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सहज स्वाभाविक है मोदी का प्रादुर्भाव

पिछले दस साल में यूपीए के शासन ने देश को जिस स्थिति में पहुंचा दिया है उसमें यह स्वाभाविक था कि लोग नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत फैसले लेने वाले और अपेक्षाकृत ईमानदार छवि वाले राजनेता में उम्मीद की किरण देखने लगे. इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है. हालांकि यह सब अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन […]

पिछले दस साल में यूपीए के शासन ने देश को जिस स्थिति में पहुंचा दिया है उसमें यह स्वाभाविक था कि लोग नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत फैसले लेने वाले और अपेक्षाकृत ईमानदार छवि वाले राजनेता में उम्मीद की किरण देखने लगे. इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है. हालांकि यह सब अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और निर्भया कांड के खिलाफ उमड़े जनसैलाब का भी नतीजा है. वैसे चुनाव आते-आते वह सकारात्मक माहौल धीरे-धीरे कम होने लगा. भ्रष्टाचार और विकास के मुद्दे पीछे छूट गये, धर्म, जाति और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ने हमारे बीच अड्डा जमा लिया. क्या इसके बावजूद देश एक सर्वमान्य राजनेता मिलने की उम्मीद कर सकता है? यह लाख टके का सवाल है. इनकी वजहों की पड़ताल करते हुए प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक एवं स्वराज पीठ के अध्यक्ष राजीव वोरा का यह आलेख..

किसी भी चीज का निर्माण बेहतर हो सके इसके लिए उसके निर्माण की प्रक्रिया का बेहतर होना भी जरूरी है. जैसे कोई स्त्री मां बनने वाली होती है तो उसके आसपास बेहतर माहौल तैयार किया जाता है ताकि वह स्वस्थ्य बच्चे को जन्म दे सके. मगर पिछले डेढ़-दो महीने से देश में आम चुनाव की वजह से जो माहौल बना है वह हताश करने वाला है. लोग मुद्दों और सिद्धांतों के बदले गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप पर उतर आये हैं. हर तरफ हिंसा और द्वेष का जो माहौल तैयार हुआ है वह आने वाले दिनों में किस तरह के संसद और सरकार को जन्म देगा और वह संसद और सरकार क्या गुल खिलायेगी, यह सोच कर भय लगता है.

हालांकि इन दिनों देश में जो राजनीतिक हालात बने हैं उसकी कोई तात्कालिक वजह नहीं है. यह हमारे देश की बहुदलीय संसदीय प्रणाली और चुनाव पद्धति का दोष है. इनकी वजह से हर चुनाव में तकरीबन ऐसे ही माहौल बन जाते हैं. प्रतिद्वंद्विता और प्रतिस्पर्धा ही चुनाव के नियम हैं. इस दौरान मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के प्रयास में हर राजनीतिक दल विभाजनकारी प्रयास करते हंै. पार्टियां ऐन चुनाव के वक्त लोगों को भाषा, धर्म, जाति, राज्य आदि के नाम पर पोलराइज करती है. हालांकि पोलराइजेशन और ध्रुवीकरण जितने सौम्य शब्द हैं उसका असर इतना सौम्य नहीं है. इसकी वजह से पूरे समाज में गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. देश और समाज छिन्न-भिन्न होकर रह जाता है.

मगर चुनाव के बाद जब सरकार बनाने की नौबत आती है तो यही पार्टियां आपस में एक हो जाती हैं. जो पार्टी चुनाव में कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ती है वह सरकार बनाते वक्त कांग्रेस से ही समर्थन ले लेती है. दिल्ली में आप की सरकार के उदाहरण ने इस बात को और पुख्ता किया है. सपा और कांग्रेस का उदाहरण तो सर्वविदित है. पार्टियां चुनाव के वक्त जनता को छिन्न-भिन्न करके छोड़ देती हैं, मगर चुनाव बाद वे एक हो जाती हैं और जनता बंटी की बंटी रह जाती है. जैसा हाल में मुजफ्फरनगर में हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच में हुए घटनाक्रम के जरिये देखा और समझा गया.

आजादी के बाद से चुनावों की वजह से देश लगातार विभाजनकारी परिस्थितियों से जूझ रहा है. समाज हिंदू-मुसलमान, दलित और सवर्ण में बंट गया है. अधिकार जरूर मिले मगर भेदभाव बढ़ गया. समाज में सौहार्द का रिश्ता खत्म हो गया. चुनावों की वजह से यह जो हुआ है वह हमारे संविधान की भावनाओं के खिलाफ है. संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है .. उन सब के बीच व्यक्ति की प्रतिष्ठा एवं राष्ट्र की एकता को आश्वस्त करते हुए भातृ भावना का प्रयास किया जाये.. अगर हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं और यह चुनाव की वजह से हो रहा है तो यह संविधान का उल्लंघन है. 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि प्राक्कथन संविधान का हिस्सा है, इसे महज भावनात्मक शब्दावली मानना उचित नहीं है. ंगर हमारी चुनाव प्रक्रिया समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया हेतु भातृभाव पैदा नहीं कर रही है. मुजफ्फरनगर इसका सबसे बुरा उदाहरण है. इसने जाट-मुसलिम समाज को तोड़ने का काम किया है. ऐसे प्रयास पिछले 50 सालों से लगातार चल रहे हैं. हिंदू, मुसलमान, दलित, पिछड़ा, भूमिहार, राजपूत ऐसे कितने विभेद पैदा हुए हैं. यह बहुदलीय संसदीय प्रणाली का ही दोष है कि चुनाव प्रक्रिया समाज को विभाजित करके संसद का निर्माण करती है.

