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बजट 2016 : अर्थशास्त्रियों की आकांक्षाएं

आम बजट सरकार के आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा होता है. इसमें धन के आवंटन और राजस्व प्राप्ति के उपायों के जरिये सरकार की आर्थिक नीतियों की दशा और दिशा का भी संकेत मिलता है. उद्योगपतियों, वेतनभोगी लोगों, व्यापारियों, किसानों और कामगारों समेत समाज के हर वर्ग की बजट से ढेर सारी आकांक्षाएं होती हैं. बजट […]

आम बजट सरकार के आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा होता है. इसमें धन के आवंटन और राजस्व प्राप्ति के उपायों के जरिये सरकार की आर्थिक नीतियों की दशा और दिशा का भी संकेत मिलता है. उद्योगपतियों, वेतनभोगी लोगों, व्यापारियों, किसानों और कामगारों समेत समाज के हर वर्ग की बजट से ढेर सारी आकांक्षाएं होती हैं. बजट वह मौका भी होता है, जब सरकार अपनी पूर्ववर्ती नीतियों में जरूरत के हिसाब से संशोधन या परिवर्द्धन करती है.
इस समय वैश्विक मंदी और विभिन्न घरेलू कारणों से अर्थव्यवस्था की हालत बहुत संतोषजनक नहीं है और उसमें बेहतरी की संभावनाएं अनेक कारकों पर निर्भर करती है. इस संबंध में आर्थिक समीक्षा में भी विश्लेषण दिया गया है. अब वित्त मंत्री अपने पिटारे से क्या निकालते हैं, इसका पता तो आज पेश होनेवाले बजट में ही चल सकेगा. बहरहाल, इस विशेष प्रस्तुति में जानते हैं कुछ विशेषज्ञों की बजट से अपेक्षाओं के बारे में….
कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य को मिले प्राथमिकता
प्रवीण झा
अर्थशास्त्री
सरकार ने शुक्रवार को पेश किये गये अपने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. हर बार बजट में सरकार ऐसा कहती भी है, लेकिन बहुत कुछ हो नहीं पाता है. देखना होगा कि इस बार के बजट में सरकार इन चीजों पर कितना फोकस करती है.
कृषि : देश के करीब आधे राज्यों में कृषि की हालत बेहद खराब है. किसानों की संख्या दिन-ब-दिन कम हो रही है. सरकार को इसे प्राथमिकता में रखते हुए इस आेर समग्रता से ध्यान देना चाहिए.
शिक्षा : सरकार अक्सर डेमोग्राफिक डेवलपमेंट यानी समाज के सभी वर्गों के समान विकास की बात करती है, लेकिन शिक्षा इसमें सबसे बड़ी बाधा है. शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि आपने लोगों को ‘कामगार’ बना दिया. शिक्षा का मतलब इससे कहीं बहुत ज्यादा है और उसके लिए जो सोच चाहिए, वह सरकार के साथ दिख नहीं रही. इस दिशा में मजबूत कदम उठाना होगा.
स्वास्थ्य : यह हमेशा से ही महत्वपूर्ण सेक्टर रहा है. हमारे यहां स्वास्थ्य सुविधाओं में काफी विकास हुआ है, लेकिन इसमें विषमता ज्यादा है. आम आदमी को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिल पा रही है. प्राइमरी हेल्थकेयर में सुधार लाते हुए सरकार को ‘प्रिवेंटिव’ नजरिया अपनाना होगा, ताकि बीमारियों को जड़ से खत्म किया जा सके.
सब्सिडी : सरकार अनेक सेक्टर में सब्सिडी देती है और उसका फायदा अमीरों को भी मिलता है. सरकार को यह तय करना होगा कि उन्हें इसका फायदा नहीं मिले. हालांकि, व्यावहारिक तौर पर इसे अमल में लाना आसान नहीं है और इसके लिए सरकार को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. इससे आर्थिक विषमता को कम किया जा सकेगा. घरेलू गैस सिलिंडर में सब्सिडी के मामले में सरकार की अच्छी पहल रही और बहुत लोगों ने सब्सिडी छोड़ दी है. बिजली के मामले में भी ऐसा किया जा सकता है.
