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‘क्या वामपंथी दे सकते हैं राजनीतिक विकल्प’

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार सरकार आई थी प्रचंड बहुमत से, जिसको जनता ने सबका साथ, सबका विकास और एक बेहतर शासन, बेहतर गवर्नेंस, डेवेलपमेंट मुद्दों पर बहुमत दिया था. तो कहीं न कहीं इन कुछ महीनों में जो उसकी परफॉर्मेंस रही है उससे एक तरह से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा किया गया है. […]

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सरकार आई थी प्रचंड बहुमत से, जिसको जनता ने सबका साथ, सबका विकास और एक बेहतर शासन, बेहतर गवर्नेंस, डेवेलपमेंट मुद्दों पर बहुमत दिया था.

तो कहीं न कहीं इन कुछ महीनों में जो उसकी परफॉर्मेंस रही है उससे एक तरह से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा किया गया है.

प्राइम टाइम में जेएनयू का मुद्दा लाया गया, जिससे सरकार की विफलताओं पर चर्चा न हो सके.

केंद्र में जो भाजपा नेतृत्व वाली सरकार है, उसे जनता ने बहुत बड़े समर्थन से जिताया है और उसका अभी तीन वर्ष से ज़्यादा का कार्यकाल बाक़ी है.

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इस बीच में सरकार की ओर से जो पॉलिसी इम्प्लीमेंटेशन, पॉलिसी एक्ज़ीक्यूशन हो रहा है, उससे लोगों में निराशा है.

लेकिन विपक्ष की ओर से कोई बड़ा नेता, जो सबको स्वीकार हो ऐसा कोई नहीं उभरकर आ सका है.

वामपंथी दलों का देश में बहुत ही बुरा हाल है. केरल, बंगाल में जो ताक़त उनकी हुआ करती थी, वहां भी वो कमज़ोर हो गए हैं. कुल मिलाकर एक छोटा राज्य त्रिपुरा बचा है.

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ऐसे दौर में जब वामपंथी दलों का आकर्षण बंगाल, केरल में भी कम हुआ है, कन्हैया कुमार का उभरना बहुत महत्वपूर्ण है.

अब देखना होगा कि क्या रोहित वेमुला की लड़ाई से जो एक दलित विमर्श सामने आया है, क्या ये जो वामपंथी छात्र हैं, वामपंथी संगठन हैं, एक राजनीतिक विकल्प दे सकते हैं.

इससे भारत में अगर आज कोई बड़ा वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व उभर सकता है तो वो दलित और अन्य समाज हैं. ख़ासकर जिसे सामाजिक भाषा में बहुजन कहा जाता है.

तो अगर पॉलिटिकल विमर्श उभरकर सामने आता है, जिसमें दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक और उच्चवर्ग का प्रोग्रेसिव हिस्सा जुड़ता है, तो मोदी सरकार और मोदी की राजनीति के ख़िलाफ़ एक बड़ी चुनौती बन सकता है.

(बीबीसी संवाददाता संदीप सोनी के साथ बातचीत पर आधारित)

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