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नालंदा से तिब्बत तक बौद्ध धर्म की यात्रा

बौद्ध धर्म-दर्शन के विविध स्वरूपों को जानने-समझने की ललक पहले से ही रही है. लुंबिनी से ल्हासा और लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक बहुत से ऐतिहासिक तथ्य अब भी मौजूद हैं, जो हमें इसकी प्राचीन और समृद्ध धर्म-दर्शन-संस्कृति से रूबरू कराते हैं. हाल ही में बिनॉय बहल की फिल्म ‘इंडियन रूट्स ऑफ तिब्बतन बुद्धिज्म’ भारत […]

बौद्ध धर्म-दर्शन के विविध स्वरूपों को जानने-समझने की ललक पहले से ही रही है. लुंबिनी से ल्हासा और लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक बहुत से ऐतिहासिक तथ्य अब भी मौजूद हैं, जो हमें इसकी प्राचीन और समृद्ध धर्म-दर्शन-संस्कृति से रूबरू कराते हैं. हाल ही में बिनॉय बहल की फिल्म ‘इंडियन रूट्स ऑफ तिब्बतन बुद्धिज्म’ भारत के नालंदा से दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत तक बौद्ध धर्म की यात्रा का विेषण कर इतिहास के एक महत्वपूर्ण और प्राचीन अध्यायों को हमारे सामने लेकर आयी है. बौद्ध धर्म-दर्शन-संस्कृति आदि के इतिहास को इस फिल्म में किस तरह से दरसाया गया है, इसे बताने की एक कोशिश आज के नॉलेज में

विरासत का डॉक्यूमेंटेशन

यह फिल्म एक ऐसी अनोखी परंपरा का कुशल दस्तावेज है, जो हमेशा से मानवता के कल्याण की उम्मीद कर रहा है. फिल्म में अनेक दिलचस्प जानकारियां और विशेषज्ञों की टिप्पणियां हैं. इस फिल्म को कुछ इस तरह से बनाया गया है कि दर्शकों को इतिहास की असाधारण यात्रा पर जाने की अनुभूति होती है.

इस फिल्म में यह बताया गया है कि तिब्बत के लोगों को बौद्ध धर्म के दर्शन और अवधारणाओं के बारे में बताने के लिए ग्रंथों के अनुवाद की जरूरत थी, लेकिन सातवीं सदी तक वहां कोई लिपि नहीं थी. तिब्बत के विद्वानों ने अपनी भाषा को कुछ इस तरह से विकसित किया कि विषय की निरंतरता और उसकी मूल भावना बनी रहे. साथ ही, उसका मौलिक अर्थ भी कायम रहे. चूंकि लिखित शास्त्रीय तिब्बती भाषा की लिपि प्राचीन भारतीय लिपि पर आधारित है, इसलिए इसका लहजा संस्कृत के बहुत नजदीक है.

फिल्म के एक दृश्य में दलाई लामा बताते हैं कि भारत और तिब्बत के बीच ‘गुरु’ और ‘चेला’ का अनूठा संबंध है. इस दृश्य में दलाई लामा ने बेहद भावुक होकर भारत से अपने संबंधों को दर्शाया है.

भारतीय इतिहास में एक ऐसा दौर आया जब पूरा देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था. उस समय तिब्बत ने सदियों तक भारतीय ज्ञान को बचा कर रखा. दिल्ली स्थित तिब्बत हाउस के निदेशक गेशे दोरजी का कहना है कि यह ज्ञान विशुद्ध ज्ञान है और इसका किसी मत या धर्म से संबंध नहीं है और इस विरासत को बचा कर रखने की जरूरत है.

फिल्मकार बिनॉय बहल इस विरासत का वृत्तांत खंगालते हुए तिब्बत और बोधगया के बीच यात्रा करते हैं, जिसकी राहें कलमकिया, लद्दाख, लाहौल-स्पीति, अरुणाचल से होकर गुजरती हैं.

