दक्षा वैदकर
बीते दिनों मैं अपनी एक रिश्तेदार के यहां जमशेदपुर गयी. पहली बार उनसे मिलने जाना हुआ था, इसलिए उन्हें ठीक से जानती भी नहीं थी. उनके घर में पहला दिन गुजर गया.
सुबह से रात तक हम बातें करते रहे. खाना खाने के बाद बातों-बातों में मैंने पूछा कि आपके यहां टीवी चलते नहीं देखा. आप लोगों को टीवी देखना पसंद नहीं क्या? उन्होंने जवाब दिया, हम लोग तो रोज टीवी देखते हैं. अभी आप आये हो, तो आपसे बातचीत करनी है, इसलिए टीवी बंद कर रखा है. सीरियल्स का क्या है, वो तो चलते रहते हैं. आप रोज-रोज थोड़े ही घर आते हैं. मुझे उनकी यह बात बहुत अच्छी लगी. सीख लेने जैसी लगी.
दरअसल आजकल की इस गैजेट्स की दुनिया में किसी के पास किसी से बात करने का समय ही कहां होता है? हर कोई अपने मोबाइल में लगा रहता है. कभी गेम खेलता रहता है, तो कभी व्हॉट्सएप्प पर पुराने जोक्स पढ़ता है. कभी फेसबुक देखता है, तो कभी अपने खींचे हुए फोटो देख टाइम पास करता है. फिर भले ही उनके आसपास कोई बैठा हो, आपसे बात करना चाहता हो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.
खैर, यह जानने के बाद मेरा ध्यान गया कि सच में परिवार के सभी सदस्यों ने खुद को गैजेट्स के चंगुल से काफी दूर रखा है. पिता और उनका सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा बहुत बातें कर रहे हैं. पिता उसे बचपन केकिस्से सुना रहे हैं. वह माता-पिता दोनों को स्कूल और ड्रॉइंग क्लास की बातें बता रहा है. ऐसा नहीं है कि उनके यहां ये गैजेट्स नहीं थे. मोबाइल, टैबलेट, वीडियोगेम, टीवी हर चीज वहां मौजूद थी, लेकिन उन्होंने यह तय कर रखा था कि जब हम एकदम अकेले हों, तभी इन चीजों से टाइमपास करना है. इस नियम ने उनके घर के सारे सदस्यों को कितना करीब ला दिया था!
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