निर्माण क्षेत्र के लिए रेत की देश में कोई कमी नहीं है. लेकिन सभी को अच्छी वाली रेत चाहिए; मोटे दाने वाली! उसकी कीमत ज्यादा है. इसीलिए माफिया नदी के पेट में घुसकर रेत निकाल लाना चाहता है. यूं भी न्यायाधिकरण ने रेत खनन पर रोक नहीं लगाई है; सिर्फ अवैध खनन पर रोक लगाई है. अभी देश में वैध से कई गुना ज्यादा अवैध खनन होता है. क्या इसे रोकना गलत है? सही बात यह है कि यदि आदेश की पालना के जरूरी अन्य उपाय नहीं किए गए तो, न्यायाधिकरण के ताजा आदेश का हर्श बुरा ही होगा.
चांदी सी चमकती रेत के कणों में नदी की सांसें बसती है. यदि रेत न हो, तो पीछे से आया पानी धरती में समाने की बजाय आगे बढ. जाए. यह रेत ही तो है, जो समुद्र और नदी के बीच संतुलन बनाती है. यह रेत ही है, जिसके बूते हम दावे से कहते हैं कि अकेला गंगा बेसिन आधे भारत की खेती को जिलाता है. इसी रेत में समाई नमी के बूते हर गर्मी हम तरबूज-खरबूज की असल मिठास का मजा ले पाते हैं.
यह रेत ही है, जो आज भी आधी दिल्ली के पीने का पानी अकेले संजोकर रखने की क्षमता रखती है. यह राजस्थान और गुजरात की रेत ही है, जो हर साल समुद्र से उठे बादलों को बुलाकर उत्तर भारत में खींच लाती है. सच यह है कि यदि नदी में रेत न हो, तो न मालूम कितने लाख लोग हर गर्मी बेपानी मरें. इसी रेत में जाने कितने जीव बसेरा पाते हैं. कितनी प्रजातियों का अस्तित्व रेत पर ही टिका है. इसी रेत में समाई ऊर्जा से कछुओं के अंडों में बंद जिंदगानियों को कैद से बाहर निकलने की ऊर्जा मिलती है. कहना न होगा कि यदि रेत न हो, तो नदी ही नहीं, नदी किनारे रहने वालों का भी जीना मुहाल हो जाए; नदी ही नहीं, हम खुद भी गर्मी तो दूर की बात है.. सर्दी आने से पहले ही रीत जाएं. इन तमाम खूबियों के बावजूद आखिर कोई तो बात है कि हमें नदी, अपनी और रेत की फिक्र कम है और तथाकथित विकास और विकास माफियाओं की ज्यादा.
रेत से रीतती नदी के प्रति बेफिक्र की वजह
‘‘जो रेत अंगुलियों के पोरों से फिसल जाती है, बंद मुट्ठी भी जिसे रोक नहीं पाती, ट्रकों-ट्रॅालियों में भरकर वही रेत जेब को नोटों से भर देती है’’ – बस! यही वह बात है, जिस कारण हम रेत से रीतती नदियां देखकर भी बेफिक्र हैं; यही वजह है कि रेत लाने वाली नदी को हम रेत के साथ नहीं रहने देते. यही बात राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण द्वारा पूरे देश में नदी तट व तलहटी से बिना लाइसेंस व पर्यावरणीय मंजूरी के रेत खनन पर लगाई ताज़ा रोक के बावजूद रेत खनन के अवैध कारोबार पर रोक को लेकर आश्वस्त नहीं करती. आदेश में भले ही राज्यों के पुलिस अधिकारियों को आदेश की पालना सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया हो, लेकिन बावजूद इसके आश्वस्त न होने का कारण यही है. अनुभव खुद इसका प्रमाण है.
आदेश कई-पालना पर प्रश्न
गौरतलब है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की पीठ से निकला यह आदेश भले ही नया हो, लेकिन इससे पहले भी रेत के अवैध खनन पर रोक के आदेश कई हैं. वर्ष 2001 से जनवरी, 2013 के बीच केरल, हरियाणा, भारतीय खनन ब्यूरो, वन और पर्यावरण मंत्रालय और स्वयं देश की सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इस बाबत कई महत्वपूर्ण आदेश/अधिसूचना आए. इस क्र म में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का आदेश सातवाँ है. हकीकत यह है कि तमाम आदेशों के बावजूद खुलेआम रेत का अवैध खनन जारी है. यह एक ऐसा खुला पत्रा है, जिससे सभी वाकिफ हैं; रेत माफिया से लेकर आदेश देने वाली अदालतें व रोकने की जवाबदेही वाले अफ़सर तक. समझना जरूरी है कि जानकारी के बावजूद अवैध खनन रु कता क्यों नहीं?
