आज से साठ साल पहले मथुरा में मेरा जन्म हुआ. सुबह के तकरीबन चार-साढ़े चार बजे होंगे जब घर पर ही मेरा जन्म हुआ. उस समय मेरी मां 14 साल की रही होगी. मैं जब पैदा हुआ तो उस समय मां स्वस्थ और निरोग थीं, वह देखने में बहुत सुंदर थीं, चूंकि उसका परिवार शिक्षित था, इसलिए उसमें शिक्षितों के तमाम संस्कार और गुण भी थे.
वह स्वयं अशिक्षित और गूंगी-बहरी थीं, लेकिन मेरे जन्म के बाद उनके मन में खुशी की कोई कमी नहीं थी और वह अपने को हमेशा बेहद समर्थ समझती थीं. मुझे बनाने में मेरी मां की केंद्रीय भूमिका रही है. मेरे अंदर मां जैसी सहानुभूति, संवेदना, आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान हैं. मैंने अपने पिता से लिखना और बोलना जरूर सीखा, लेकिन बाकी सब चीजें मां की हैं. मां ने ही क्लास छह से मुझे सुबह चार बजे उठ कर पढ़ने की आदत डाली, जो आजतक बरकरार है. मैं सुबह उठकर कुछ करूं या न करूं, लेकिन पढाई जरूर करूं, यह संस्कार मां के कारण ही बना. इसने मेरी हर क्षण बड़ी मदद की, मेरे लिए जन्मदिन का मतलब मां का दिन.
1957 के मथुरा और आज के मथुरा, उस जमाने के मेरे घर और आज के घर में जमीन-आसमान का अंतर है. उस जमाने के लोगों और आज के लोगों में बहुत बड़ा अंतर है. यह अंतर संस्कृति, सभ्यता, शिष्टाचार के साथ-साथ परिवेश के अंतर से भी जुड़ा है. हमलोगों का परिवार परंपरागत पैतृक यजमानी वृत्ति के जरिये जीवन-यापन करता रहा. यजमानी वृत्ति से इतनी आय जरूर थी कि परिवार का गुजर-बसर सालभर ठीक-ठाक से हो जाता था. लेकिन परिवार को किसी भी तरह समृद्ध नहीं कह सकते थे, खाने-पीने का अभाव नहीं था, लेकिन मुद्रा का हमेशा अभाव रहता था. परिवार में मेरे पिता पहले शिक्षित व्यक्ति थे, बाकी सब अनपढ़ थे. मेरे पिता भी किस तरह पढ़े-लिखे, वह असामान्य-सी बात है.
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मां के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं मां के दुख. मैंने अपनी आंखों से उन दुखों को देखा है, दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है. वे मेरे जीवन के सबसे मूल्यवान क्षण हैं, दुखों में जितना सीखा, उतना सुख में नहीं सीख पाया. रिश्तेदार-सगे-संबंधी-मित्र आदि की पहचान दुख में ही हुई. दुख में किसी को पास नहीं पाया. यह बात आज से पचास साल पहले जितनी सच थी, उतनी ही आज भी सच है.
मैं जब पैदा हुआ तो मां की उम्र 13-14 साल रही होगी. सुंदर पुत्र संतान को जन्म देकर वह खुश थीं, लेकिन भविष्य को लेकर चिंतित और सतर्क. उसके लिए मातृत्व आनंद की चीज थी. उनके लिए मातृत्व स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति जैसा था.
उसके लिए यह विलक्षण स्थिति थी, एक तरफ मातृत्व का अहं और आनंद, दूसरी ओर अहंकाररहित गौरवानुभूति. मातृत्व को वह सृजन के रूप में देखती थीं. दाई की मदद से मेरा जन्म घर में ही हुआ. इस प्रसंग में मुझे हेगेल के शब्द याद आते हैं, हेगेल ने लिखा है- ”संतान का जन्म माता-पिता की मृत्यु भी है. बालक अपने स्रोत से पृथक होकर ही अस्त्विमान होता है.
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उसके पृथकत्व में मां मृत्यु की छाया देखती है.” संभवतः यही वजह रही होगी कि मेरी मां ने मुझे अपने से कभी दूर नहीं रखा. वह जितनी बेहतर चीजें जानती थीं, उनकी कल्पना में रहती थीं, उसे अनेक किस्म के हुनर आते थे, जिनको लेकर वह व्यस्त रहती थीं. वह कभी उदासीनता या अवसाद में नहीं रहती थीं, हमेशा कोई-न-कोई काम अपने लिए खोज लेती थीं. उनकी इसी व्यस्तता ने उसे आत्मनिर्भर और स्वतंत्रता प्रिय बना दिया था.
अमूमन बच्चा मां पर आश्रित होता है, लेकिन मेरे मामले में थोड़ा उलटा था. चीजों को जानने के मामले में मां मुझ पर आश्रित थीं. मैं उन्हें जब तक नहीं बताता, वह जान नहीं पाती थीं और तुरंत जानना उसकी विशेषता थी, तुरंत जानना और तुरंत जवाब देना. याद नहीं है उसने मुझे कभी पीटा हो, वह नाराज होती थीं, लेकिन पिटाई नहीं करती थीं, जबकि पिता के हाथों दसियों बार पिटा हूं. उसे समाज को लेकर गुस्सा नहीं था, लेकिन असहमतियां थीं, जिनको वह बार-बार व्यक्त करती थीं. वह पिता के आचरण से बहुत नाराज रहती थीं, उसे असंतोष था कि पिता उनकी बात नहीं मानते, बल्कि अपनी मां की बातें मानते हैं.
उनका स्वभाव शासन करने का नहीं था, बल्कि वह शिरकत करने में विश्वास करती थीं, कोई उसके ऊपर शासन करे, यह वह कभी मानने को तैयार नहीं होती थीं. शिरकतवाले स्वभाव के कारण वह अपनी मां (मेरी नानी) की प्रतिदिन घरेलू कामों में समय निकाल कर मदद करने उनके घर जाती थीं. उसको जब मन होता था घर से निकल पड़ती थीं, उन्हें बंदिशें एकदम पसंद नहीं थीं, पिता और दादी उसके इस स्वभाव को जानते थे और उसे आने-जाने में कभी बाधा नहीं देते थे. वह शिरकतवाले स्वभाव के कारण घर के हर काम में दादी की मदद करती थीं, वह नियमित हर सप्ताह सिनेमा देखती थीं, पिता उसे सिनेमा दिखाने ले जाते थे, जबकि ताईजी की स्थिति एकदम विपरीत थी.
वे कभी घर के काम में शिरकत नहीं करती थीं. उनकी शिरकतवाली भावना का सबसे आनंददायी रूप वह होता था जब मैं छत पर पतंग उड़ाता था और वह छत पर आकर बैठी रहतीं और सिलाई करते हुए देखती रहतीं. उसे हमेशा मेरी चिंता रहती कि कहीं बंदर मुझे काट न लें. वह बंदरों से बचाने के लिए छत पर डंडा लिये बैठी रहतीं. गर्मियों में आलू के पापड़ आदि बनाने में मैं उनकी मदद करता, घंटों छत पर बैठा रहता, जिससे पापड़ आदि की बंदरों से रक्षा कर सकूं. कहने के लिए घर में और भी बच्चे थे, लेकिन उनकी विशेष कृपा मेरे ऊपर थी. वह छत पर काम करेंगी और मैं बंदरों पर नजर रखूंगा. सब जानते हैं मथुरा में बंदरों की संख्या बहुत है और वे बहुत परेशान करते हैं, नुकसान पहुंचाते हैं, काट लेते हैं.