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hul diwas : ये हैं संताल हूल के चार तीर्थ स्थल, आदिवासियों के लिए इसके क्या है मायने, जानें विस्तार से

कान्हू की जन्मस्थली साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में कदमडांडी कुआं स्थित है. आसपास के ग्रामीणों और परिजनों के अनुसार सिदो, कान्हू, चांद व भैरव व उनके साथ सैकड़ों आदिवासियों जब भी युद्ध या अन्य कोई शुभ कार्य में निकलते थे

वीर शहीद सिदो-

कान्हू की जन्मस्थली साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में कदमडांडी कुआं स्थित है. आसपास के ग्रामीणों और परिजनों के अनुसार सिदो, कान्हू, चांद व भैरव व उनके साथ सैकड़ों आदिवासियों जब भी युद्ध या अन्य कोई शुभ कार्य में निकलते थे, तो कदमडांडी कुआं में स्नान करने के बाद जाहिर स्थान में पूजा करते थे.

मंडल मुर्मू ने बताया, हमारे पूर्वजों ने जब अंग्रेजी हुकूमत और महाजनी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, तो इसमें इस कुआं का बड़ा योगदान रहा. पहले कुछ दिनों पहले यह कुआं भी जर्जर हो गया था. जिला प्रशासन की ओर से इसकी मरम्मत करायी गयी है. आज कुआं का पानी भी काफी शुद्ध है. भोगनाडीह के आसपास के ग्रामीण शुद्ध पेयजल के स्रोत के रूप में इसका उपयोग करते हैं. जब भी विभिन्न प्रदेशों से सिदो-कान्हू को चाहनेवाले भोगनाडीह पहुंचते हैं, तो इस कुआं में स्नान जरूर करते हैं. इसके बाद जाहिर थान में नमन कर पानी ले जाते हैं.

सिदो-कान्हू पार्क

वीर शहीद सिदो-कान्हू की जन्मस्थली साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड अंतर्गत भोगनाडीह गांव संताल विद्रोह की जन्मभूमि है. यहां पर सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो ने मिलकर अंग्रेजी हुकूमत और महाजनी प्रथा के खिलाफ 1855 में आंदोलन शुरू किया था. इसमें उनके साथ हजारों की संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग तीर-धनुष से लैस होकर मैदान में उतरे थे.

उनके गांव भोगनाडीह में जिला प्रशासन की ओर से एक भव्य पार्क का निर्माण कराया गया है. उक्त पार्क में सिदो-कान्हू की प्रतिमा लगायी गयी है. सिदो बड़े भाई थे और कान्हू छोटे. दोनों भाइयों के बलिदान के कारण आज हूल दिवस के अवसर पर भोगनाडीह स्थित सिदो-कान्हू पार्क में हजारों लोग पहुंचते हैं और माल्यार्पण करते हैं. भोगनाडीह पार्क में चांद, भैरव, फूलो, झानो की भी प्रतिमा लगायी गयी है. यहां पर पार्क में लोगों के बैठने की व्यवस्था की गयी है. चारों तरफ लाईट लगायी गयी है. पार्क में रंग-बिरंगे फूल भी लगाये गये हैं.

वट वृक्ष के नीचे अंग्रेजो ने धोखे से पकड़ कान्हू को दी थी फांसी

बरहेट प्रखंड क्षेत्र के पंचकठिया के समीप वटवृक्ष जहां पर कान्हू को अंग्रेजी हुकूमत ने धोखे से पकड़कर फांसी की सजा दी थी, इसके बाद से यह संथाल आदिवासियों के लिए तीर्थ स्थल बन गया है. प्रत्येक साल सिदो कान्हू की याद में 30 जून को काफी संख्या में लोग जुटते हैं और पूजा अर्चना करने के बाद वट वृक्ष को नमन करते हैं.

जानकार बताते हैं कि सिदो-कान्हू की जब 16 जुलाई 1855 को पीरपैंती के निकट प्यालापुर में मेजर एफ डब्ल्यू बरोस के नेतृत्व में सैनिकों की भिड़ंत हुई, तो दोनों अपनी संथाल सेना के साथ आगे बढ़ते रहे. उस वक्त अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा. विदेशी अधिकारियों के साथ कुल 25 सिपाही भी मारे गये थे. यह पहला मौका था, जब भारी संख्या में सिपाहियों की मौत हुई थी. इसके बाद भागलपुर के तत्कालीन कमिश्नर ने भागलपुर व वीरभूम क्षेत्र में सैन्य कार्रवाई और तेज कर दी. सैनिक कम पड़ने लगे तो बिहार के दानापुर से अतिरिक्त फौज बुलायी गयी थी.

जन्मस्थली

वीर शहीद सिदो-कान्हू का जन्म भोगनाडीह गांव में एक छोटे से खपरैल के घर में हुआ था. भोगनाडीह की धरती में चुन्नू मुर्मू व सलोमा मुर्मू के घर 1820 ई में सिदो मुर्मू और 1832 को कान्हू मुर्मू का जन्म हुआ था. बड़े होकर घर से ही सिदो-कान्हू ने अंग्रेजी हुकूमत और महाजनी प्रथा के खिलाफ हूल का बिगुल का फूंका था. उक्त खपरैल मकान में ही करीब 100 वर्षों तक उनके परिजन गुजारा करते रहे. वर्ष 2016 में 17 परिवारों के लिये अलग-अलग पक्के के मकान बनाये गये, जहां उनके वंशज निवास करते हैं.

आवास में बिजली, पानी की भी व्यवस्था सरकार द्वारा की गयी है. वर्तमान में आवास की स्थिति ठीक-ठाक है. जिस खपरैल मकान में सिदो-कान्हू का जन्म हुआ था, वह मकान आज भी खड़ा है. वंशज परिवार के मंडल मुर्मू बताते हैं कि समय-समय पर उक्त घर की मरम्मती करवाते रहते हैं, इस कारण वह घर आज भी खड़ा है. सिदो-कान्हू के द्वारा युद्ध में उपयोग किये जाने वाले तीर-धनुष व भाला आज भी मौजूद है, उसे हमलोग सहेज कर रखे हुये हैं. जब भी कोई विशिष्ट अतिथि आते हैं तो हमारे पुराने घर का दर्शन करते हैं. घर की साफ-सफाई हमलोग नियमित एक मंदिर की तरह करते हैं.

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