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बेटियों को सिखाएं खुद से प्यार करना
कुछ अभिभावक पुत्र मोह के कारण या फिर खुद को आधुनिक व शिक्षित दिखाने के चक्कर में अपनी बेटियों का लालन-पालन बेटे की तरह करते हैं. जब तक बच्चे छोटे होते हैं, तब तक तो यह सब अच्छा लगता है, लेकिन बड़े होने पर भी अगर इसका प्रभाव देखने को मिले, तो ऐसे बच्चों के […]
कुछ अभिभावक पुत्र मोह के कारण या फिर खुद को आधुनिक व शिक्षित दिखाने के चक्कर में अपनी बेटियों का लालन-पालन बेटे की तरह करते हैं. जब तक बच्चे छोटे होते हैं, तब तक तो यह सब अच्छा लगता है, लेकिन बड़े होने पर भी अगर इसका प्रभाव देखने को मिले, तो ऐसे बच्चों के सामाजिक व भावनात्मक विकास प्रभावित होते हैं.
आ जकल महिला सशक्तिकरण का जमाना है. हर क्षेत्र में महिलाएं आगे आ रही है़ लोग बेटियों को बेटों के समान ही पाल-पोस रहे हैं. उन्हें अागे आने में मदद कर रहे हैं. लेकिन कई बार यह प्रगतिवादी नजरिया हद से अधिक हो जाने की वजह से अंसतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है़ इससे न केवल बच्चों का व्यक्तित्व प्रभावित होता है, बल्कि उनके भविष्य की संभावनाओं पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है.
प्राकृतिक नैसर्गिकता को बनाये रखें हर इनसान की अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है. उस पर दूसरों की पहचान थोपना या दूसरों से उसकी तुलना करना कहीं से भी सही नहीं है. चाहे लड़का हो या लड़की, दोनों की अपनी एक स्वतंत्र पहचान, अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है. लड़कियों को लड़कों के समान महत्व देना तो सही है, लेकिन समानता के चक्कर में उन्हें पूरी तरह लड़का बना देना उनकी नैसर्गिकता के साथ खिलवाड़ करना है. किसी लड़की का ‘लड़की’ होना कोई गुनाह नहीं है. स्त्री की नारी-सुलभ प्रवृति ही उसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है. उसके महत्व की अनदेखी करना कहीं न कहीं अभिभावकों के द्वारा पुत्र-मोह की आकांक्षा को दर्शाता है.
जो सच है, उसे स्वीकार करें
आप अपनी बेटियों को भले ही बेटों की तरह सजा-संवार लें, लेकिन इस सच की अनदेखी नहीं कर सकते कि वह एक लड़की है. आज नहीं तो कल समाज उसे उसके प्राकृतिक स्वरूप में ही स्वीकार करेगा. फिर क्यों नहीं बचपन से ही बेटियों की परवरिश एक बेटी के रूप में ही करें. उसे उसके स्वाभाविक स्वरूप में ही इतना सबल और सक्षम बनायें कि जरूरत पड़ने पर वह बेटा और बेटी, दोनों के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा सकें.
समानार्थी बनाएं, प्रतिस्पर्धी नहीं
बेटियों को बेटों के समान प्यार जरूर करें, उन्हें एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी न बनाएं. कई अभिभावक बचपन से अपनी बेटियों के मन में यह भावना डाल देते हैं कि वे बेटों से भी बढ़ कर हैं. उनकी हर मांग को यह कहते हुए मान लेते हैं कि ‘हम बेटे और बेटियों के बीच में कोई फर्क नहीं करते’. ऐसा करते हुए कई बार वह बेटों की जायज बातों की भी अनदेखी कर देते हैं. नतीजा बेटियां खुद को बेटों से अधिक समझने लगती हैं. यह प्रवृति भी सही नहीं है. चाहे बेटा हो या बेटी, दोनों की अपनी-अपनी खूबियां हैं. उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना ज्यादा अच्छा है.
सिखाएं अस्तित्व पर गर्व करना
जिन लड़कियों को बचपन से ही लड़कों की तरह पाला-पोसा जाता है, बड़े होने पर सोशल सर्किल में वे मजाक का पात्र बन कर रह जाती हैं. परिवार व समाज के लोग उन्हें उनके बदले स्वरूप में स्वीकार नहीं कर पाते. ऐसे में उन्हें ‘सोशल आइडेंटिटी क्राइसिस’ की समस्या का सामना करना पड़ता है. इससे उनमें हीन भावना विकसित हो जाती है. एक बेटी के रूप में वह खुद को एक बोझ समझने लगती है. आपकी बेटियों के साथ यह स्थिति उत्पन्न न हो, इसके लिए शुरू से ही उन्हें अपने अस्तित्व पर गर्व करना सिखाएं.
‘मम्मी मैं आधे घंटे में अपने फ्रेंड के घर से होकर आता हूं.’ यह कहते हुए ग्रेसी अपनी साइकिल पर बैठ कर निकल गयी. पड़ोस की मिसेज शर्मा उसकी बात सुन कर हंस पड़ीं. दरअसल ग्रेसी को बचपन से ही उसके माता-पिता ने बेटे की तरह पाला था. शुरू से उसका खान-पान, रहन-सहन, बोलचाल सब लड़कों की तरह रहा. अब वह 14 वर्ष की है, पर उसकी आदतें वही हैं. वह खुद को लड़की कहे जाने पर चिढ़ती है. लोग अब ग्रेसी की हंसी उड़ाने लगे हैं, पर वह अपनी आदतों से मजबूर थी. उसके माता-पिता को समझ नहीं आ रहा कि उसकी आदत कैसे सुधारे.
बेटियों को बेटी की तरह ही पालें
प्रकृति ने स्त्री-पुरुष दोनों को एक समान बनाया है. लड़कियों में खुद की स्त्री-सुलभ संपूर्णता होती है. जो माता-पिता यह कह कर अपनी बेटियों की परवरिश करते हैं कि वे उनकी बेटी नहीं, बेटा है, वे कहीं न कहीं अचेतन रूप से अपनी बेटियों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते. बेटे की कमी को पूरा करने के लिए वे बेटियों को उस रूप में पालते हैं. ऐसी बेटियों पर जब बड़े होने पर लड़की के तरह व्यवहार करने का दबाव डाला जाता है, तो अकसर वे अपनी पहचान को लेकर भ्रमित हो जाती हैं. खुद को लड़कों से कमजोर समझने लगती हैं. उनमें हीन भावना जाग्रत होने लगती है. इन सबके कारण उनका व्यक्तित्व कुप्रभावित होता है. बेटी को बेटी बना कर ही पालें. उनमें यह भावना विकसित करें कि बेटी होकर भी वे बेटों से किसी मामले में कम नहीं हैं.
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