें अब यह देखना चाहिए कि जनता ने उनकी पार्टी को किस कूड़ेदान में फेंक दिया है.

चुनाव में हार या जीत हमेशा के लिए नहीं होती. वोटर चाहेगा तो आज हारे हुए दल को कल सिर पर बैठा लेगा, पर क्यों उठाएगा? सन 1977 में पराजय की शिकार कांग्रेस 1980 में फिर से जीतकर आई थी. उस जीत के पीछे सबसे बड़ा कारण था जनता पार्टी का जनता के मंसूबों के खिलाफ जाना. विकल्प में चूंकि कांग्रेस ही सामने थी, इसलिए वह जीती. आज बीजेपी की जीत के पीछे भी सबसे बड़ा कारण यह है कि नरेंद्र मोदी ने पूरी शिद्दत से कहा कि मैं विकल्प देना चाहता हूँ. अब यह परीक्षा मोदी की है कि वे कैसा विकल्प देते हैं. अलबत्ता गुजरात सरकार के अनुभव जनता के सामने हैं. हाल में एक चैनल की पत्रकार बिहार के किसी गाँव में कुछ युवकों से बात कर रहीं थीं. नौजवान का कहना था कि गुजरात में विकास हुआ है, इसे कोई अंधा भी बता सकता है. पत्रकार ने पूछा, पर आप कैसे कह सकते हैं? इसपर उसने कहा, मैं गुजरात में काम करता हूं. मैं ही नहीं बिहार के तमाम नौजवान वहां काम करते हैं. मुङो वहाँ काम मिला, यह वहां के विकास का प्रतीक है. वहाँ के लोग तो यहां काम करने नहीं आते. क्यों नहीं आते? जनता के पास अपने तर्क होते हैं. उसके पास देखने का अपना नज़रिया होता है. जनता यों ही भरमाई नहीं जा सकती. एक सवाल यह भी है कि क्या दिल्ली की नई सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्देश पर काम करेगी? भाजपा और संघ दोनों को इस मामले में सावधानी बरतने की जरूरत होगी. मोदी की यह जीत साम्प्रदायिक संकीर्णता की जीत नहीं है. ऐसा व्यवहार में होता हुआ भी दिखाई भी देना चाहिए. बेशक यह काम आसान नहीं है. संघ के कार्यकर्ता ने इस चुनाव में जान लगा दी थी. क्या वह अपना पुरस्कार नहीं माँगेगा? मोदी सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा यही होगी कि वह अपने ऊपर संकीर्णता का दाग न लगने दे.

यदि नई सरकार शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक जीवन में संकीर्ण एजेंडा को लागू करने की कोशिश करेगी तो उसे भारी नुकसान होगा. उसे आधुनिक, प्रगतिशील और बहुजातीय, बहुसंस्कृति वाले भारत का निर्माण करने के लिए आगे आना चाहिए. उसे जिताने वाले वोटरों की यही कामना है. नई सरकार को सबसे पहले आर्थिक मोर्चे पर बड़े फैसले करने होंगे. नरेंद्र मोदी का नारा था, मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेस. इसका मतलब क्या है? वोटर को काम करनेवाली सरकार चाहिए. किसी भी जाति-धर्म या सम्प्रदाय का व्यक्ति हो, उसे अपने जीवन में राहत चाहिए. नरेंद्र मोदी ने यह राहत देने का भरोसा दिलाया है. यदि वे अपने वादे को पूरा करने में विफल रहे तो वोटर उन्हें भी माफ नहीं करेगा. उसने शासक बदलने का रास्ता देख लिया है. बहरहाल इस वक्त देश चौराहे पर खड़ा है. यहाँ से नया रास्ता निकलता है, जो खुशहाली की ओर ले जाए. साथ ही भटकने का खतरा भी है.

जागरूक नागरिकों का फर्ज अपनी सरकारों को भटकाव से रोकना है. इस माने में यह बदलाव भारतीय वोटर की परीक्षा की घड़ी भी है. हमारा काम केवल सरकार चुनना भर नहीं है. उसे भटकने से रोकना भी है. याद रखें तकरीबन दस साल तक हमारा आर्थिक विकास ठीक रास्ते पर रहे तो हम अपनी गरीबी को पूरी तरह खत्म कर सकते हैं. यह बहुत बड़ा काम है. इसमें आपकी भागीदारी चाहिए.

प्रमोद जोशी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश के कई अखबारों और पोर्टलों के लिए लिखते हैं.

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