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मानव जीवन अनमोल है इसे बचाने को चाहिए त्वरित समाधान

जल का एक बूंद नहीं, हर बूंद जीवन है. जल का पर्याप्त भंडार होने के बाद भी बड़ी आबादी प्रदूषित जल पीने को विवश है. जल से जीवन मिलता है लेकिन यहां दूसरी कहानी है. पानी तो है लेकिन जीवन बचाने के लिए नहीं. इस पानी से जीवन मौत में बदल रहा है. यह व्यर्थ […]

जल का एक बूंद नहीं, हर बूंद जीवन है. जल का पर्याप्त भंडार होने के बाद भी बड़ी आबादी प्रदूषित जल पीने को विवश है. जल से जीवन मिलता है लेकिन यहां दूसरी कहानी है. पानी तो है लेकिन जीवन बचाने के लिए नहीं. इस पानी से जीवन मौत में बदल रहा है. यह व्यर्थ का जल है. शुद्ध पेयजल के लिए लोग प्यासे हैं. इसके सेवन से शरीर रोगों का घर हो रहा है. इन क्षेत्रों में जन्म लेने के साथ जिंदगी मौत से लड़ाई लड़ने लगती है.

विभाग कहता है हमने हर स्तर पर स्वच्छ वातावरण की कोशिश की है. लेकिन सवाल ऐसे है कि खुद से ही जवाब खोजते रहते हैं. शौचालय को लेकर तस्वीर दूसरी है. कई योजनाएं चल रही है. लेकिन यहां भी जागरूकता का अभाव देखने को मिल रहा है. लोग अगर जागरूक नहीं है तो सरकार का क्या काम है. वह तो जागरूक कर सकती है. गांव-पंचायत के लोग विशेषकर महिलाएं परेशान हैं. किससे कहे, कैसे कहे? सरकार ने जो कहा उसे मान लिया जाये. नियति बस यही तक है. बेहतर स्वास्थ्य और स्वच्छ वातावरण के लिए सरकारी स्तर पर जितने काम किये गये हैं. उसकी निगरानी करने की जरूरत है.

पेयजल की हालत कैसी है?
देश की आजादी मिलने के बाद हम लोग पेयजल को लेकर जागरूक हुए. इसमें कोई संदेह नहीं कि पानी पीने के बाद लोगों को कई तरह की बीमारी हो जाती थी. लोग पेट से जुड़ी दिक्कत को सबसे ज्यादा ङोलते थे. सरकार ने यूनिसेफ की मदद से पानी में सुधार करने का कदम उठाया. पेयजल को लेकर पहल हुई. लोगों को जब साफ पानी मिला तो लोगों में जागरूकता आई. इससे बीमारी में तो कमी आई लेकिन हमारे भूमिगत जल पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा. लगातार पानी निकालने से भूमि में संचित जल पर असर पड़ा. बिहार में इस प्रकार के अनियंत्रित पानी के निकासी के कारण पानी में आर्सेनिक, फ्लोराईड और लौह तत्वों की मात्र बढ़ गयी. इन अशुद्धियों ने इस कदर अपना असर डाला कि आज हमारे गांव पंचायत के निवासी इस अशुद्ध पानी का सेवन करने के लिए विवश है. उनके पास कोई चारा नहीं है. अभी तो जल को लेकर इतनी भयावह हालात है कि भू-गर्भीय जल की बात से अलग अगर हम नदियों के पानी की बात करें तो इनकी हालत तो इतनी खराब है कि इनके पानी को छूने से ही डर लगता है. बिहार की भौगोलिक स्थिति को देखा जाये तो यह एक वरदान है. हमारे पास अथाह जल स्त्रोत है तो दूसरी तरफ दुनिया का सबसे ज्यादा उपजाऊ मैदान है. जल निकासी के कारण राज्य की अधिकांश जनता भूमिगत जल पर निर्भर है. बिहार में नदियों के द्वारा बनाये गये मैदान हैं, लेकिन इसी में यह तथ्य भी छुपा हुआ है कि उत्तरी बिहार में नदियों के बनाये मैदान अवसाद में आर्सेनिक की मात्र है. यह मात्र काफी गंभीर हालत में है. इसके सेवन से मानव शरीर पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पानी में आर्सेनिक की मात्र प्रति लीटर 10 पीपीबी होना चाहिए. जबकि हमने जब शोध किया तो भोजपुर जिले में 1861 पीपीबी और भागलपुर में 600 पीपीबी आर्सेनिक की मात्र मिली. यह मात्र बहुत खतरनाक है.