खुद एक प्रश्न हैं खनन माफिया
दरअसल अकेले रेत नहीं, समूचा खनन उद्योग ही अवैध के लोभ पर चल रहा है. फिर पर्यावरण संरक्षण उन्हें व्यावहारिक कैसे लग सकता है? इनकी गहरी जड.ों का अंदाजा लगाइए! अकेले उत्तर प्रदेश में खनन गिरोहों की संख्या 1998 में ही 744 थी. कारोबार तब ही 10 हजार करोड. का आंकड.ा पार कर चुका था, तो अब क्या हाल होगा? बिहार में फास्ट कोर्ट के रास्ते जेल पहुंचे एक लाख अपराधियों में खनन माफिया और उनकी सेवा में रत अपराधियों की तादाद कम नहीं है. बिहार, छत्तीसगढ., ओड.िशा, उत्तराखंड, बुंदेलखंड और झारखंड खनन के नामी खंड हैं. राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में भी खनन का खेल व खेल करने वाले बढे. हैं. आपदा से बढ.ी तबाही में इनका भी योगदान रहा है. नए राज्यों के गठन का एक सच यह भी है. खनन माफिया अवैध को वैध बनाने के लिए विधानसभा में सीट हथियाते हैं; पार्टियों में पद बुक कराते हैं; साहबों को सुविधा मुहैया कराते हैं; मीडिया में पैठ बनाते हैं; खुद मीडिया हाउस बनाते हैं. तबादला और निलंबन तो मामूली बात है; जरूरत पडे. तो हत्या तक कराते हैं.
सवाल कितने व्यावहारिक
इस आदेश का एक पहलू इसकी व्यावहारिकता पर उठ रहे सवाल हैं. कहा जा रहा है कि रेत, निर्माण क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण सामग्री है. इस आदेश के आने से रेत की कालाबाजारी बढे.गी; कीमतें बढे.ंगी; निर्माण महँगा हो जायेगा; निर्माण में रुकावट आयेगी; यह ठीक नहीं है, पर्यावरण जरूरी है, तो विकास भी जरूरी है; विकास को बाधित नहीं करना चाहिए, वगैरह, वगैरह. हां, यह सच है कि एक बारगी ऐसा होगा, लेकिन उसकी वजह यह आदेश नहीं, इस आदेश की आड. में किया गया खेल होगा. अभी ही ईंट, सीमेंट, रेत, मोरम जैसी जरूरी निर्माण सामग्री के आपूर्तिकर्ता जब चाहे बढ.ा-घटा लेते हैं. हो सकता है कि जिस तरह पानी का नियमन कर जलापूर्ति कंपनियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, उसी तरह खनन के नियमन से भी कंपनियों को लाभ पहुंचे. लेकिन क्या आपको कंपनियों के जायज़ लाभ से गुरेज है? मुझे तो नहीं है. गुरेज है, तो प्रकृति और प्रकृति के जीवों की हकदारी को मारकर नाजायज लाभ कमाने से. यह आदेश यही सुनिश्चित करने की कोशिश है. भूलें नहीं कि नदी की रेत का महत्व सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, कृषि, पेयजल, उद्योग और हमारी आजीविका में भी है.
