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बाहुबल यानी चुनावी जीत की गारंटी

जो काम पैसों से नहीं होता है उसके लिए बाहुबल के इस्तेमाल की परंपरा चुनावी राजनीति में पुरानी है. सीएमएस के उक्त सर्वेक्षण में यह बात उभर कर सामने आयी है कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां चुनावों में धनबल का इस्तेमाल सर्वमान्य है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अपेक्षाकृत पैसे […]

जो काम पैसों से नहीं होता है उसके लिए बाहुबल के इस्तेमाल की परंपरा चुनावी राजनीति में पुरानी है. सीएमएस के उक्त सर्वेक्षण में यह बात उभर कर सामने आयी है कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां चुनावों में धनबल का इस्तेमाल सर्वमान्य है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अपेक्षाकृत पैसे बांटे जाने के मामले कम नजर आते हैं. राजनीतिक पार्टियां इसके बदले बाहुबली प्रत्याशी या बाहुबली कार्यकर्ता से काम निकालती हैं. इसलिए इन इलाकों में राजनीति में बाहुबल का इस्तेमाल आम प्रचलन की तरह रहा है.

डरा-धमका कर वोटरों से अपने पक्ष में वोट डलवाना इन इलाकों के लिए आम बात रही है, इसलिए राजनीतिक शुचिता के दावों के बावजूद पार्टियां बड़ी संख्या में बाहुबली उम्मीदवारों को टिकट भी देती रही है. इस ट्रेंड को एसोशियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म के आंकड़ों के जरिये समझा जा सकता है.

एसोशियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म के इन आंकड़ों से राजनीति में बाहुबल के प्रभाव की बात तो उभर कर सामने आ ही रही है. एक काफी महत्वपूर्ण तथ्य यह नजर आ रहा है कि जहां देश में बाहुबलियों के जीतने की दर 14.48 फीसदी है वहीं गैर बाहुबली उम्मीदवारों के जीतने की दर महज 5.5 फीसदी है. यह फर्क राजनीतिक दलों को बाहुबली उम्मीदवारों को टिकट देने के लिए प्रेरित करता है. यही वजह है कि इस लोकसभा चुनाव में भी राजनीतिक दलों ने बाहुबलियों को जमकर टिकट बांटे हैं. जो ऊपर के आंकड़ों से भी जाहिर है कि दो बड़े राष्ट्रीय दल ने 8 मार्च तक लगभग 19 फीसदी बाहुबलियों को टिकट दिये थे.

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