पटना :भोजपुरी सिनेमा के स्वर्ण जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित ‘भोजपुरी फिल्म महोत्सव’ न केवल एक सिनेमाई सांस्कृतिक महोत्सव है बल्कि सिनेमा समाज से सरोकार रखने वालों में बौद्धिक उर्जा का संचार संप्रेषित करने का विनम्र प्रयत्न भी है. हमें यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि समृद्ध सांस्कृतिक प्रदेश से संबंध रखने के
अगर आज देखें तो आप दंग रह जायेंगे उस समय के चोटी के गीतकार, संगीतकार, कलाकार भोजपुरी फिल्मों में काम करने से परहेज नहीं करते थे, लेकिन आज वह सहजता नहीं दिखती. वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अलोक रंजन की बात याद आती है कि आज का भोजपुरी सिनेमा चोली चुम्मा और गमछा से आगे नहीं बढ़ पा रहा है. जबकि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों ने अपने विषय, तकनीक, पटकथा में आश्चर्जनक विकास किया है.
भोजपुरी सिनेमा के अर्धशती सफर के आरंभिक दौर को छोड़ दें तो हमारे पास बहुत कुछ नया कहने को नहीं है तो सवाल खड़ा होता है कि क्या भोजपुरी सिनेमा में वह ऊंचाई पाने की संभावना ही नहीं है. भोजपुरी में सालाना 100 फिल्में बन रही हैं, पर सभी एक ही श्रेणी और एक ही तकनीक में बंधी हैं. इसका खामियाजा उन्हें यह भुगतना पड़ता है कि ज्यादातर फिल्मों को अपेक्षित दर्शक नहीं मिल पाते. सिनेमा घरों का आभाव, सरकार की उदासीनता, एक ही तिथि पर कई फिल्मों का रिलीज होना, एक जैसी पटकथा, तकनीक की तंगहाली जैसी समस्याओं से भोजपुरी सिनेमा जूझ रहा है. नए दौर में भोजपुरी में वन टाइम प्रोडूसर्स की संख्या सबसे अधिक है.
अधिकांश निर्माता सिनेमा की समझ रखने वाले भी नहीं होते हैं, नतीजतन उन्हें आर्थिक दंड बुरी तरह भुगतना पड़ता है. सिनेमा एक तकनिकी विधा है. जब हम उस विधा में विविधता भरने की प्रतिभा रखते हों तो हमें प्रतिभा दिखानी चाहिए. बिहारवासियों से आग्रह है कि सिने सोसाइटी की ओर से प्रेमचन्द रंगशाला में आयोजित होने वाले फिल्म महोत्सव (13-19 नबम्बर) में भोजपुरी सिनेमा के सुनहरे सफर का अवलोकन करें.