जरूरी उपाय
हकीकत यह है कि निर्माण क्षेत्र के लिए रेत की देश में कोई कमी नहीं है. लेकिन सभी को अच्छी वाली रेत चाहिए; मोटे दाने वाली! उसकी कीमत ज्यादा है. इसीलिए माफिया नदी के पेट में घुसकर रेत निकाल लाना चाहता है. यूं भी न्यायाधिकरण ने रेत खनन पर रोक नहीं लगाई है; सिर्फ अवैध खनन पर रोक लगाई है. अभी देश में वैध से कई गुना ज्यादा अवैध खनन होता है. क्या इसे रोकना गलत है? सही बात यह है कि यदि आदेश की पालना के जरूरी अन्य उपाय नहीं किए गए तो, न्यायाधिकरण के ताज़ा आदेश का हर्श बुरा ही होगा. इसके साथ-साथ कालाबाजारी और कीमत की मनमानी बढ.ोतरी रोकने के लिए सरकारों को कुछ एहतियाती कदम ज़रूर उठाने होंगे. लोहे की तरह रेत जैसी अन्य खनन सामग्रियों को भी सरकारी तौर पर घोषित दर के दायरे में लाना होगा. राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के आदेश की पालना करने की जिला से लेकर स्थानीय निकाय व ग्रामसभा तक बहुस्तरीय नियमन व निगरानी व्यवस्था बनानी होगी. नदी, पुल, बैराज से कब, कहां, कितनी मात्रा और कितनी दूरी पर खनन हो; इसके लिए नदीवार मानक तय करने होंगे. तटों की सुरक्षा और नदी तट पर रेत खनन के नियमन संबंधी केरल संलग्नक ऐसे कई उपयोगी सुझाव सुझाता है. यह संलग्नक उन तमाम सवालों के जवाब भी देता है, जो रेत खनन के नियमन की व्यावहारिकता को लेकर उठाए जा रहे हैं. यदि हम चाहते हैं कि नदी, रेत, हरियाली, हम और विकास. साथ-साथ जिंदा रहें, तो आइए! नदी के रेत के आदेश पर हम खुद किनारा बनकर हो जाए. दुबई आज भी अपने टापू को गंगा की रेती से बनाने का शौक रखता है. हम गंगा की रेती के संरक्षण को अपना शौक बनाएं. आदेश की पालना खुद-ब-खुद हो जाएगी.
(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार)निर्माण क्षेत्र के लिए रेत की देश में कोई कमी नहीं है. लेकिन सभी को अच्छी वाली रेत चाहिए; मोटे दाने वाली! उसकी कीमत ज्यादा है. इसीलिए माफिया नदी के पेट में घुसकर रेत निकाल लाना चाहता है. यूं भी न्यायाधिकरण ने रेत खनन पर रोक नहीं लगाई है; सिर्फ अवैध खनन पर रोक लगाई है. अभी देश में वैध से कई गुना ज्यादा अवैध खनन होता है. क्या इसे रोकना गलत है? सही बात यह है कि यदि आदेश की पालना के जरूरी अन्य उपाय नहीं किए गए तो, न्यायाधिकरण के ताजा आदेश का हर्श बुरा ही होगा. चांदी सी चमकती रेत के कणों में नदी की सांसें बसती है. यदि रेत न हो, तो पीछे से आया पानी धरती में समाने की बजाय आगे बढ. जाए. यह रेत ही तो है, जो समुद्र और नदी के बीच संतुलन बनाती है. यह रेत ही है, जिसके बूते हम दावे से कहते हैं कि अकेला गंगा बेसिन आधे भारत की खेती को जिलाता है. इसी रेत में समाई नमी के बूते हर गर्मी हम तरबूज-खरबूज की असल मिठास का मजा ले पाते हैं. यह रेत ही है, जो आज भी आधी दिल्ली के पीने का पानी अकेले संजोकर रखने की क्षमता रखती है. यह राजस्थान और गुजरात की रेत ही है, जो हर साल समुद्र से उठे बादलों को बुलाकर उत्तर भारत में खींच लाती है. सच यह है कि यदि नदी में रेत न हो, तो न मालूम कितने लाख लोग हर गर्मी बेपानी मरें. इसी रेत में जाने कितने जीव बसेरा पाते हैं. कितनी प्रजातियों का अस्तित्व रेत पर ही टिका है. इसी रेत में समाई ऊर्जा से कछुओं के अंडों में बंद जिंदगानियों को कैद से बाहर निकलने की ऊर्जा मिलती है. कहना न होगा कि यदि रेत न हो, तो नदी ही नहीं, नदी किनारे रहने वालों का भी जीना मुहाल हो जाए; नदी ही नहीं, हम खुद भी गर्मी तो दूर की बात है.. सर्दी आने से पहले ही रीत जाएं. इन तमाम खूबियों के बावजूद आखिर कोई तो बात है कि हमें नदी, अपनी और रेत की फिक्र कम है और तथाकथित विकास और विकास माफियाओं की ज्यादा.
रेत से रीतती नदी के प्रति बेफिक्र की वजह
‘‘जो रेत अंगुलियों के पोरों से फिसल जाती है, बंद मुट्ठी भी जिसे रोक नहीं पाती, ट्रकों-ट्रॅालियों में भरकर वही रेत जेब को नोटों से भर देती है’’ – बस! यही वह बात है, जिस कारण हम रेत से रीतती नदियां देखकर भी बेफिक्र हैं; यही वजह है कि रेत लाने वाली नदी को हम रेत के साथ नहीं रहने देते. यही बात राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण द्वारा पूरे देश में नदी तट व तलहटी से बिना लाइसेंस व पर्यावरणीय मंजूरी के रेत खनन पर लगाई ताज़ा रोक के बावजूद रेत खनन के अवैध कारोबार पर रोक को लेकर आश्वस्त नहीं करती. आदेश में भले ही राज्यों के पुलिस अधिकारियों को आदेश की पालना सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया हो, लेकिन बावजूद इसके आश्वस्त न होने का कारण यही है. अनुभव खुद इसका प्रमाण है.
