
राजेश खन्ना को ख़राब एक्टर कहने पर जो हालिया विवाद हुआ था उसे तो नसीरुद्दीन शाह ने ख़ुद ही सुलझा दिया है लेकिन दोनों के फ़ैन्स के बीच लड़ाई जारी है.
शाहरुख़-सलमान के फ़ैन्स को तो सोशल मीडिया पर लड़ते देखा है लेकिन नसीर- राजेश खन्ना के फ़ैन्स के बीच भी कहा-सुनी हो सकती है ये सोचा नहीं था.
ये सब पढ़ते-पढ़ते ख़्याल आया कि आख़िर ये कौन तय करेगा कौन ज़्यादा अच्छा एक्टर है या अच्छी फ़िल्म क्या है? मैं अपनी ही बात करूँ तो मेरी पसंद कई तरह के बदलावों से गुज़री है.
छुटपन में जब टीवी पर नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों की आर्ट फ़िल्में आती थीं तो कुछ ख़ास समझ में आता नहीं था. ये फ़िल्में देखकर ही बोरियत होती और मैं टीवी छोड़ खेलने भाग जाती.

इससे उलट बचपन में जब दूरदर्शन पर शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, देव आनंद, आशा पारिख, अमिताभ बच्चन वगैरह की फ़िल्में आती तो बड़ा मज़ा आता. राजेश खन्ना की फ़िल्म आनंद से ही मुझे फ़िल्मों का चस्का लगा. बिल्कुल जादू सा हो गया था.
टीवी पर आने वाली इन फ़िल्मों के गाने और डायलॉग बोलते बोलते हम दिन भर धमाचौकड़ी मचाते रहते.

ख़ासकर तब जब आप एक छोटे से कस्बे में रहते हों जहाँ के एकमात्र फटेहाल सिनेमाहॉल में घिसे पिटे प्रिंट वाली पुरानी फ़िल्में ही नसीब होती हों.
जब बचपन से टीन एज में मैंने कदम रखा तो ये वो दौर था जब आमिर-सलमान-शाहरुख़ ख़ान आँधी की तरह आए और छा गए. मैं और मेरे जैसे किशोर-किशोरियाँ इससे न बच पाए.
“कुछ कुछ होता है राहुल, तुम नहीं समझोगे” जैसे डायलॉग अच्छे लगने ही थे. शायद उम्र का तकाज़ा था.

लेकिन इसी बीच धीमे धीमे एक तबदीली आई. नसीरुद्दीन शाह-फ़ारुख़ शेख-स्मिता पाटिल और सागर सरहदी की बनाई फ़िल्म ‘बाज़ार’ देखी.
ये उन मेनस्ट्रीम फ़िल्मों से बिल्कुल अलग थी जो मैं अब तक देखती आई थी. जो फ़िल्म बचपन में देखकर बोर हुई थी वही अब बहुत गहरे तक छू गई.
शायद मैं धीरे धीरे ‘बड़ी’ हो रही थी. एक नए तरह के सिनेमा मैं रूबरू हुई- मासूम, कथा, पार, चक्र, अंकुर, आक्रोश…
उस समय तक मैं वर्ल्ड सिनेमा से कमोबेश अंजान थी. कॉलेज में गई तो फ़िल्मों की दुनिया और भी बड़ी होती गई. ज्यां लुक गोदार्द, इंगमार बर्गमैन, त्रूफ़ो, फ़ेलिनी, आइज़नस्टाइन जैसे नामों से परिचय हुआ.

ये सब देखने के बाद एक समय आया जब पेड़ों की इर्द-गिर्द घूमती हिंदी फ़िल्मों की हीरोइन, बेतुके गाने, ‘पति ही परमेश्वर है’ और ‘चलती है क्या 9 से 12’ नुमा डायलॉग बहुत बोरिंग और निचले स्तर के लगने लगे.
बाद के सालों में दुनिया के अलग अलग देशों में घूमने का मौका मिला- चीन, मोरक्को, ईरान, पेरू, पोलैंड, जर्मनी. और हर बार हैरान होती कि बॉलीवुड के वहाँ किस कदर दीवाने हैं.