देश के बहुदलीय संसदीय तंत्र और चुनाव पद्धति की दूसरी खामी यह है कि कोई पार्टी जितनी कमजोर होती है वह अपने अस्तित्व के बचाव में उतनी ही कठोर चाल चलती है. और देश की राजनीतिक स्थिति जितनी कमजोर होती है, उतना ही सारे दल मर्यादाएं छोड़ देते हैं. समाज को विभाजित करने और अपने प्रतिद्वंद्वी को जलील करने के लिए सारे राजनीतिक दल लोकतांत्रिक ही नहीं सहज सामान्य नागरिक मर्यादाएं भी छोड़कर उस निम्न स्तर पर आ जाते हैं जिसे देखकर ग्लानि होती है और भय लगता है कि इन्हीं लोगों के द्वारा हिंदुस्तान का राज्य चलना है.

दरअसल, कांग्रेस के शासन ने राज्यतंत्र और देश को जहां लाकर खड़ा कर दिया है और जितना नीचे गिरा दिया है, उसकी प्रतिक्रिया में मोदी फिनोमिना का प्रादुर्भाव स्वभाविक था. लोग चाहते हैं कि यह कमजोर और भ्रष्ट सरकार किसी भी कीमत पर खत्म हो जाये. विकल्प में मोदी लोगों को एक मजबूत, ईमानदार और बेहतर प्रशासक का बोध कराते हैं. लिहाजा लोगों का सहज और स्वभाविक आकर्षण उनकी तरफ है. वहीं कांग्रेस और सपा, बसपा, राजद जैसी दूसरी तमाम पार्टियां हताशा में कम्युनल वर्सेज सेकुलर कार्ड खेल रही हैं.

हकीकत तो यह है कि कोई भी पार्टी अगर कम्युनल है तो देश का संविधान उसे राजनीति करने का अधिकार ही नहीं देता. मगर भाजपा को इस देश में एक राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता मिली हुई है. दूसरी तरफ हिंदुत्व के नाम पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी जितनी कम्युनल है, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां भी मौका आने पर उतनी ही कम्युनल होती रही हैं. इस तरह से देखा जाये तो हर दल तकरीबन एक जैसे कम्युनल हैं और एक जैसे सेकुलर, सिवा वाम दलों के. हम देखते हैं कि मौका पड़ने पर देश की सेकुलर पार्टी भी कम्युनल कार्ड खेलती है और कम्युनल पार्टियां भी सेकुलर नजर आने की कोशिश करती हैं.

इस बात को स्वीकार करना होगा कि अन्ना-केजरीवाल और उनके साथियों ने ही
देश को भ्रष्टाचार के मसले पर जागरूक किया है. मगर जहां आज भाजपा बेहतर प्रशासन की बात कर रही है, अरविंद केजरीवाल की पार्टी का नारा फलां को हराओ और फलां को जिताओ रह गया है. लोगों को दिख रहा है कि कम से कम भाजपा भ्रष्टाचार तो रोकती है और मोदी की अपनी छवि भ्रष्टाचार को लेकर साफ-सुथरी है. आम आदमी पार्टी जो भ्रष्टाचार को खत्म करने के नारे के साथ सामने आयी थी, आज उसकी पार्टी के ही कम से कम चौदह फीसदी उम्मीदवार भ्रष्ट और अपराधी प्रवृत्ति के हैं. जो सिद्धांत के आधार पर उठकर खड़े होते हैं, जनता उन्हें उसके लिए सर्मथन देती है. उनसे आशा और अपेक्षा रखती है. वे जब पहला ही मौका आने पर, पहली ही कसौटी पर और वह भी छोटी-मोटी कसौटी पर सारे सिद्धांतों को हवा में उड़ा दें तो स्वभाविक है कि जनता का भरोसा टूट जाता है. ऐसे लोग भविष्य के लिए हताशा का माहौल पैदा करते हैं. ऐसा लगता है कि इस देश में कोई अच्छी चीज हो ही नहीं सकती और राजनीति केवल लोगों को ठगने का नाम है. भ्रष्टाचार के नाम पर लड़ने आये और देश को मझधार में छोड़ दिया है. अब हालत बाबा भारती के घोड़े वाली कहानी जैसी हो गयी है. आने वाले समय में कोई दूसरा आदमी ईमानदार कोशिश करेगा तो उसे कई कठिनाइयां होंगी, लोग उस पर आसानी से भरोसा नहीं करेंगे. हालांकि जहां तक इस चुनाव की बात है, अगर मोदी सरकार नहीं बना पाते और कोई सरकार बनाता है तो उसे भी ईमानदारी की राह तो अपनानी ही पड़ेगी.