राजस्व जुटाने के उपाय : सरकारों के लिए सबसे बड़ा सवाल होता है कि पैसा कहां से आयेगा. इसके लिए सरकार को हर मुमकिन जरूरी कदम उठाने होंगे. सरकार अनेक सेक्टर में विविध प्रकार की ‘छूट’ देती है. इस छूट को खत्म करना होगा. दुनिया में भारत के अन्य समकक्ष देशों या विकासशील देशों के ‘टैक्स जीडीपी रेशियो’ की तुलना भारत से करें, तो हमारे यहां बहुत कम है. उदाहरण के तौर पर ब्राजील में ‘टैक्स डीजीपी रेशियो’ करीब 35 फीसदी है, जबकि हमारे यहां करीब 17 फीसदी ही है.
विकास के दीर्घकालीन उपायों पर हो जोर
पीके चौबे
अर्थशास्त्री
केंद्र सरकार के लिए इस वर्ष का बजट महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस साल और अगले साल सरकार आम बजट को ‘चुनावी मुद्दों’ से दूर रख सकती है. उसके बाद लोकसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार लोकलुभावन बजट भी बना सकती है. इसलिए सरकार को इस बार दीर्घकालीन नीतियों पर ध्यान देना चाहिए.
जीएसटी : बजट में इस बार यह मसला सुर्खियों में रहेगा. इस मुद्दे के साथ विडंबना यह है कि तमाम राज्य सरकारों समेत व्यापारी वर्गों ने अपनी ओर से तैयारी कर ली है, लेकिन संसद इसके लिए तैयार नहीं हुई है. सरकार की जिम्मेवारी है कि वह संसद को इसके लिए तैयार करे. संसद को भी इसे समझना चाहिए. पूरे टैक्स सिस्टम में सुधार होना चाहिए.
खर्च कहां करेंगे : स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसी अनेक स्कीम्स पर बातें बहुत हो रही हैं. इसमें ‘इंस्टीट्यूशनल एरेंजमेंट्स’ की भी बातें हो रही हैं, लेकिन हमें यह समझना होगा कि इस पर खर्च कैसे किया जाये. स्किल इंडिया एक दूरगामी स्कीम है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि अब तक हम इसकी राह पर कितने कदम आगे बढ़ पाये हैं. इसका दूरगामी असर कितना होगा, यह बताना जरूरी है. सरकार एक ओर मनरेगा की बुराई कर रही और उसे चालू भी रखा जायेगा. मनरेगा में गड्ढे खोदने और भरने की बजाय मजदूरों को भी स्किल इंडिया से जोड़ा जा सकता है.
उच्च शिक्षा : उच्च शिक्षा की दिशा स्पष्ट नहीं हो रही है. शिक्षा नीति के निर्माण में ज्यादा स्पष्टता की जरूरत है. देश में उच्च शिक्षा के स्तर तक छात्रों के पहुंचने की दर में बेहद धीमी गति से सुधार हो रहा है. इसके लिए जरूरी उपाय होने चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा छात्रों को उच्च शिक्षा मुहैया करायी जा सके. इसके लिए कार्ययोजना बनाने की जरूरत है.
ऊर्जा क्षेत्र : सभी चीजों के विकास में पावर सेक्टर की महत्वपूर्ण भूमिका है. बुनियादी ढांचे में सड़कों का तो विकास हुआ है, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र में हम बहुत पीछे हैं. इसके दो स्वरूप हैं- पारंपरिक स्रोत और अक्षय स्रोत. हमें इन दोनों पर समान जोर देना चाहिए. अक्षय ऊर्जा के लिए दीर्घकालीन नीतियां बनानी होंगी, लेकिन इस बीच ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों को भी बरकरार रखना होगा. अगले एक-डेढ़-दो दशकों में जिन चीजों का नतीजा आयेगा, उस पर अभी से ही पूरा भरोसा करना ठीक नहीं. हमें दोनों के साथ संतुलन बना कर चलना होगा.
गरीबों को पैरों पर खड़ा करना : गरीबों को सब्सिडी मुहैया कराने की बजाय उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाना होगा. इसके लिए मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रीफाइनेंस एजेंसी) के जरिये उनकी मदद की जा सकती है. सब्सिडी सिस्टम खत्म होने से भ्रष्टाचार भी कम होगा.
कृषि क्षेत्र के लिए हो एक लाख करोड़ रुपये का प्रावधान
देविंदर शर्मा
कृषि अर्थशास्त्री
किसानों को पैकेज : वर्ष 2008-09 में आर्थिक मंदी के दौरान उद्योग जगत को उससे उबारने के लिए बड़ा ‘इकोनॉमिक बेलआउट पैकेज’ दिया गया था. पिछले 10 सालों से देश में रोजाना औसतन 42 किसान आत्महत्या कर रहे हैं और 2015 में यह आंकड़ा बढ़ कर 52 तक पहुंच गया है. देश में खेती की दशा बिगड़ चुकी है, लिहाजा किसानों को भी ‘बेलआउट पैकेज’ मिलना चाहिए.