इसमें राजेश खन्ना से लेकर शाहरुख़ ख़ान के नाम शामिल थे.यानी बचपन से लेकर बड़े होने तक सिनेमा के मायने मेरे लिए कई बार बदले.
ये सवाल और गहराता गया कि आख़िर अच्छी फ़िल्म और अच्छा एक्टर कौन है ? वो जो भरपूर मनोरंजन करे, जिसकी फ़िल्म देखकर लगे कि पैसा वसूल हो गया, जो लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा छाए जैसा कि राजेश खन्ना ने अकसर अपनी फ़िल्मों में किया.
या वो जो अपनी एक्टिंग की बारीकियों से आपके दिल को छू जाए फिर भले ही आमतौर पर उस फ़िल्म की पहुँच सीमित ही क्यों न हो. या कभी कभी आम लोगों तक पहुँचती ही न हो. जैसा कि नसीर साहब की कई फ़िल्मों में देखने को मिलता है.

मेरे इर्द गिर्द ऐसे कई लोग थे जो सिर्फ़ नसीरुद्दीन नुमा या इरफ़ान ख़ान नुमा फ़िल्मों के अलावा हिंदी फ़िल्मों को घास भी नहीं डालते थे.
मैने अपने इन दोस्तों की दुनिया से बाहर निकलकर भी परखना शुरु किया. मसलन कई बार ऑटो स्टैंड पर खड़े होकर मैं सिर्फ़ उनकी बातें सुनती.
खाली वक़्त में वो अकसर ही सलमान या अक्षय कुमार या शाहरुख़ खान की लेटेस्ट फ़िल्मों की डायलॉगबाज़ी करते और गाने गाते हुए मस्त रहते. ये प्रयोग मैंने कई बार अलग-अलग जगह अलग-अलग लोगों पर अपनाया. और हर बार यही पाया कि हर किसी के लिए अच्छी फ़िल्म और अच्छे एक्टर की परिभाषा कितनी जुदा-जुदा है.

इसी उधेड़ बुन में एक बार मैंने गुज़रे ज़माने के निर्देशक बासु चटर्जी को इंटरव्यू के लिए कॉल किया. पहले तो वो मुझ पर ही भड़क गए. बोले मैं कौन होता हूँ इंटरव्यू देने वाला…इंटरव्यू-विंटरव्यू कुछ नहीं.
ख़ैर वो जैसे-तैसे नरम पड़े तो बातों का सिलसिला चल पड़ा. अच्छे एक्टर-ख़राब एक्टर, अच्छी फ़िल्म-बुरी फ़िल्म, आर्ट सिनेमा- मेनस्ट्रीम सिनेमा.
प्यार से समझाते हुए बोले, “राजेश खन्ना की फ़िल्म हो या अमोल पालेकर की …कोई झगड़ा थोड़े ही दोनों तरह की फ़िल्मों का. दोनों की ही हमें ज़रूरत है और तुलना बेमानी.”
मुश्किल सा लगने वाला सवाल थोड़ा आसान लगने लगा.सफ़र, अमर प्रेम, आराधना, कटी पतंग, इत्तेफ़ाक जैसी राजेश खन्ना की फ़िल्मों ने मेरा भरपूर मनोरंजन किया है और सिनेमा से मेरी जान- पहचान कराई.

वहीं स्पर्श, मासूम, पार जैसी नसीरुद्दीन की फ़िल्मों ने मुझे सिनेमा के अलग मायने सिखाए.
मेरे ज़ेहन में राजेश खन्ना और नसीरुद्दीन शाह के बीच कोई लड़ाई नहीं है. 100 करोड़ से ज़्यादा वाले देश में अच्छे सिनेमा और अच्छे एक्टर के एक जैसे मायने ढूँढना या दूसरे पर थोपना मुझे कुछ हद तक बेमानी लगता है.
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