गांव-पंचायत में इसकी तस्वीर कैसी है?
गांव-पंचायत में तो हालत बहुत बदतर है. राज्य में अपार भूमिगत जल है. 30 से 80 फीट की गहराई में आर्सेनिक की मात्र पायी गयी है. जबकि 80 से 100 फीट या यह कहिये कि गहरी खुदाई पर आर्सेनिक नहीं मिला है. सूबे के जितने जिले में उनमें उत्तर बिहार के ही कुछ जिले हैं जहां इस प्रकार की कोई शिकायत नहीं मिली है. प्रभावित जिलों में नलकूप, पंप, चापाकल है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि कहीं-कहीं पर तो नलकूप और पंप में भी आर्सेनिक की मात्र मिली है. इसका मतलब है कि इनका कारण भू-गर्भीय कारक है. उत्तर बिहार जहां आर्सेनिक की मार को ङोल रहा है वहीं दक्षिण बिहार में फ्लोराईड ने जीवन को तबाह किया हुआ है. कोशी के इलाके में पानी में लौह तत्व की मात्र है. मतलब हर स्तर पर पानी में कोई न कोई अशुद्धि है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पानी में प्रति लीटर 1.5 मिलीग्राम फ्लोराईड की मात्र होनी चाहिए. इसकी भी तस्वीर एकदम अलग है. नवादा जिले के कचरियाडीह गांव में हमने जब शोध किया तब पानी में फ्लोराईड की मात्र प्रति लीटर 2 मिलीग्राम मिला. यह सोच से परे है. हम जैसे जैसे शोध कर रहे हैं आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या बढ़ती जा रही है. गांव पंचायत में इनसे लोगों का जीवन प्रभावित तो हो ही रहा है. अब पानी में व्याप्त इन अशुद्धियों ने फसलों में भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है. इसका कारण है कि जिस भूमिगत स्तर से हम पेयजल निकाल रहे हैं उसी स्तर से सिंचाई के लिए बोरवेल का उपयोग कर रहे हैं. कुओं की बात करें तो कम गहराई वाले कुएं में आर्सेनिक की मात्र कई जगहों पर ज्यादा पायी गयी है. एक प्रोजेक्ट पर जब हमने शोध किया कि आर्सेनिक युक्त पानी से सिंचाई करने पर फसलों के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है तो बहुत ही आश्र्चयजनक तस्वीर हमारे सामने आयी. जिस क्षेत्र में आर्सेनिक युक्त पानी मिला उस क्षेत्र के चावल, मक्का जैसे फसलों में इसकी मात्र मिली. यहां तक की मिट्टी में इसकी मात्र मिली. यह बहुत ही ज्यादा भयावह सच्चई है. कहलगांव, पीरपैंती में तो गóो और उसके जूस में आर्सेनिक की मात्र मिली है.

गांव की आबादी इससे कैसे प्रभावित हो रही है?
गांव की आबादी नहीं पूरी जेनरेशन प्रभावित हो रही है. आर्सेनिक के प्रयोग से आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी हो रही है लोगों में. इन क्षेत्रों के 80 प्रतिशत बच्चों में इस बीमारी के लक्षण मिले. सबसे ज्यादा प्रभावित तो महिला हैं. इसे जागरूकता का अभाव कहिए या कुछ और. ये महिलाएं बीमारी से ग्रसित होने के बाद लोक लाज के भय से कुछ कह नहीं पा रही. इन सब पर बिना समय गंवाये ध्यान देने की जरूरत है.

सरकार कहती है कि हम लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं. जबकि शोध अलग कहानी बता रहा है. क्या कहेंगी आप?
सरकार के पास तो सब बातों का जवाब मिलेगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो विकास हो रहा है क्या वह धारणीय है? क्या सरकार इस बात को बता सकती है? जो लोग या सरकार इस काम में लगे हुए है क्या वह ये बता सकते हैं कि ऐसी बीमारी जब बड़े पैमाने पर फैलेगी तो क्या हालत होगी? सरकार के पास तो किसी भी चीज की कमी नहीं है तो फिर काम क्यों नहीं हो रहा है? विशेषज्ञों को बैठा कर निर्णय लेने की जरूरत है. शहर की बात को हटा दें, गांव की बात करें गांव के लोग तो भोले है. उनके बीच जानकारी का अभाव है. उन्हे आर्सेनिक, फ्लोराईड और आयरन के बारे में कोई जानकारी नहीं है. सरकार को तो जानकारी है. वह तो पहल कर सकती है. सरकार कहती है कि हमने वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया है तो यह जानने की कभी कोशिश हुई है कि वह ट्रीटमेंट प्लांट काम कर भी रहा है या नहीं? अगर वह काम नहीं कर रहा है तो फिर ऐसे ट्रीटमेंट प्लांट की क्या जरूरत है?