जहां देश को बेहतर नायक मिलने का सवाल है, नायकत्व की खूबी यह होती है कि हर समुदाय, हर व्यक्ति उसमें अपना चेहरा देखता है. अगर किसी व्यक्ति को देखकर ऐसा लगे कि इसमें मुङो अपना चेहरा नजर आ रहा है तो हम उसे अपना नायक, अपना नेता मानने के लिए तैयार हो जाते हैं. मगर आज कोई नेता ऐसा नजर नहीं आता. इसकी वजह भी साफ है, आज देश के सामने कोई ऐसा आदर्श नहीं है जिसके पक्ष में पूरा देश एक हो. जैसा आजादी के वक्त था, जब पूरा देश गुलामी से मुक्ति चाहता था और गांधी जी ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जो हर किसी को अपने जैसे लगने लगे. हर समुदाय को अपना अक्स उनमें नजर आने लगा. लिहाजा, बड़ी आसानी से वे पूरे देश के नायक, पूरे देश के सर्वमान्य नेता बन गये.

मगर आज हर समुदाय के अपने-अपने स्वार्थ हैं और उन्हीं स्वार्थो पर आधारित उनकी राजनीति हो गयी है. बहुदलीय राजनीति ने इन स्वार्थो को अस्तित्व दिया है और राजनीति टुकड़ों में विभाजित हो गयी है. ऐसे में कोई सर्वमान्य नेता पैदा कैसे हो सकता है.

अगर देश को सचमुच एक नायक चाहिये तो उसे अपने स्वार्थो से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना होगा. तभी कोई नेता उभरेगा और उस नेता में सभी लोग समान रूप से अपनी छवि देखेंगे. वह नेता हिंदुस्तान की असलियत, यहां की सभ्यता, संस्कृति को समङोगा, वह देश के मूल मंत्र को जानेगा.

कई लोगों को ऐसा लगता है कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश को जोड़ दिया था और उस वक्त अन्ना देश के नायक बनकर उभरे थे. मगर असल में वह पूरे देश का आंदोलन नहीं था, वह महज मिडिल क्लास और कारपोरेट सेक्टर का आंदोलन था. उन लोगों को लगता था कि भ्रष्टाचार की वजह से देश के विकास में वह अपेक्षित तेजी नहीं आ पा रही है. उनका काम रुक रहा है. वे लोकपाल नामक संस्था में उम्मीद तलाश रहे थे. जबकि भ्रष्टाचार तो हमारे समाज में व्याप्त है, हमारे तंत्र में शामिल है. सरकारी तंत्र का हिस्सा कैसे सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकता है. कर्नाटक के दूसरे लोकपाल भी जमीन के मामलों में घिर गये हैं. यह उदाहरण साबित करता है कि लोकपाल भ्रष्टाचार का इलाज नहीं है. दरअसल, हमारे देश में शोषण का स्ट्रक्चर लागू है. जब तक इस संरचना में जवाबदेही आंतरिक रूप से शामिल नहीं होगी, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने वाला. इसके लिए सांचा ही ऐसा बनाना होगा कि अफसर लोगों के प्रति जवाबदेह हों. इसे पिरामिड की शक्ल देना होगा, अभी व्यवस्था उल्टे पिरामिड की तरह काम कर रही है. इस पिरामिड को उलटना होगा.

समाज के निचले सतह से जब उपरी सतह को शक्ति मिलेगी तभी ऊपर बैठे लोग समाज के निचले तबके के प्रति जवाबदेह होंगे. जो चुनाव हो रहे हैं उसकी प्रक्रिया बदलने की जरूरत है. लोग नीचे से चुने जाने चाहिये और इस प्रक्रिया को दलीय भावनाओं से दूर रखना चाहिये. पंचायत स्तर से लोग चुने जायें और ऊपर के स्तर पर जाकर संसद में प्रतिनिधित्व करें. जब ऐसा होने लगेगा तो खुद ब खुद प्रतिनिधि लोगों के नियंत्रण में रहेंगे. क्योंकि हर स्तर का प्रतिनिधि समङोगा कि उसे चुनने वाले लोग कभी भी उसकी लगाम पकड़ सकते हैं. गांधी और जयप्रकाश भी इसी तरह की संरचना को खड़ा करना चाहते थे, इसके बिना कोई चारा भी नहीं है.

(बातचीत पर आधारित)

राजीव वोरा

गांधीवादी चिंतक

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