प्रकाश कुमार रे

नयी दिल्ली नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय कापरिसर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आये शिक्षकों और छात्रों द्वारा जीवन के शोध का साक्षी रहा है. यहां ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया धर्म या श्रद्धा पर नहीं, बल्कि सत्य के अनवरत अनुसंधान और अविचल तर्क-पद्धति पर आधारित थी. नालंदा के शिक्षकों व छात्रों ने दर्शन, तत्व-मीमांसा, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र, चिकित्सा, खगोल, कला, साहित्य आदि ज्ञान के विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया. इसी विश्वविद्यालय के आचार्य शांतरक्षित को तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना का श्रेय जाता है, जो आठवीं सदी में वहां के तत्कालीन शासक रिशांग देतसेन के निमंत्रण पर तिब्बत गये थे. उन्होंने वहां के लोगों को समझ-बूझ और समुचित विेषण के बाद ही बौद्ध धर्म को अपनाने का सुझाव दिया. कुछ ही समय में यह धर्म तिब्बत का न सिर्फ प्रमुख धर्म बन गया, बल्कि जीवन-शैली का महत्वपूर्ण अंग हो गया और यह आज भी मौजूद है.

बौद्ध गुरुओं का आगमन

आचार्य शांतरक्षित के संरक्षण में प्रसिद्ध ‘सामये मठ’ के निर्माण का कार्य शुरू हुआ, जो तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्राचीनतम केंद्र बना. सम्राट देतसेन ने आचार्य शांतरक्षित के अतिरिक्त महान बौद्ध भिक्षु और दार्शनिक पद्मसंभव, विमलमित्र और अन्य कई ज्ञानियों को भी आमंत्रित किया था. इन संन्यासियों के मार्गदर्शन में बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों ने बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा ली. इतिहासकार बर्जिन ने इस संबंध में बेहद दिलचस्प तरीके से लिखा है कि 761 ईस्वी में आचार्य शांतरक्षित के तिब्बत पहुंचने के बाद चेचक की महामारी फैल गयी. राजदरबार के एक गुट ने इसके लिये यहां आये आचार्य को दोषी माना और उन्हें वहां से निकाल दिया गया. आचार्य ने सम्राट को मौजूदा स्वात (पाकिस्तान) में स्थित ओड़ियाना मठ से तांत्रिक बौद्ध धर्म के आचार्य पद्मसंभव को बुलाने का सुझाव दिया.

द्वितीय बुद्ध की उपाधि

माना जाता है कि पद्मसंभव ने महामारी के लिए जिम्मेवार बुरी आत्माओं को वश में कर लिया. इसके बाद फिर से शांतरक्षित को आमंत्रित किया गया. पद्मसंभव के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तिब्बत में बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी और प्रभावशाली शाखा ‘प्राचीन बौद्ध’ के अनुयायी उन्हें ‘द्वितीय बुद्ध’ मानते हैं और गुरु रिनपोछे (अनमोल गुरु) के नाम से उन्हें जाना जाता है.

प्रसार के उल्लेखनीय चरण

तिब्बती शासक के निर्देश पर सभी बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद को व्यापक तौर पर अंजाम दिया गया, जिसे शांतरक्षित, पद्मसंभव एवं उनके 25 निकटवर्ती शिष्यों समेत 108 अनुवादकों ने पूरा किया. इस अनुवाद ने तिब्बत में धर्म की शिक्षा के प्रचार-प्रसार का आधार तैयार किया. ऐसी मान्यता है कि शांतरक्षित ने सूत्र पाठों और पद्मसंभव ने तंत्र-शिक्षा से संबंधित अनुवाद कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

ल्हासा सभा

इन्हीं दिनों तिब्बत में बौद्ध धर्म के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना घटी. एक तरफ जहां सम्राट देतसेन भारतीय बौद्ध परंपरा से प्रभावित थे और अपनी प्रजा को उससे भली-भांति परिचित कराने की कोशिश कर रहे थे. वहीं दूसरी ओर वे चीनी बौद्ध शाखा के ज्ञान को भी समुचित महत्व देते थे. इसी प्रक्रिया में उनकी देखरेख में 792 से 794 ईस्वी तक दोनों शाखाओं के विद्वानों के बीच सिद्धांतों और दर्शन पर बहसें हुईं.

इस बहस को आमतौर पर ‘ल्हासा सभा’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन असल में यह बैठक राजधानी ल्हासा से दूर सामये के मठ में हुई थी. इसमें चीनी बौद्ध शाखा चान के महान गुरु मो हो येन और शांतरक्षित के शिष्य कमलशील ने हिस्सा लिया था. इस बहस के विवरण के बारे में इतिहास और मिथकों में अलग-अलग बातें कही गयी हैं, लेकिन अधिकांश विद्वानों का मानना है कि इसमें कमलशील की जीत हुई और सम्राट ने भी उन्हीं का पक्ष लिया.

