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दरकते सिनेमाघरों को जिंदा करने की हिट स्टोरी

90 के दशक में जब अिमताभ बच्चन का शहंशाही दौर और िसनेमाघर दोनों ढलान पर थे. अमिताभ उम्र से संघर्ष कर रहे थे, तो टॉकीज पाइरेटेड सीडी से परेशान थे. लोग फैिमली के साथ सिनेमा देखने जाने से बच रहे थे , तभी एक बदलाव आया और िफर सिनेमाघर हुए हाउसफुल. मल्टीस्क्रीन का दौर शुरू […]

90 के दशक में जब अिमताभ बच्चन का शहंशाही दौर और िसनेमाघर दोनों ढलान पर थे. अमिताभ उम्र से संघर्ष कर रहे थे, तो टॉकीज पाइरेटेड सीडी से परेशान थे. लोग फैिमली के साथ सिनेमा देखने जाने से बच रहे थे , तभी एक बदलाव आया और िफर सिनेमाघर हुए हाउसफुल. मल्टीस्क्रीन का दौर शुरू िकया पीवीआर ने.

पंकज मुकाती

pankaj.mukati@prabhatkhabar.in

आपका वीकेंड इनके बिना अधूरा है. दस साल पहले तक परिवार के साथ फिल्म देखना एक मुश्किल काम था. तीन घंटे की फिल्म आपका पूरा दिन चौपट कर देती थी. पहले पहुंचों लाइन में लगो. टिकट मिली, तो ठीक. नहीं तो वापस खाली हाथ घर. मिल गयी, तो नया संघर्ष. सीट कैसी मिलेगी. हवादार जगह होगी या नहीं. एसी चलेगा या बंद होगा. इन सबका हल एक शख्स ने दिया. भारतीय फिल्मों को आप तक आराम से पहुंचाने वाले हीरो हैं- अजय बिजली.

ये अपने नाम को सार्थक करते हैं. मल्टीस्क्रीन थिएटर में ये अजेय हैं और बिजली की गति से इन्होंने विस्तार किया है. देश में पहला मल्टीस्क्रीन सिनेमाघर यही लाये. सिनेमा टिकट के धक्के बंद करने के लिए ऑनलाइन बुकिंग भी इनकी ही देन है. प्रिया विलेज रोड शो यानी पीवीआर. ये नाम इसलिए कि प्रिया नाम का दिल्ली में इनके पिता का सिनेमाघर रहा और ऑस्ट्रेलिया की कंपनी विलेज रोड शो के साथ देश का पहला मल्टीप्लेक्स शुरू हुआ. इस कंपनी ने 1997 में दिल्ली में अनुपम नाम से पहला सिनेमा घर शुरू किया. 19 साल में यह कंपनी दुनिया की टॉप टेन सिनेमा कंपनी में शामिल हो गयी.

वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ने इसे सबसे तेज तरक्की वाली ग्लोबल कंपनी की सूची में रखा है. फिल्मी स्टोरी की तरह ही ये कंपनी भी आगे बढ़ी. अपने पहले 11 साल, यानी 2008 तक कंपनी ने 100 स्क्रीन और पहला डिजिटल लांच किया था. बाद के आठ साल कंपनी ने 401 नये स्क्र ीन शुरू किये. आज कंपनी 45 शहरों में 501 स्क्र ीन की मालिक है. देश में फिलहाल वे एक हजार स्क्र ीन का लक्ष्य लेकर चल रही है.

अजय बिजली की गति स्क्रीन पर बदलते सीन की तरह ही है. इसलिए वह कहते हैं, मेरा लक्ष्य तो समय के साथ बदलता रहता है. पीवीआर की दुनिया जितनी चमकीली है, उसके पीछे उतना ही गहरा संघर्ष भी है.

अजय के पिता कृष्ण मोहन की दिल्ली में एक ट्रांसपोर्ट कंपनी और प्रिया नाम का सिनेमाघर था. 1990 में भारत में अमिताभ बच्चन का शहंशाही दौर दरक रहा था और सिनेमा का धंधा भी. उस दौर में अजय अमेरिका गये. उन्होंने वहां के सिनेमाघर देखे, तो चमत्कृत हुए. लौट कर पिता से उन्होंने हॉलीवुड फिल्मों का धंधा करने की अनुमति मांगी. विदेशी कंपनीज ने कहा कि सिनेमाघर ठीक करो, तभी फिल्में देंगे.

बस, अजय लग गये और प्रिया का स्वरुप बदल गया. 1992 में उनके पिता चल बसे. 1995 में अजय ने ऑस्ट्रेलिया की कंपनी से एग्रीमेंट कर 1997 में अनुपम थिएटर को मल्टीस्क्रीन किया. 2001 में फिर गेम बदला, अमेरिका में आतंकी हमले के बाद विलेज रोड शो ने बिजनेस से हाथ खींच लिया. अब अपने दम पर ख्वाब पूरा करने को उन्होंने बैंक से लोन लिया.

2003 में बेंगलुरु में 11 स्क्रीन सिनेमाघर बना कर देश में घटते सिनेमाघरों को नयी राह दिखायी. पीवीआर ने थिएटर के साथ रेस्तरां और बॉउलिंग बिजनेस में भी पैसा लगाया. ऐसा नहीं है कि पीवीआर सिर्फ रईसों के लिए है. यदि महंगा पीवीआर गोल्ड है, तो कस्बों के लिए पीवीआर टॉकीज का कांसेप्ट भी है.

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