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ग्लैमर की दुनिया के पीछे की शून्यता में कौन झांकेगा?

विनीत कुमार मीडिया विश्लेषक एक चरित्र के तौर पर आनंदी टेलीविजन स्क्रीन पर आगे भी बनी रहेगी, लेकिन उस किरदार को जीती रही प्रत्युषा बनर्जी अब इस दुनिया में नहीं है. चौबीस साल की वह लड़की, जिसकी ‘बालिका वधू’, ‘बिग बॉस’, ‘झलक दिखला जा’ और यहां तक कि ‘सावधान इंडिया’ के स्पेशल एपीसोड में मौजूदगी […]

विनीत कुमार
मीडिया विश्लेषक
एक चरित्र के तौर पर आनंदी टेलीविजन स्क्रीन पर आगे भी बनी रहेगी, लेकिन उस किरदार को जीती रही प्रत्युषा बनर्जी अब इस दुनिया में नहीं है. चौबीस साल की वह लड़की, जिसकी ‘बालिका वधू’, ‘बिग बॉस’, ‘झलक दिखला जा’ और यहां तक कि ‘सावधान इंडिया’ के स्पेशल एपीसोड में मौजूदगी पर गौर करें, तो आप यकीन नहीं कर पायेंगे कि यह लड़की आत्महत्या भी कर सकती है. टेलीविजन स्क्रीन और वर्चुअल स्पेस पर इसकी मुस्कराहट आत्महत्या के विरुद्ध तब भी मौजूद रहेगी.
टेलीविजन स्क्रीन पर प्रत्युषा ने जिन किरदारों को जीया है, उसका एक हिस्सा भी अपनी असल जिंदगी में जी रही होती, तो वह आत्महत्या के फैसले तक कभी नहीं पहुंच पाती. वह हायपर टेंशन वाले वातावरण में खुद को एक बेहद संजीदा और संतुलित चरित्र के तौर पर ढालती रही, उसके आगे प्रत्युषा के असल जिंदगी के तनाव शायद बीस पड़ गये. रिलेशनशिप, आर्थिक खींचतान, महानगर की जिंदगी के बीच के सारे क्रम को बिठाते हुए बीच का कोई एक तार गड़बड़ा गया और उसने आत्महत्या को सुकून का अंतिम विकल्प के तौर पर चुना.
हालांकि यह तर्क भी बेढब किस्म का है कि जिन चरित्रों को वह टीवी स्क्रीन पर जीती आयी थी, उसका एक हिस्सा भी असल जिंदगी में शामिल कर पातीं तो फैसले के रास्ते आत्महत्या की तरफ नहीं मुड़ते. इस तर्क के साथ खड़े होने का मतलब है कि हम टीवी और सिनेमा में खलनायक की भूमिका और नायक बनने के फेर में कानून अपने हाथ में लेने को सही ठहरा रहे हैं.
लेकिन, वर्षों से एक सशक्त महिला चरित्र की भूमिका को निभाते हुए कोई लड़की अपनी पेशेवर और असल जिंदगी के बीच संतुलन नहीं बना पाती है, तो यह घटना अकेले प्रत्युषा की नहीं, उन हजारों-लाखों किशोरों और युवाओं को लेकर इस सवाल के साथ जुड़ जाती है कि क्या पेशे की धरातल पर की मजबूती उसे असल जिंदगी में मजबूत नहीं कर पा रही है?
हम स्त्री विमर्श की तमाम अवधारणाओं के बीच जिन गिने-चुने तर्कों पर आकर टिकते है, उनमे से एक यह भी है कि पेशे के स्तर पर, खरीदने की क्षमता के स्तर पर, आर्थिक धरातल पर स्त्रियां जितनी मजबूत होंगी, अपने निजी जिंदगी के फैसले लेने में भी उतनी ही सक्षम हो सकेंगी.