नालंदा से तिब्बत तक की यात्रा

बौद्ध-विशेषज्ञ और कला-इतिहासकार बिनॉय बहल ने अपनी नयी फिल्म ‘इंडियन रूट्स ऑफ तिब्बतन बुद्धिज्म’ में नालंदा से तिब्बत तक की बौद्ध धर्म की यात्रा को दर्शाया है. इसे इस दिशा में शायद पहला प्रयास माना जा रहा है. बहल एक लंबे अरसे से बौद्ध धर्म और उससे संबंधित कला का अध्ययन कर रहे हैं. उन्होंने अपने शोध पर आधारित पुस्तकें, लेख, चित्र-श्रृंखला, फिल्में और प्रदर्शनियां प्रस्तुत की हैं, जिनसे बौद्ध धर्म के विविध स्वरूपों की विस्तृत जानकारी मिलती है. तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के प्रारंभिक दौर के बारे में फिल्म में बताया गया है कि गुरुओं ने पर्वतों की श्रृंखलाओं और बर्फ से भरे विशाल मैदानों को लांघते हुए तिब्बत की यात्रा की. दुनिया की छत कहलाने वाले इस इलाके पर गुरु पद्मसंभव ने तंत्र शक्ति और मुखौटा लगाकर किये जानेवाले चाम नृत्य से नकारात्मक अदृश्य शक्तियों को परास्त किया और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तिब्बत को पवित्र बनाया. सदियों बाद आज भी यह नृत्य तिब्बत से भारत के अरुणाचल प्रदेश तक बौद्ध परंपरा का अभिन्न हिस्सा है.

इंडियन रूट्स ऑफ तिब्बतन बुद्धिज्म

फिल्मकार बिनॉय बहल पिछले कई वर्षो से बौद्ध धर्म और कलाओं का गहन अध्ययन कर रहे हैं. तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के भारतीय सूत्रों का अनुसंधान करती उनकी फिल्म ‘इंडियन रूट्स ऑफ तिब्बतन बुद्धिज्म’ इसी अध्ययन की ताजा कड़ी है. बिनॉय बहल के इस प्रक्रिया और बौद्ध धर्म से गहरे लगाव के बारे में उन्हीं के शब्दों में यहां बताया जा रहा है.

अजंता के चित्र बौद्ध कला के स्नेत

वर्षो पहले अजंता के चित्रों की फोटोग्राफी के दौरान मैं बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुआ. तभी से मैं दुनियाभर में फैले बौद्ध मठों पर काम कर रहा हूं. ईसा पूर्व दूसरी सदी से पांचवीं सदी के बीच रचे गये अजंता के शानदार चित्र संपूर्ण बौद्ध कला के स्नेत हैं. ये चित्र करुणा की भावना से ओतप्रोत हैं. यहां से मेरी यात्रा के आरंभ का कारण यह है कि इन चित्रों ने मेरी भलाई, दया, करुणा आदि मूल्यों में मेरे भरोसे तथा मेरी इस मान्यता- भारतीय कला का उद्देश्य सत्य का अनुसंधान है- को मजबूत किया. अजंता में मुङो इस सत्य की झलक मिली. उसके बाद मैंने तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर और लद्दाख के मठों पर काम किया. लद्दाख पर मेरा काम पिछले 25 सालों से चल रहा है, जिसका एक हिस्सा यह फिल्म भी है. बौद्ध धर्म और मठों पर इस अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि बौद्ध धर्मावलंबी और संत निरंतर भारतीय गुरुओं की चरचा कर रहे हैं. वे अपनी बौद्ध परंपराओं की प्रामाणिकता इस आधार पर सिद्ध करते थे कि उसे किसी महान बौद्ध गुरु ने शुरू किया था.

बौद्ध धर्म नहीं विलक्षण दर्शन

मुझेयह भी जानकारी मिली कि तिब्बती लिपि संस्कृत लिपि के आधार पर गढ़ी गयी है. समूचे एशिया में बौद्ध धर्म के प्रसार में भारत की महत्वपूर्ण और स्पष्ट भूमिका होने के कारण इस फिल्म को बनाने का विचार मेरे मन में बहुत पहले से था. इस प्रक्रिया में मैंने तिब्बत के विशेषज्ञों और दलाई लामा से बातचीत की.

