भारतीय जनता पार्टी की इलाहाबाद में हुई कार्यकारिणी बैठक से साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में वह दुहरी रणनीति अपनाने जा रही है.
नरेंद्र मोदी की भाषा में एक तरफ तो पार्टी ‘विकास यज्ञ’ की बातें करेगी और केंद्र सरकार के प्रशासनिक मॉडल को चुनावी मंच से पेश किया जाएगा.
दूसरी तरफ अमित शाह की भाषा में सामुदायिक स्तर पर हिंदू बहुसंख्यक समाज के उन हितों की चर्चा की जाएगी जिनकी सुरक्षा कर पाने में ‘अखिलेश सरकार नाकाम रही है.’
कैराना से हिंदुओं के पलायन की बात उठाना इसी की एक बानगी है.
सवाल यह है कि यह रणनीति भाजपा को चुनाव जिता सकती है? पिछले पंद्रह साल से भाजपा उप्र में कांग्रेस के साथ तीसरे-चौथे नंबर के लिए संघर्ष कर रही है.
सत्ता की मुख्य दावेदार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी है. आज अगर सपा के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेंसी है, तो बसपा को उसका स्वाभाविक लाभ मिलना चाहिए.
यह लाभ बसपा को न मिल कर भाजपा को मिले, इसके लिए इस पार्टी को कुछ और ही करना होगा. उसे अपने इतिहास में झाँकना होगा. उसे दिखाई देगा कि 1990 में कल्याण सिंह ने पूर्ण बहुमत कैसे हासिल किया था.
उस चुनाव में रामजन्मभूमि आंदोलन का तूफान भाजपा के पक्ष में था, पर उसकी जीत केवल इस लहर से नहीं हुई थी.
भाजपा को ऊँची जातियों (ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर, कायस्थ और भूमिहार) के पूरे समर्थन के साथ-साथ ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों का समर्थन जम कर मिला था. यही था वह समीकरण जिसे ‘हिंदू एकता’ कहा गया.
भाजपा को एक बार फिर यही एकता क़ायम करनी होगी. एक पिछड़ी जाति के व्यक्ति को अपना प्रदेश अध्यक्ष बना कर उसने कुछ-कुछ इस तरह की जागरूकता दिखाई तो है, पर केवल इतने से काम नहीं चलने वाला है.
उसे कुछ उस तरह का आश्वासन देना पड़ सकता है जैसा राजनाथ सिंह ने उस समय दिया था जब वे मुख्यमंत्री थे. या जैसा अभी भी अपने भाषणों में वे देने की कोशिश कर रहे हैं.
यानी उसे पिछड़ी जातियों के आरक्षण के भीतर आरक्षण का आश्वासन देना होगा, ताकि ग़ैर-यादव विशेष अवसरों के लोभ में उसके साथ आ सकें.
इसीलिए अभी तक भाजपा की तरफ से अति-पिछड़ों की अलग श्रेणी बनाने की माँग मंच पर नहीं आई है.
मुश्किल यह है कि भाजपा की चुनावी बागडोर राजनाथ सिंह के हाथों में न है, न ही दी जाएगी. वहाँ वही अमित शाह चुनाव लड़ा रहे हैं जिनकी रणनीति का खामियाजा भाजपा बिहार और दिल्ली में उठा चुकी है.
नरेंद्र मोदी जिस विकास-यज्ञ की बातें कह रहे हैं, वह भी उप्र की जनता के एजेंडे पर फिलहाल नहीं है. उसके एजेंडे पर तो क़ानून-व्यवस्था, सुरक्षा और जान-माल की फ़िक्र है.
लोग चाहते हैं कि कोई सत्तारूढ़ समुदाय उनकी सरेआम बेइज्ज़ती न करे. जब सरकार ठेके दे, तो केवल एक ही समुदाय को न मिलें.
जब नौकरियाँ निकलें तो केवल एक ही बिरादरी के हिस्से में न जाएँ. लोग थाने जाएँ तो उनकी रपट लिख ली जाए.
उनकी जमीन-जायदाद पर कोई चौधरी अपने राइफ़लधारी चेले-चपाटों के साथ पुलिस की शह पर कब्ज़ा न कर ले.
इन तमाम बातों की गारंटी करने के लिए उसके सामने मायावती का जाना-पहचाना चेहरा है जिनके पिछले शासनकाल में ये सब समस्याएँ नहीं थीं.
दिक्क़त यह है कि भाजपा के पास किसी तरह का चेहरा पेश करने के लिए है ही नहीं. न जाना-पहचाना और न ही कोई नया चेहरा.
चेहरा नहीं तो वोट नहीं, यह सबक भाजपा बिहार में सीख चुकी है. देर से चेहरा उतारा तो भी वोट नहीं, यह सबक़ वह दिल्ली में सीख चुकी है.
चेहरा उतारा तो वोट ही वोट, यह सबक़ भी उसने असम में सीख रखा है. सवाल यह है कि इन तीनों सबक़ों में से किस नसीहत का पालन वह उप्र में करेगी?
2014 के बाद का पैटर्न बताता है कि भाजपा केवल वहीं जीतती है जहाँ उसके सामने कांग्रेस होती है. क्षेत्रीय शक्तियों के सामने वह या तो बुरी तरह से हार जाती है या फिर वे उसकी बढ़त रोक देती हैं.
उप्र में कांग्रेस तो उसके मुक़ाबले है नहीं. दो शक्तिशाली क्षेत्रीय दल हैं. यह पैटर्न पलटने में भाजपा को दाँतों तले पसीना आने वाला है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं. लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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