लेकिन, प्रत्युषा और उसके पहले जिया खान और उससे भी पहले दिव्या भारती के साथ-साथ न्यूज चैनलों, कॉरपोरेट, अकदामिक- इन सबके बीच सफल होती महिलाएं आत्महत्या की कोशिश तक एक-के-बाद-एक जा रही हैं, वह आर्थिक स्तर की निर्भरता के सवाल को तो बहुत पीछे छोड़ देता है. हम चाहें, तो ऐसे मौके पर बेहद दार्शनिक अंदाज अख्यितार कर सकते हैं कि दरअसल ये हमारे आसपास के समाज की असफलता है, लेकिन क्या बात फकत बस इतनी भर की है क्या?
हम चाहें, तो इस सिरे से भी सोच सकते हैं कि छोटे शहरों से आनेवाली लड़कियों-महिलाओं को अब अवसर के खुलेपन के बीच जिस तेजी से मौके मिलने लगे हैं, उन मौके को वे तत्परता से पकड़ भी रही हैं, पर उसी अनुपात में महानगर की जिंदगी और सफलता के तनाव के बीच खुद को संभाल नहीं पा रही है. लेकिन, क्या महानगर को एक झटके में खलनायक करार देने के पहले हमें हर पेशे के भीतर के जनतंत्र की टोह लेने की जरूरत नहीं है? मेरे ख्याल से इस मुद्दे को महानगर की तरफ शिफ्ट करना, पेशे के भीतर के स्याह पक्ष को नजरअंदाज कर क्लीन चिट देने का काम होगा.
जिस चैनल के लिए प्रत्युषा आनंदी की भूमिका निभाती रही, आज से कोई सात साल पहले इसी चैनल के लिए आनंदी की भूमिका में अविका गौर हुआ करती थी. स्कूल गोइंग लड़की. वह वो दौर था, जब टीवी सीरियलों के जरिये सामाजिक बदलाव का जोर कुछ इस कदर पकड़ा कि एक अंगरेजी न्यूज चैनल राजस्थान के इलाके में जाकर इस बात को लेकर स्टोरी प्रसारित करने लगा कि कलर्स के बालिका वधू सीरियल से राजस्थान में बाल-विवाह और सामाजिक कुरीतियों में तेजी से कमी आ रही है.
इसी दौरान मनोरंजन चैनलों के जूनियर आर्टिस्टों ने अपनी मांग के लिए हड़ताल किया. लेकिन मुख्यधारा मीडिया, खास कर न्यूज चैनलों ने इस बात को बहुत महत्व नहीं दिया. आगे चल कर ओपन मैगजीन ने एक स्टोरी की, जिसने टेलीविजन के चमकीले पेशे के भीतर के स्याह पक्ष को उघाड़कर रख दिया था. उतरन की इचकी, तप्पो, बालिका वधू की आनंदी की ऐसी दुनिया, जहां उनकी अधूरी टिफिन है, सेट के पीछे बिखरे स्कूल बैग हैं, बेतरतीब पड़ी स्कूल ड्रेस हैं.
टीवी स्क्रीन पर वो बाल अधिकार, सामाजिक न्याय के चरित्र की भूमिका में है, लेकिन असल जिंदगी में उसका खुद का बचपन बुरी तरह कुचला जा रहा है.
प्रत्युषा की इस मौत के पीछे उसके प्रेमी राहुल के साथ की कड़वाहट को शामिल करते हुए एक नतीजे तक पहुंचना फिर भी बेहद आसान है, परंतु क्या इससे इंडस्ट्री के भीतर, पेशे के भीतर के अकेलेपन का सच ढंक जायेगा?
सवाल है कि जब टीवी दर्शक अपने काल्पनिक चरित्रों को असल जिंदगी में भी उसी रूप में देखते आये हैं, चरित्र टीवी पर राम, कृष्ण, तुलसी बनने की वजह से संसद पहुंच कर हमारे-आपके भाग्य विधाता बन रहे हों, तो उनकी असल जिंदगी को इस जड़ता के साथ कैसे देखा जा सकता है कि इंडस्ट्री के भीतर जनतंत्र और साझापन की शून्यता पर रत्तीभर भी बात करने की जरूर न महसूस हो और तब हो जब अपने-अपने पेशे की कोई दूसरी प्रत्युषा आत्महत्या के फैसले तक न पहुंच जाये?

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