बौद्ध धर्म एक विलक्षण दर्शन है. यह धर्म नहीं है. यह एक दार्शनिक राह है और इसे वैज्ञानिक कहा जा सकता है, क्योंकि यह मन का विज्ञान है. कहा जा सकता है कि भारतीय लोग एक विकसित वैज्ञानिक समझ रखते थे. वे तार्किक थे और उनके पास विचार और अभिव्यक्ति की स्पष्टता थी. प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय इस तथ्य को साबित करते हैं. इनके आधार पर तत्कालीन समाज का अनुमान लगाया जा सकता है, जिसने बौद्ध विचारधारा को जन्म दिया. वह एक आधुनिक समाज था, जहां तपस्या, अनुशासित विचार और गतिशील मति थी. इसकी झलक एशिया के अन्य प्राचीन शहरों में भी देखी जा सकती है. तिब्बत ने विशेष रूप से इस परंपरा को ग्रहण किया.

भारत और तिब्बत के बीच गुरु-शिष्य संबंध

इस फिल्म में दलाई लामा ने भारत और तिब्बत के बीच गुरु तथा शिष्य के संबंध को रेखांकित किया है. यह फिल्म भारत से चलकर तिब्बत, चीन, मंगोलिया, कोरिया, जापान, अफगानिस्तान, उजबेकिस्तान, श्रीलंका, थाइलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया और अन्य जगहों तक विचारों के प्रसार और आदान-प्रदान को दर्शाती है. तिब्बत द्वारा भारतीय बौद्ध धर्म को अपनाया जाना इस प्रक्रिया के सबसे महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है.

तिब्बत में निर्मित सबसे पहला बौद्ध मठ- सामये मठ

तिब्बत की राजधानी ल्हासा से 191 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ‘सामये मठ’ तिब्बत में बना सबसे पहला बौद्ध मठ माना जाता है. सम्राट देतसेन के संरक्षण और नालंदा के आचार्य शांतरक्षित के मार्गदर्शन में पहली बार इसका निर्माण 775 और 779 ईस्वी के बीच किया गया था. माना जाता है कि प्राचीन मठ का नक्शा बिहार के उदंतपुरी में स्थित बौद्ध मठ पर आधारित था. तिब्बती मान्यता के अनुसार, शांतरक्षित बुरी आत्माओं के चलते निर्माण-कार्य नहीं कर पा रहे थे. उस समय गुरु पद्मसंभव ने ‘वज्रकिलय’ नृत्य कर इन शक्तियों पर नियंत्रण कायम किया और मठ बनाने की राह आसान की.

आग और भूकंप से नुकसान

मठ के मूल भवन बहुत पहले ही नष्ट हो गये थे. पहले 11वीं सदी के गृह युद्ध और फिर सत्रहवीं सदी और वर्ष 1826 की आग ने उन इमारतों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया. वर्ष 1816 में आये भूकंप के दौरान इसके ढांचे को काफी नुकसान पहुंचा था. बीसवीं सदी में चीनी कब्जे के बाद सांस्कृतिक क्रांति के दौरान भी मठ की बरबादी का सिलसिला चलता रहा. 1986 में दसवें पंचेन लामा की कोशिशों से मठ का पुनर्निर्माण हुआ और अब यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है, जहां तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की आवाजाही लगी रहती है.

चीनी और भारतीय बौद्ध परंपराओं का गवाह

चीनी और भारतीय बौद्ध परंपराओं के बीच महाबहस का गवाह रहा यह मठ विशाल मंडल के आकार में है. इसका मुख्य मंदिर मिथकीय मेरु पर्वत का प्रतीक है. आसपास के मंदिर तांत्रिक बौद्ध परंपरा के ब्रह्मांड को दर्शाते हैं. पूरा मंदिर परिसर एक मजबूत दीवार से घिरा हुआ है, जिस पर 1008 छोटे-छोटे स्तूप बने हुए हैं. परिसर में प्रवेश के लिए चार मुख्य दरवाजे बने हुए हैं.इसके भवन तिब्बती कला-परंपरा के उत्कृष्ट और अद्भुत भित्ति-चित्रों और मूर्तियों से सुसज्जित हैं. साथ ही, महान गुरुओं द्वारा इस्तेमाल की गयी चीजें भी यहां सहेज कर रखी गयी हैं. आज भी यह मठ उस समय की अनूठी दास्तां को बयां करता है.

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