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नागपंचमी देती है सहजीवन का संदेश
बल्देव भाई शर्मा श्रीमद् भागवत पुराण में पांडवों के वंशज जन्मेजय के सर्पयज्ञ की कथा है जिसमें जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित की तक्षक नाग के काटने से हुई मृत्यु का बदला लेने के लिए क्रोध में सर्प यज्ञ का आयोजन किया ताकि उसमें आहूति देकर सर्प जाति का समूल नष्ट कर सके. दरअसल राजा […]
बल्देव भाई शर्मा
श्रीमद् भागवत पुराण में पांडवों के वंशज जन्मेजय के सर्पयज्ञ की कथा है जिसमें जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित की तक्षक नाग के काटने से हुई मृत्यु का बदला लेने के लिए क्रोध में सर्प यज्ञ का आयोजन किया ताकि उसमें आहूति देकर सर्प जाति का समूल नष्ट कर सके.
दरअसल राजा परीक्षित ने तपस्यारत एक ऋषि के गले में एक मृत सर्प डाल दिया. यह देख कर ऋषि के शिष्य श्रृंगी ऋषि ने नाराज होकर परीक्षित को शाप दे दिया कि सर्प के काटने से ही तेरी मृत्यु शीघ्र हो जायेगी. श्रृंगी ऋषि का शाप सत्य होने पर परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने क्रोधित होकर सर्पों के विनाश की प्रतिज्ञा कर ली. इस प्रतिज्ञा से घबराये नागों ने ब्रह्मा जी से रक्षा के लिए प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने वरदान दिया कि ऋषि आस्तिक तुम्हारी रक्षा करेंगे. तदनुसार यज्ञ के मंत्रोच्चार की शक्ति से जब दूर-दूर से अनेक सर्प खिंचे चले आकर यज्ञ की अग्नि में भस्म होने लगे, तो ऋषि आस्तिक ने उस यज्ञ को रुकवाया और सर्प जाति की रक्षा हुई.
नागों को लेकर हमारे पुराणों में अनेक रोचक और रोमांचक कथाएं हैं. नाग वैदिक संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग रहे हैं. संस्कृत ग्रंथ कथा सरित्साग में तो ऐसी कथाओं का भंडार है.
पुराणों में ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू नागों की उत्पति मानी गयी है. ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से आस्तिक ऋषि द्वारा सर्पों की रक्षा किये जाने के दिन के रूप में नागपंचमी मनाने का उल्लेख है. सर्प को मानव जाति के हितैषी के रूप में पूजा जाता है. कृषि को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों व अन्य कई प्रकार के कीटों से सर्प फसलों की रक्षा करते हैं.
शायद इसीलिए शास्त्रों में सर्पों को क्षेत्रपाल भी कहा गया है. सर्प को देख कर आदमी भय से भले ही सिहर उठता है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि सांप अकारण किसी को नहीं काटता. वस्तुत: नागपंचमी मानव मित्र सर्पों का विनाश रुकवाने, शत्रुता खत्म करने और सद्भाव बढ़ाने का पर्व है. सर्प भारतीय संस्कृति और जीवन दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. कहते हैं सर्प वायु पीता है अर्थात वायुमंडल की संपूर्ण विषाक्तता को स्वयं ग्रहण कर वह मानव व अन्य जीव-जंतुओं के लिए स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करता है. शायद इसीलिए नाग कल्याणकारी शिव को सर्वाधिक प्रिय है और उन्होंने बासुकी नाग को अपने गले का हार बना लिया. इसलिए नाग भी देवता के रूप में पूजे जाने लगे.
शिव ने स्वयं भी तो समुद्र मंथन से निकलेे विष को जगत के कल्याण के लिए अपने कंठ में धारण कर लिया. बौद्ध साहित्य में भी उल्लेख आता है कि बासुकी नाग भगवान बुद्ध का उपदेेश सुनने के लिए अपनी प्रजाति के साथ आता था. रामायण और महाभारत में भी बासुकी की कथाओं का उल्लेख है. शास्त्रों में पाताललोक को नागलोक के रूप में मान्यता दी गयी है. एक कथा यह भी आती है कि रावण ने नागों की राजधानी भोगवतीपुरी पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी. इसलिए नाग जाति उससे नाराज थी.
जब हनुमान सीता की खोज के लिए लंका जाने के मार्ग में समुद्र को लांघ रहे थे तब उनके बल और चातुर्य की परीक्षा लेने के लिए नागों की माता सुरसा प्रकट हुई. रामचरितमानस में इसका उल्लेख ‘सुरसा नाम अहिन कह माता’ के रूप में आया है. यह प्रसंग तुलसीदास जी ने बड़े रोचक तरीके से लिखा है कि किस तरह सुरसा हनुमान जी को खा जाने के लिए अपना मुंह चौड़ा करती गयी, लेकिन हनुमान जी अपना आकार उससे भी बड़ा करते गये. हनुमान जी इस पूरे मायाजाल को समझ रहे थे, इसलिए अचानक अपना रूप बहुत छोटा करके सुरसा के मुंह में घुस गये और बाहर निकल आये. कहा कि मुझे खाने का तुम्हारा प्रण भी पूरा हुआ, अब मुझे प्रभु श्रीराम के काज को पूरा करने के लिए जाने दो.