जल को लेकर सरकार का दावा अलग है और कहानी कुछ और है तो आखिर शून्यता कहां है?
तालमेल की शून्यता है. सरकार और समूह के लोगों के बीच तालमेल की कमी है. इसे सरकार को पूरा करना होगा. साथ ही पेयजल, कृषि, ऊर्जा, सेहत सबके बीच तालमेल की कमी है. लोगों के लिए जब सुविधाएं हैं तो उसकी देखभाल और रखरखाव की कमी है. एक तारतम्यता बनाने की जरूरत है. सरकार के अधिकारी उन लोगों के बीच में जाएं, उनकी दिक्कत को समङो, उसे दूर करने का प्रयास करे. तभी रास्ता निकलेगा. जब तक दिल से जानने की कोशिश नहीं करेंगे. परेशानी दूर नहीं होगी. कुछ तो कीजिए . बहुत देर हो रही है. ऐसी हालत में लोगों को मत छोड़िए.

इसका समाधान कैसे निकाला जा सकता है?
सबसे पहले एक निर्णायक वॉटर पॉलिसी बनाने की जरूरत है. जल नीति जब बनायी जाये तो एक समिति बनाकर निर्णय लिया जाये. इस समस्या को ऐसे ही खत्म किया जा सकता है. यहां यह भी देखने वाली बात है कि अब यह मामला केवल पेयजल तक सीमित नहीं है. इन प्रदुषित जल के कारण कृषि में भी इसका असर हो रहा है तो इसमें उसका भी ख्याल रखा जाये. ऊर्जा के बिना कोई भी ट्रीटमेंट प्लांट काम नहीं करता तो ऊर्जा विभाग भी इस मसले पर ध्यान दे. सेहत बिगड़ रही है तो इसके लिए स्वास्थ्य विभाग साथ दे. कहने का मतलब है कि वॉटर पॉलिसी में सारे संबंधित विभाग के अधिकारियों को शामिल कर के इस मसले पर ध्यान देने की जरूरत है.

गांव-पंचायत में शौचालय की क्या हालत है?
शौचालय की हालत बहुत बुरी है. गांव में इस मामले से जुड़े कई कदम को उठाया गया है. हर साल कई निर्णय लिये जाते है. लेकिन आज भी गांव की एक बड़ी आबादी खुले में शौच करती है. महिलाओं की हालत विशेष रूप से ज्यादा सोचनीय है. केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने इसके लिए समय समय पर कई कदम उठाये है. निर्मल भारत अभियान का मुख्य केंद्र ही है ग्रामीण स्वच्छता.

इसके अंतर्गत सभी घरों , विद्यालयों, आंगनबाड़ी केंद्रों और जरूरत के मुताबिक सामुदायिक शौचालयों का निर्माण किया जाना है. यह पूरी तरह से सामुदायिक सहभागिता पर आधारित है. कई स्तरों पर राशि का भी प्रावधान है. जिसकी सहायता से शौचालय का निर्माण कराये जाने का प्रावधान है. राज्य सरकार ने इसके लिए कई बार राजनीतिक कदम भी उठाये है. मुख्यमंत्री ने भी कहा था कि जिस घर में शौचालय नहीं होगा उस घर से कोई भी पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकेगा. गांव में आज भी इसे लेकर जागरूकता का अभाव है. राज्य सरकार की ऐसी ही एक और योजना है लोहिया स्वच्छता योजना. इसका भी ध्येय यही है कि ग्रामीण स्वच्छता पर ध्यान दिया जाये. गांव में एक बात विशेष रूप से देखने को मिली कि वहां के लोग लंबे समय से खुले में शौच करते है. शौचालय बन गया तो उसमें बकरी बांधने से भी गुरेज नहीं करते. यह उनके बीच जागरूकता की कमी को दिखाता है. सरकार केवल आंकड़ों को पूरा करने के लिए शौचालय न बनवाये बल्कि लोगों को इसकी जरूरत को समझाये.

इसमें कैसे सुधार लाया जा सकता है?
इस मामले में भी जागरूकता लाने की नितांत जरूरत है. सबसे बड़ी बात यह कि महिलाओं की आदत को समझना होगा. खुले में शौच करने से क्या हानि है? लोगों को यह बताना होगा. शौचालय सख्त जरूरत है इस बात को सरकार लोगों को समझाये, उन्हे प्रेरित करे. संपूर्ण स्वच्छता अभियान तभी सफल होगा. अन्यथा कोई फायदा नहीं है. सबसे बड़ी बता यह कि लोगों को समझ कर उनके हिसाब से काम करने की जरूरत है. जागरूकता आयेगी तो इस कमी को दूर किया जा सकता है.

नुपूर बोस

एसोसिएट प्रोफेसर

एएन कॉलेज, पटना

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