नेशनल फार्मर्स इनकम कमीशन बने : मौजूदा सरकार ने किसानों को फसल की लागत पर कम से कम 50 फीसदी की दर से न्यूनतम समर्थन मूल्य मुहैया कराने की बात कही थी, लेकिन बाद में उससे पल्ला झाड़ लिया. सरकार यदि ऐसा करेगी भी, तो इससे महज छह फीसदी किसानों को ही फायदा मिलेगा और 94 फीसदी किसान इससे वंचित रह जायेंगे. किसानों के लिए ‘नेशनल फार्मर्स इनकम कमीशन’ का गठन होना चाहिए और ऐसा इंतजाम किया जाये कि किसान को भी न्यूनतम आमदनी हासिल हो. यह निर्धारण किसी सरकारी कर्मचारी को दिये जाने वाले न्यूनतम वेतन (18,000 रुपये) के आधार पर कम से कम उतना तो होना ही चाहिए.
कॉरपोरेट टैक्स वसूली : पिछले साल सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को 5,73,000 करोड़ रुपये का ‘टैक्स कंसेशन’ दिया था. रोजगार, निर्यात और उत्पादन बढ़ाने के लिए यह ‘टैक्स कंसेशन’ दिया गया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उद्योग जगत को तमाम छूट देने के बावजूद पिछले एक दशक में अच्छे नतीजे नहीं दिखे. उद्योग जगत से इस टैक्स की वसूली करनी चाहिए, ताकि सरकार के पास पैसे आयें. इन पैसों को यदि खेती सेक्टर में निवेश किया जाये, तो अच्छे नतीजे आयेंगे.
खेती में निवेश की जरूरत : राष्ट्रीय स्तर पर खेती में निवेश साल-दर-साल घटता जा रहा है. बजट में खेती के लिए प्रावधान कम हो रहा है. वर्ष 2015-16 में भारत सरकार ने 18,000 करोड़ रुपये दालों के आयात में खर्च किया. कृषि क्षेत्र में भी सरकार का खर्च इतना ही रहा. कृषि में ‘मनरेगा’ से भी कम खर्च हो रहा है. खेती का बजट सालाना कम से कम एक लाख करोड़ रुपये का होना चाहिए और इसमें सालाना करीब 25 फीसदी की बढ़ोतरी होनी चाहिए.
मंडियों का विकास : देशभर में अनाज मंडियों का बुरा हाल है. अभी इनकी संख्या पूरे देश में करीब 7,000 है, जहां किसान अपना अनाज बेचते हैं. देशभर में प्रत्येक पांच किमी के रेडियस में मंडी का होना जरूरी है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इनकी संख्या 42,000 होनी चाहिए. इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के एजेंडा में फोर लेन, सिक्स लेन सड़कों के साथ इन मंडियों के निर्माण पर भी फोकस होना चाहिए.
सरकार खजाने को आम जनता के लिए खोले
परंजॉय गुहा ठकुरता
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
आर्थिक समीक्षा को वित्त मंत्रालय के सलाहकार और कुछ अर्थशास्त्री तैयार करते हैं, जो सरकार को बताते हैं कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए. फिर भी आम बजट के आने से पहले आर्थिक समीक्षा को पढ़ कर इसके आधार पर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि इस बार का बजट कैसा होगा. लेकिन हां, वित्त मंत्रालय के सामने की चुनौतियों की बात करें, तो सबसे बड़ी चुनौती यह है कि आगे आनेवाले दिनों में कैसे हम भारत वर्ष को वैश्विक आर्थिक संकट से बचा पायेंगे. हालांकि वैश्विक आर्थिक संकट का अब तक भारत पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा है, लेकिन अब असर पड़ने की उम्मीद है.
डॉलर के मुकाबले जिस तरह से रुपया कमजोर हो रहा है, उससे ही यह चुनौती खड़ी हुई है, जिसे बजट के जरिये अच्छे से निपटा जा सकता है. रुपया कमजोर होने से हमारे निर्यात पर असर पड़ता है, विदेशी बाजारों में हमारे सामानों का दाम कम हो जाता है और यह स्थिति अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. दुनियाभर के देश आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, जिससे उनकी आयात क्षमता कम हो रही है, इस बात की तरफ आर्थिक समीक्षा में बताया गया है.
