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क्यों नाराज़ है जाट समुदाय?

सौतिक बिस्वास बीबीसी संवाददाता, दिल्ली पिछले कुछ दिनों में हरियाणा में जाटों के हिंसक प्रदर्शन में कई लोग मारे गए हैं. जाट नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों को 1991 से दिए जा रहे आरक्षण में ख़ुद को शामिल करने की मांग कर रहे हैं. ज़मींदार और तुलनात्मक रूप से सपंन्न किसान जाट राज्य के […]

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पिछले कुछ दिनों में हरियाणा में जाटों के हिंसक प्रदर्शन में कई लोग मारे गए हैं. जाट नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों को 1991 से दिए जा रहे आरक्षण में ख़ुद को शामिल करने की मांग कर रहे हैं.

ज़मींदार और तुलनात्मक रूप से सपंन्न किसान जाट राज्य के वोटरों का 27 फ़ीसदी हैं. राज्य की 90 सदस्यीय विधानसभा में एक तिहाई सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में हैं.

हरियाणा से लगे राजस्थान के स्थानीय जाट भी ग़ुस्से में दिख रहे हैं. उन्होंने अपने पड़ोसी जाटों को समर्थन दिया है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा और राजस्थान समेत नौ राज्यों में जाटों और अन्य पिछड़ी जातियों को मिल रहे आरक्षण को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि जाट पिछड़ी जाति नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्य गुजरात में भी पिछले साल 1.5 करोड़ पटेलों के नए उभरे नेता हार्दिक पटेल ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग करते हुए बड़ा प्रदर्शन किया था. पटेल भी तुलनात्मक रूप से समृद्ध हैं. हार्दिक पटेल अब राष्ट्रदोह के आरोप में सलाखों के पीछे हैं.

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इसी तरह आंध्र प्रदेश में पिछड़ी जाति में आरक्षण के लिए कापू समुदाय का हिंसक प्रदर्शन 13 ज़िलों में फैल गया है. राज्य के पाँच करोड़ की आबादी में कापू समुदाय का हिस्सा 26 फ़ीसदी है.

तीनों समुदाय भारत की जटिल जाति व्यवस्था के तहत अन्य पिछड़ी जातियों की (ओबीसी) श्रेणी में पड़ते हैं. ये लोग पारंपरिक रूप से उच्च जातियों और जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर मौजूद जातियों और आदिवासियों के बीच में कहीं हैं. इनमें ज़्यादातर किसान समुदाय के लोग हैं. दो सर्वेक्षणों के अनुसार ओबीसी भारत की जनसंख्या में 41 से 52 फ़ीसदी तक हैं.

समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता कहते हैं कि अमरीका में नस्ल की तरह भारत में जाति से ‘न तो बचा जा सकता है और न ही इसे धोखा दिया जा सकता है’.

1950 में केंद्र सरकार ने ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित कीं. 1989 में शिक्षा संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में कोटा बढ़ाकर इसे पिछड़ी जातियों को भी दे दिया गया- जो कुल 27 फ़ीसदी तक है.

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डॉक्टर गुप्ता के अनुसार यह बड़े पैमाने पर जाति की राजनीति की शुरुआत थी, "इस तरह घड़ी की सुइयों का लगातार पीछे घूमना शुरू हुआ."

जैसा कि भारत में हमेशा होता है जाति की राजनीति की शुरुआत के मिश्रित परिणाम आए. कई तरह से इसने उच्च जातियों के सामाजिक वर्चस्व को कमज़ोर और लोकतंत्र को मजबूत किया. उदाहरण के लिए संसद में 1996 में विभिन्न दलों (जिनमें से ज़्यादातर क्षेत्रीय थे) के 28 सांसद थे.

डॉक्टर गुप्ता जैसे समाजशास्त्रियों का मानना है कि किसी समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल किए जाने के विवादित और पेचीदा आधार- सामाजिक पिछड़ापन, शैक्षिक पिछड़ापन, आर्थिक स्थितियां- कुल मिलाकर ‘उन्हीं ओबीसी को मजबूत करते हैं जो आर्थिक और शैक्षिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं.’

शुरुआत में जिसे देश के वंचित समुदायों को बराबरी में लाने की क़दम के रूप में उठाया गया था वह भारत के नेताओं के लिए वोट बटोरने का ज़रिया बन गया है. ऐसे में अचरज नहीं कि 3,000 से ज़्यादा जातियां खुद को आधिकारिक रूप से ओबीसी में शामिल मानती हैं.

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अपनी किताब द आइडिया ऑफ़ इंडिया में सुनील खिलनानी लिखते हैं, "चुनाव के समय अब नेता समानता के नाम पर आरक्षित स्थानों की संख्या को बढ़ाने का वादा करते हैं और ताकि उन्हें हाल ही में ‘पिछड़े वर्ग’ में शामिल नई जातियों तक पहुंचाया जा सके. उधर बेहद मज़ेदार ढंग से सामाजिक गतिशीलता की विपरीत दिशा में चलते हुए जातीय समूह आरक्षण के लाभ हासिल करने के लिए खुद को ‘पिछड़ा’ कहने लगे हैं."

लेकिन हाल ही के जातीय दंगों की जड़ें कहीं और भी हैं.

इस विरोध की वजह कृषि से घटती आय और देश भर में निजी क्षेत्र में नौकरियों की कमी भी है. दो साल के सूखे और सिंचाई के साधनों की कमी की वजह से बड़े पैमाने पर कृषि कार्यों में लगे लोग अकुशल श्रम की तलाश में शहरों की ओर गए हैं. भारत में बेरोज़गारों की बढ़ती संख्या का मतलब यह है कि बहुत से समुदायों को शहरों में भी नौकरियां नहीं मिल पा रही.

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ऐसे मुश्किल समय में ऐसे समुदाय, जो प्रोफ़ेसर खिलनानी के अनुसार ‘आधुनिक राजनीति की बेघर दुनिया में हैं’ बहुत बुरी तरह से सुरक्षित सरकारी नौकरी चाहते हैं ताकि उन्हें एक नियमित आय हो सके और दहेज देने वाले समाज में वह सुयोग्य वर बन सकें.

आंदोलन कर रहे एक जाट छात्र, ओमप्रकाश, ने एक अख़बार को कहा, "पिछले साल मैं एक नंबर से सिविल सर्विस परीक्षा में रह गया था. अगर मैं कोटे में होता तो मैं निकल गया होता."

भारत की तुलनात्मक रूप से समृद्ध किसान जातियां कमज़ोर होती माली हालत और राजनीतिक धोखे से जूझ रही हैं और वैश्वीकरण और आधुनिकता का सामना कर रही है. इसके अलावा आप विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जोश के साथ बीजेपी को वोट देने वाली पार्टी के उसके ख़िलाफ़ हो जाने को कैसे स्पष्ट करोगे?

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एक कमज़ोर राज्य से फ़ायदे लेने के लिए कट्टर जातीय पहचान का इस्तेमाल किया जाता है जिसे नेता भी हवा देते हैं. इससे वह जाति मजबूत ही होगी जिसे ख़त्म करने के इरादे से आरक्षण शुरू किया गया था.

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