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सत्ता की सीढ़ी भी विकास का द्वार भी

।।हम लोग:आशुतोष मिश्र।। हमारे देश के एक बहुत बड़े हिस्से का यह मानना है कि सभी राजनैतिक पार्टियां समान रूप से भ्रष्ट हैं. इस विचार में तथ्य और तर्क है लेकिन इससे एक सवाल भी खड़ा हो जाता है. अगर हमारी राजनीति इतनी ही गिरी हुई है तो इतने चुनाव के बाद भी हमारे देश […]

।।हम लोग:आशुतोष मिश्र।।

हमारे देश के एक बहुत बड़े हिस्से का यह मानना है कि सभी राजनैतिक पार्टियां समान रूप से भ्रष्ट हैं. इस विचार में तथ्य और तर्क है लेकिन इससे एक सवाल भी खड़ा हो जाता है. अगर हमारी राजनीति इतनी ही गिरी हुई है तो इतने चुनाव के बाद भी हमारे देश के लगभग 82 करोड़ मतदाताओं का 70 या 75 प्रतिशत हिस्सा, भीषण गर्मी के बावजूद वोट डालने के लिए क्यों तैयार है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम आदमी राजनीति के रवैये से निराश है लेकिन उसे इसी राजनीति से अपने अच्छे भविष्य का भरोसा भी है.

ध्यान से देखने पर हम पाएंगे कि राजनीति में हमेशा से ही समाज के लिए अच्छे और बुरे, दोनों का समावेश रहा है. कहा जाता है कि दीर्घकालिक दृष्टि से राजनीति का उद्देश्य चाहे जो भी रहा हो, तात्कालिक तौर पर उसका उद्देश्य सत्ता को हासिल करना ही होता है. वे वर्ग और दल भी सत्ता पाने के प्रयास में रहते हैं, जिन्हें शासन में नहीं बल्किविपक्ष में ही रहकर राज्य की शक्ति में सहभाग मिलने से संतोष करना पड़ता है. इस तरह राजनीति तो सदैव शक्ति और सत्ता के लिए ही होती है लेकिन इसी स्वार्थी काम से समाज में कई बार बड़े और बुनियादी बदलाव आते हैं. उदाहरण के लिए दुनिया के एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने निजी नेतृत्व की संभावना को देखकर, साम्यवाद या समाजवाद की विचारधारा को राजनीति का आधार बनाया. इसी राजनीति ने कई क्रांतियों को जन्म दिया और पूरे यूरोप में कैथोलिक-कंजरवेटिव राजनीति के विरुद्ध श्रमिकों की राजनीति को खड़ा किया. (इन आंदोलनों में यहूदी बुद्धिजीवियों की भूमिका को सिर्फ संयोग नहीं माना जा सकता. इस समय भी अमेरिका की उदारवादी राजनीति में यहूदी बुद्धिजीवियों की ही नहीं, यहूदी मतदाताओं की भी भूमिका है.)

भारत की साम्यवादी-समाजवादी राजनीति में भी इसी बुद्धिजीवी वर्ग का स्वार्थ दिखता है. इसी संकीर्ण, स्वार्थी राजनीति से हमारे भारतीय समाज में बड़े बदलाव हुए, लेकिन इसी राजनीति के कारण आज भारतीय राजनीति के नेतृत्व में आदिवासी या दलित वर्ग का कोई प्रतिनिधित्वि नहीं है. जनता के लिए राजनीति का मतलब कुछ भी हो सकता है लेकिन एक पेशेवर राजनीतिज्ञ के लिए राजनीति सत्ता पाने, उसको बचाने और बढ़ाने का साधन मात्र है. ऐसा नहीं है कि जनतांत्रिक राजनीति में भ्रष्टाचार, हिंसा और दूसरी बुराइयां कम हो जाती हैं. इसके बावजूद कई बार बहुत व्यापक स्तर पर सामाजिक परिवर्तन हो जाता है. पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के शासन में ऑपरेशन बर्गा के जरिये इतना बुनियादी बदलाव तो हो ही गया है कि कोई सामंती शैली में ‘गोरिबो’ को ‘संत्रस’ नहीं दे सकता. जनतांत्रिक राजनीति में कई बार इतनी खामोशी से एक साथ कई सामाजिक क्रांतियां हो जाती हैं कि उनकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता.

इस सिलसिले में उत्तर प्रदेश का उदाहरण उपयुक्त है. इस प्रदेश में 1989 तक, यानी कांग्रेस के एकाधिकारवादी शासन में नेतृत्व पर पहले तो केवल ब्राह्मणों का और फिर बाद में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का नियत्रंण रहा. उसके बाद मन्दिर का दौर चला लेकिन इसी दौर में न केवल मंडलीकरण की प्रक्रि या पूरी हुई, बल्कि पहले उसके साथ और फिर उससे स्वतंत्र और उसके विरु द्ध, दलितीकरण की प्रक्रि या न केवल शुरू हुई बल्किस्वतंत्र रूप से सत्ता पर भी काबिज हो गयी. उत्तर प्रदेश की राजनीति उसी प्रकार से भ्रष्ट थी लेकिन इसी राजनीति से मंडलीकरण और दलितीकरण की दो सामाजिक क्रांतियां भी हो गयीं. सच्चाई यह है कि पूरी दुनिया की राजनीति शुभ और अशुभ, दोनो रही है. यह भी ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति के शुभ और अशुभ पक्ष, एक दूसरे से अलग नहीं. एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे से जुड़े माने गये हैं. इस विरोधाभास की श्रेष्ठतम व्याख्या हमारे देश के प्राचीन विचारकों ने की है. यह तथ्य इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि पश्चिमी राजनीति शास्त्रियों ने प्राचीन भारत को ‘राजनीति शास्त्र का रेगिस्तान’ मानकर उपेक्षित ही किया है.

प्राचीन भारतीय विचारकों ने राजनीति के बुरे और अच्छे, दोनों पक्षों को ‘राजधर्म’ के व्यापक विचार में समन्वित किया है. इस ‘राजधर्म’ की विराटता की ओर संकेत करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘जैसे हाथी के पांव में सभी के पांव आ जाते हैं, उसी तरह से राजधर्म में सभी धर्म समाहित हो जाते हैं.’ उन सबका मानना था कि राजनीति क्षुद्र ही नहीं, अनिवार्यत: पापपूर्ण भी होती है; फिर भी राजनीति न केवल धर्म है बल्कि सभी धर्मों के ऊपर आसीन राजधर्म है. राजधर्म के तौर पर राजनीति सभी धर्मों का संरक्षक है. हमको यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि राजनीति सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी है लेकिन कई कारणों से यह सामाजिक परिवर्तन का माध्यम भी है. प्राचीन काल में यह परिवर्तन धर्म से भी जुड़ा है. मार्क्‍स के हिसाब से यह परिवर्तन उत्पादन के साधनों और स्वामित्व के माध्यम से होता है. धर्म अब सामाजिक परिवर्तन करने में सक्षम नहीं है और मार्क्‍स के आर्थिक माध्यम को बदल पाना आसान नहीं है.इस तरह हमारे पास परिवर्तन की कोशिश करने के लिए राजनीति ही एक माध्यम है. चुनाव के कारण इस समय राजनैतिक चरम पर है. इस राजनीति में हम सबका सहभाग आवश्यक है. सभी मतदाताओं को मतदान के जरिये विकास का प्रकाश फैलाने का प्रयास करना चाहिये.

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं)

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