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भाजपा से जनता की अपेक्षाएं अचानक बढ़ीं
पुष्पेश पंत वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक इन चुनावों के बाद भाजपा से जनता की अपेक्षाएं फिर अचानक बढ़ गयी हैं. अगला वर्ष कुछ और विधानसभाओं की चुनावी की तैयारी में बीतेगा. वादे पूरे करने, कुछ कर दिखाने और अपनी ‘सांप्रदायिक-असहिष्णु’ छवि के बारे में आशंकित पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करने के लिए भाजपा के पास […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ राजनीतिक
विश्लेषक
इन चुनावों के बाद भाजपा से जनता की अपेक्षाएं फिर अचानक बढ़ गयी हैं. अगला वर्ष कुछ और विधानसभाओं की चुनावी की तैयारी में बीतेगा. वादे पूरे करने, कुछ कर दिखाने और अपनी ‘सांप्रदायिक-असहिष्णु’ छवि के बारे में आशंकित पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करने के लिए भाजपा के पास ज्यादा वक्त नहीं है.
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे अप्रत्याशित नहीं हैं. यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दिल्ली-बिहार में हार और उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार को गिराने के असफल प्रयास के बाद इन नतीजों ने भाजपा में फिर से जोश भर दिया है. हालांकि, यहां यह जोड़ना जरूरी है कि सिर्फ असम में भाजपा की जीत हुई है, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु में जीत ममता बनर्जी व जयललिता की ही है, जिसका श्रेय कोई दूसरा नहीं ले सकता. केरल में ‘खाता खुलने’ पर भाजपा देर तक अपनी पीठ थपथपाती रही, लेकिन वहां भी हाकिम की कब्र पर लात मारने जैसा कोई पराक्रम नहीं साधा गया है. सच है कि भाजपा की जीत से कहीं ज्यादा ये नतीजे कांग्रेस की करारी हार को बयां करते हैं.
हां, भाजपा की बड़ी उपलब्धि यह कही जा सकती है कि राहुल-सोनिया की ‘कुनबापरस्त’ राजनीतिक दुकानदारी को ही राष्ट्रीय कहनेवाली पार्टी की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाने में कामयाब रही. इस समय कांग्रेस के प्रवक्ता यह कहते नहीं थक रहे कि भाजपाइयों ने जनता को गुमराह करने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया, तरह-तरह के हथकंडे आजमा कर लोकप्रिय कांग्रेसी चेहरों को तोड़ा, कल तक जो दुश्मन थे, उन्हें गले लगाया वगैरह. यह विश्लेषण देर तक चलेगा, लेकिन पता नहीं परास्त कांग्रेस कितना सबक सीखेगी.
हमारी समझ में इस बात की पड़ताल कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि भाजपा अपनी जीत व कांग्रेस अपनी हार से क्या सीखती है. इन नतीजों से एक अंदेशा यह है कि शिखर पर विराजमान नेताओं का अहंकारी अतिशय आत्मविश्वास और बढ़ सकता है. यह गलतफहमी पैदा होने की संभावना है कि अब कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा किया जाना है और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को चुनौती देनेवाला कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं बचा है. इससे भी चिंताजनक बात यह कि कुछ आक्रामक तेवरवाले गैर-जिम्मेवार भाजपाई यह सुझाना शुरू कर सकते हैं कि कांग्रेस की लगातार हार इस बात का प्रमाण है कि मतदाता ने इस दल की धर्मनिरपेक्ष बहुलवादी विचारधारा के खिलाफ वोट दिया है.
इसका अर्थ है कि आमजन हिंदुत्व को चुन रहा है, लेकिन इन चुनावी नतीजों का अहम निहितार्थ निकाला गया, तो परिणाम घातक होंगे. 2019 अभी दूर है. उससे पहले पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि बड़े राज्यों में भाजपा को अभी कड़ी चुनौती का सामना करना है. यह भी न भूलें कि जीत के बाद अपने भाषण में ममता ने केंद्र के साथ अपने मतभेदों का स्पष्ट उल्लेख किया है.
बिहार हो या ओड़िशा, उत्तर प्रदेश हो या तेलंगाना, आंध्र प्रदेश- ये ऐसे गैर भाजपाई राज्य हैं, जिनके समर्थन-सहकार की जरूरत मोदी सरकार को लंबे समय तक बनी रहेगी. राज्यसभा मे विधेयक पारित कराना हो या राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति चुनाव के समय सहमति, भाजपा ‘एक साथ चलो रे’ का हठ कतई नहीं पाल सकती. भाजपा के आलाकमान की समझदारी इसी में होगी कि वह ‘जीत’ को विनय और संयम के साथ स्वीकार करे. कांग्रेस के प्रति मतदाताओं के मोहभंग का सबसे बड़ा कारण राहुल-सोनिया का लचर खुदगर्ज नेतृत्व है और इस परिवार की चापलूसी करते दरबारियों की निर्लज्ज निकम्मी भ्रष्टाचारी राजनीति.
जिस समावेशी विकास के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी को नाटकीय विजयश्री मिली थी, उसका लाभांश अभी जनसाधारण तक नहीं पहुंचा है.
अंतत: करिश्मा नहीं, काम को ही मतदाता अपनी कसौटी पर कसता है. इन चुनावों के बाद भाजपा से जनता की अपेक्षाएं फिर अचानक बढ़ गयी हैं. अगला वर्ष कुछ और विधानसभाओं की चुनावी की तैयारी में बीतेगा. वादे पूरे करने, कुछ कर दिखाने और अपनी ‘सांप्रदायिक-असहिष्णु’ छवि के बारे में आशंकित पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करने के लिए भाजपा के पास ज्यादा वक्त नहीं है.
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