सुरसा ने प्रसन्न होकर अपना असली रूप प्रकट किया और असल परिचय देकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि तुम परीक्षा में सफल रहे. श्रीमद् भागवत में एक कथा कालिया नाग की आती है जिसके विष से यमुना का पानी जहरीला हो गया और बृजवासियों के प्राणों पर संकट आ गया. तब श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गेंद के खेल की लीला रच कर यमुना के अथाह जल में कूद पड़े और कालिया नाग का मर्दन किया. इधर कन्हैया को नदी में कूदते देख ग्वाल-बालों में चिंता की लहर दौड़ गयी और यह खबर गोकुल में आग की तरह फैलने से नंद-यशोदा सहित हजारों बृजवासी रूदन करने लगे. यमुना तट पर रोते-बिलखते इनलोगों ने अचानक देखा कि नदी की बीच धारा में से नाग के फन पर वंशी बजा कर नृत्य करते हुए कन्हैया प्रकट हो रहे हैं तो कृष्ण की जय-जयकार से आकाश गूंज उठा. इस तरह यमुना कालिया के विष वमन से मुक्त हुई.
यह कथा जल को शुद्ध बनाये रखने और नदी की स्वच्छता के लिए प्राणों की भी परवाह न करने का संदेश देने वाली है जो आज बेहद जरूरी है. एक तरफ तो नागराज बासुकी शिव के गले का हार बने हुए हैं, दूसरी ओर नागराज शेषनाग को भगवान विष्णु क्षीरसागर में अपनी शैया बनाये हुए हैं. उधर गणेश जी ने नाग को यज्ञोपवीत (जनेऊ) के रूप में धारण किया हुआ है. इससे भारतीय संस्कृति में नागों के महत्व को समझा जा सकता है. सर्प-पूजा को त्योहार के रूप में मनाने की परंपरा प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण का संदेश देने वाली है.
इस तरह हम जीव-जंतुओं की रक्षा का संकल्प भी लेते हैं. दरअसल यह सब आख्यान जो इन कथाओं के माध्यम से व्यक्त होते हैं प्रकृति, मनुष्य और जल-जीवों के सहजीवन के आनंद की अनुभूति कराने वाले हैं. भारतीय संस्कृति और हिंदू जीवन दर्शन में इस सहजीवन की अवधारणा को व्याष्टि-सभीष्टि-सृष्टि और परमेष्टि के यज्ञ चक्र के रूप में माना गया है. यह परस्पर पूरक है न कि एक-दूसरे का विरोधाभासी या टकराव व संघर्ष उत्पन्न करने वाला. नाग पंचमी जैसे पर्वों और त्योहारों के माध्यम से हम परस्पर संरक्षण की संवेदनाओं को और ज्यादा मजबूती देते हैं.
विज्ञान कहता है कि सांप दूध नहीं पीता, लेकिन इस प्रतीक के रूप में हम विषैले मन के लोगों को भी प्रेम और सद्भाव से जीतने का संदेश देते हैं. प्रकृति के प्रति हमारी ऐसी ही संवेदनाओं का दुष्प्रचार अंग्रेजों और अंगरेजी मानसिकता के लोगों ने यह कह कर किया कि भारत तो सांपों को पूजने वाले लोगों व सपेरों का देश है. इसे भौतिकवाद व विलासी आधुनिकता की दौड़ में हांफती दुनिया के मुकाबले हमारे पिछड़ेपन के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा. लेकिन आज पूरी दुनिया जिस विनाशकारी जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट से जूझती हुई उसके समाधान के लिए बेचैन और चिंतातुर है, वह उसे भारत के चिंतन में ही मिलेगा.
आज भौतिक लालसाओं ने जिस तरह मनुष्य और प्रकृति के बीच की दूरियां बढ़ा दी हैं उससे प्रकृति का कोपभाजन बन कर मानव समुदाय न केवल अनेक तरह के संकटों से घिरता जा रहा है, बल्कि यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि उसके अस्तित्व पर ही संकट आ रहा है. प्रकृति मनुष्य का पोषण करती है, लेकिन मनुष्य ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाएं पाने के लोभ में प्रकृति का शोषण कर रहा है. नाग पंचमी जैसे त्योहारों के माध्यम से हमारी सनातन वैदिक संस्कृति लगातार यही सिखाने का प्रयास करती रही है कि सहअस्तित्व की भावना से जीवन जीना ही कल्याण का मार्ग है.
नाग को सुगंध बहुत प्रिय होती है. केवड़ा, चंपा, चंदन जैसे सुगंधित पौधे और वृक्ष उसके आश्रय स्थल होते हैं. चंदन के पेड़ पर तो सर्पों का वास इतना लोक विख्यात हो गया कि कवि ने जीवन दर्शन ही दे दिया- ‘चंदन विष व्याप्त नहीं, लिपट्यो रहत भुजंग.’ यानी एक तरफ तो जीवन को सद्गुण-सदाचार से सुशासित बनाये रखना और दूसरी ओर दुर्गुणी लोगों के साथ रह कर भी उनके कुसंस्कारों से अपने को बचाये रखना. यही तो मनुष्य धर्म है, यही मनुष्यता की पहचान है.
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