अत: हम वित्त मंत्री से उम्मीद करते हैं कि इस स्थिति से उबरने के लिए और भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए वैश्विक चुनौतियों के तहत ही कुछ प्रावधान किये जाने चाहिए. दरअसल, विदेश में जो कुछ भी हो रहा है, भारत उसे होने से नहीं रोक सकता, लेकिन उसका असर जरूर भारत पर पड़ेगा, क्योंकि हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ चुके हैं.
बीते महीनों में जिस तरह से कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट रही, उससे भारत सरकार को बहुत फायदा हुआ और उसने अपने वित्तीय घाटे को सुधारा. भारत 80 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से आयात करता है. जून 2014 में एक बैरल कच्चे तेल का दाम 115 डॉलर था, लेकिन वर्तमान में यह 20-30 डॉलर प्रति बैरल है. बारह साल में यह पहली बार है. तेल के दाम गिरने से जो पैसा बचा, उसका 75 प्रतिशत फायदा भारत सरकार ने अपने पास रख लिया और बाकी 25 प्रतिशत को आम उपभोक्ता के लिए रखा. तो सरकार से उम्मीद है कि अपने खजाने को आम जनता के लिए खोले, क्योंकि उसके पास इस समय बहुत पैसा बचा हुआ है.
पिछले साल में हमने देखा कि हमारे देश के उद्योगपतियों ने बहुत कम निवेश किया. जो निवेश हुआ भी, वह सरकार ने खुद ही किया. इसक अर्थ यह है कि अगर भारत का औद्योगिक क्षेत्र निवेश नहीं करेगा, तो नौकरियों का सृजन नहीं होगा. सरकार अपना वित्तीय घाटा कम कर ले, कुछ पैसे बचा ले, तो इससे तब तक कोई फायदा नहीं हो सकता, जब तक कि आम जनता को रोजगार न मिले. इसके लिए वित्त मंत्री को बेहतर से बेहतर नीति बनानी होगी.
पिछले बजटों के ऐतबार से देखें तो, एक चीज नजर आती है कि पिछली यूपीए सरकार वाले पी चिदांबरम का बजट और मौजूदा एनडीए सरकार वाले अरुण जेटली के बजट में कोई खास अंतर नहीं है. जब तक आम बजट में आम आदमी के लिए बेहतर से बेहतर हितों का ख्याल नहीं रखा जायेगा, तब तक वह बजट अच्छा नहीं माना जायेगा. अब देखना होगा कि अरुण जेटली इस उम्मीद पर कितना खरा उतरते हैं.
बजट से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
पहली बार वर्ष 1860 में ईस्ट-इंडिया कंपनी के जेम्स विलसन ने ब्रिटिश क्राउन को बजट पेश किया था. ‘अंतरिम बजट’ शब्द का इस्तेमाल पहली बार वर्ष 1948-49 में तत्कालीन वित्त मंत्री आर के शणमुखम चेट्टी ने अपने बजट भाषण में किया था. भारत के ‘गणतंत्र’ देश घोषित होने के बाद पहला बजट जॉन मथाई ने 28 फरवरी, 1950 को पेश किया था. वर्ष 1950-51 के बजट में ‘प्लानिंग कमीशन’ के गठन काे मंजूरी दी गयी थी. वर्ष 1973-74 के बजट को ‘ब्लैक बजट’ के रूप में जाना जाता है. इस वर्ष बजट घाटा 550 करोड़ रुपये रहा था.
मोरारजी देसाई एकमात्र ऐसे वित्त मंत्री रहे हैं, जिन्होंने अपने जन्मदिन के मौके पर बजट पेश किया. दरअसल, उनका जन्मदिन 29 फरवरी को होता है और 1964 और 1968 में इसी दिन बजट पेश किया गया था. 1991-92 में ऐसा पहली बार हुआ, जब अंतरिम बजट और फाइनल बजट, दोनों दो विभिन्न राजनीतिक दलों के मंत्रियों ने पेश किया. इस वर्ष यशवंत सिन्हा ने अंतरिम बजट पेश किया और डॉ मनमोहन सिंह ने फाइनल बजट पेश किया. वर्ष 2000 तक शाम 5 बजे बजट पेश किया जाता था, लेकिन उसके बाद इसका समय सुबह 11 बजे कर दिया गया.

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