भुज में तमाम मुसलमान भाइयों को गुजरात के दंगों को लेकर गहरी वितृष्णा है. उन्होंने कहा कि वे कुचले हुए लोग हैं जिन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ वोट देना पड़ता है.
13 मार्च 2014 से 25 मार्च 2014 तक गुजरात प्रवास का मुख्य उद्देश्य साबरमती अहमदाबाद स्थित सत्याग्रह आश्रम में उपलब्ध ज्ञान स्त्रोतों तथा व्यक्तियों के सम्पर्क के जरिए गांधी संबंधी विविध विषयों को लेकर शोध की संभावनाओं को तलाशना था.
आश्रम का मुख्य द्वार लगभग सात बजे सुबह ही खुलता है. उसके पहले यदि आश्रम में सैर करनी हो तो वह संभव नहीं है. गांधी के समय निश्चित रूप से ऐसा नहीं होता होगा. इस वक्त आश्रम में कुल जमा पांच छह लोग ही हैं. लगभग छह फुट ऊंची एक अमेरिकी युवती सुबह की सैर कर रही है. उसने खादी का पाजामा और कुरता खरीदकर पहन रखा है. सवाल करती है कि उसके अलावा यहां कोई भी भारतीय खादी पहने हुए क्यों नहीं है? मैं निरुत्तर हूं. वह फिर सवाल दागती है कि गांधी के इस आश्रम में इस वक्त कुल पांच छह लोग ही क्यों हैं? क्या इस देश में अब गांधी की यही हैसियत है? एक व्यक्ति चबूतरे पर बैठा गिलहरियों को मक्के के दाने खिला रहा है. हम गिलहरियों की ओर ध्यानमग्न होकर देखने लगते हैं. एक जोड़ा आया है. पत्नी प्राणायाम कर रही है और पति कसरत कर रहा है. आश्रम का एक कर्मचारी उसके घर के पास बने छोटे से शिव मंदिर के सामने झाड़ू लगा रहा है. वहां से साबरमती नदी का गंदा पानी और आसपास के कचरे के ढेर दिखाई पड़ते हैं. मन को यह समझाना पड़ता है कि गांधी के समय साबरमती ऐसी नहीं रही होगी. अपनी तमाम जनवादिता के बावजूद गांधी में सौंदर्यबोध की तीक्ष्ण समझ भी तो थी.
अहमदाबाद के सुभाष सर्किल चौराहे पर ठीक फुटपाथ पर राजू की पान गुटखे की झोला छाप दुकान सुबह सात बजे के पहले ही सज गई है. इक्का दुक्का ग्राहक आने जाने भी लगे हैं. ट्रैफिक के ड्यूटी वाले सिपाही ने साधिकार राजू से गुटखा, तम्बाकू लेकर उस पर अहसान जताया. मैंने पूछा यह तो घूसखोरी है. पास खड़े ग्राहक राकेश ने कहा कि साहब राजू की तुला राशि है. वह ग्राहकों और कानूनतोड़क अधिकारियों के बीच गुटखा, तम्बाकू के जरिए संतुलन बिठाता रहता है. इसी चौक पर प्रेमलाल पान भंडार है. उस पर तम्बाकू निषेध का एक बोर्ड लगा है लेकिन सभी ग्राहक इतनी सुबह पान, तम्बाकू खाकर ही अपने अपने गंतव्य की ओर मुखातिब होने आए हैं. मैं पूछता हूं कि जब तम्बाकू, सिगरेट बेचनी ही है तो यह निषेध वाला नारा क्यों लगा रखा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी तो मनाही कर रखी है. प्रेमलाल का तत्काल उत्तर है-गुजरात मॉडल के विकास की देश में इतनी चर्चा है साहब. क्या उसमें हम पान, तम्बाकू वालों का कोई हिस्सा नहीं है. ग्राहक ठठाकर हंस पड़ते हैं. कोई सड़क पर ही पान की पीक थूक देता है. एक बताता है पूरे गुजरात में जहां चाहो वहां शराब मिल जाती है. कानूनी तौर पर प्रदेश में शराबबन्दी है. आप यही सवाल नरेन्द्र मोदी से क्यों नहीं पूछते. देश के सबसे ज्यादा ड्रग माफिया और तस्कर आपको पोरबंदर में मिल जाएंगे. आप वहां नहीं जा रहे हैं क्या? मैं गुटखा और तम्बाकू तथा सिगरेट के प्रति नतमस्तक होकर लौट आता हूं.
गुजरात में अमीरों और गरीबों के बीच बहुत चौड़ी खाई है. पान ठेलों, आटो रिक्शा चालकों, खोमचे वालों, छोटे दूकानदारों और बुद्घिजीवियों तथा सेवानिवृत्त लोगों में भी गुजरात मॉडल के विकास को लेकर तरह तरह के संदेह हैं. एक अधेड़ ऑटो रिक्शा वाले ने खुलकर कहा कि वह कांग्रेस को वोट देगा क्योंकि चाहे कुछ भी हो इस पार्टी की अपनी एक अलग तरह की राजनीतिक समझ है. इस आटो रिक्शा वाले ने वर्षों पहले मध्यप्रदेश के चुनावों में अजरुन सिंह की मदद की थी. एक युवा आटो रिक्शा चालक अरविन्द केजरीवाल का समर्थक निकला.
उसने कहा यदि नरेन्द्र मोदी में हिम्मत है तो वे केजरीवाल के सवालों का जवाब दें. कांकरिया झील के एक चाट वाले ने बताया कि 2002 के दंगों के बाद उसने अपना पूरा परिवार उत्तरप्रदेश के पैतृक गांव में भेज दिया है. क्योंकि अहमदाबाद में तनाव जलते कोयले की राख की तरह ठंडा दिखाई तो देता है लेकिन फूंक मारने पर कभी भी जला सकता है. एक बुजुर्ग ने झल्लाते हुए बताया कि गुजरात में भी बिहार स्टाइल का चुनाव होता है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वाले बुजुर्गों से कह देते हैं कि आपको वोट डालने की जरूरत नहीं है. हम ही आपका काम कर देंगे. भुज में तमाम मुसलमान भाइयों को गुजरात के दंगों को लेकर गहरी वितृष्णा है. उन्होंने कहा कि वे कुचले हुए लोग हैं जिन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ वोट देना पड़ता है. उन्होंने सीधा सवाल पूछा आतंक, हत्या, लूटपाट और बलात्कार से कौन नहीं डरता. एक ने यहां तक कह दिया कि मौजूदा पीढ़ी तो कायर है. शायद हमारे बच्चे सांप्रदायिक सरकार को बदल दें. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार लम्बे समय से देश की राजनीति में हिन्दुत्व को स्थापित करने के लिए विकास के मॉडल के मुखौटे को तराशने में लगे रहे हैं. उन्हें मोदी के चेहरे के मार्फत अब सफलता मिलने की उम्मीद हो चली है.
(लेखक गांधीवादी विचारक हैं)