आदेश कई-पालना पर प्रश्न
ग.ौरतलब है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की पीठ से निकला यह आदेश भले ही नया हो, लेकिन इससे पहले भी रेत के अवैध खनन पर रोक के आदेश कई हैं. वर्ष 2001 से जनवरी, 2013 के बीच केरल, हरियाणा, भारतीय खनन ब्यूरो, वन और पर्यावरण मंत्रालय और स्वयं देश की सर्वोच्च न्यायालय की ओर से इस बाबत कई महत्वपूर्ण आदेश/अधिसूचना आए. इस क्र म में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का आदेश सातवाँ है. हकीकत यह है कि तमाम आदेशों के बावजूद खुलेआम रेत का अवैध खनन जारी है. यह एक ऐसा खुला पत्रा है, जिससे सभी वाकिफ हैं; रेत माफिया से लेकर आदेश देने वाली अदालतें व रोकने की जवाबदेही वाले अफ़सर तक. समझना जरूरी है कि जानकारी के बावजूद अवैध खनन रु कता क्यों नहीं?
खुद एक प्रश्न हैं खनन माफिया
दरअसल अकेले रेत नहीं, समूचा खनन उद्योग ही अवैध के लोभ पर चल रहा है. फिर पर्यावरण संरक्षण उन्हें व्यावहारिक कैसे लग सकता है? इनकी गहरी जड.ों का अंदाजा लगाइए! अकेले उत्तर प्रदेश में खनन गिरोहों की संख्या 1998 में ही 744 थी. कारोबार तब ही 10 हजार करोड. का आंकड.ा पार कर चुका था, तो अब क्या हाल होगा? बिहार में फास्ट कोर्ट के रास्ते जेल पहुंचे एक लाख अपराधियों में खनन माफिया और उनकी सेवा में रत अपराधियों की तादाद कम नहीं है. बिहार, छत्तीसगढ., ओड.िशा, उत्तराखंड, बुंदेलखंड और झारखंड खनन के नामी खंड हैं. राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में भी खनन का खेल व खेल करने वाले बढे. हैं. आपदा से बढ.ी तबाही में इनका भी योगदान रहा है. नए राज्यों के गठन का एक सच यह भी है. खनन माफिया अवैध को वैध बनाने के लिए विधानसभा में सीट हथियाते हैं; पार्टियों में पद बुक कराते हैं; साहबों को सुविधा मुहैया कराते हैं; मीडिया में पैठ बनाते हैं; खुद मीडिया हाउस बनाते हैं. तबादला और निलंबन तो मामूली बात है; जरूरत पडे. तो हत्या तक कराते हैं.
सवाल कितने व्यावहारिक
इस आदेश का एक पहलू इसकी व्यावहारिकता पर उठ रहे सवाल हैं. कहा जा रहा है कि रेत, निर्माण क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण सामग्री है. इस आदेश के आने से रेत की कालाबाजारी बढे.गी; कीमतें बढे.ंगी; निर्माण महँगा हो जायेगा; निर्माण में रुकावट आयेगी; यह ठीक नहीं है, पर्यावरण जरूरी है, तो विकास भी जरूरी है; विकास को बाधित नहीं करना चाहिए, वगैरह, वगैरह. हां, यह सच है कि एक बारगी ऐसा होगा, लेकिन उसकी वजह यह आदेश नहीं, इस आदेश की आड. में किया गया खेल होगा. अभी ही ईंट, सीमेंट, रेत, मोरम जैसी जरूरी निर्माण सामग्री के आपूर्तिकर्ता जब चाहे बढ.ा-घटा लेते हैं. हो सकता है कि जिस तरह पानी का नियमन कर जलापूर्ति कंपनियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, उसी तरह खनन के नियमन से भी कंपनियों को लाभ पहुंचे. लेकिन क्या आपको कंपनियों के जायज़ लाभ से गुरेज है? मुझे तो नहीं है. गुरेज है, तो प्रकृति और प्रकृति के जीवों की हकदारी को मारकर नाजायज लाभ कमाने से. यह आदेश यही सुनिश्चित करने की कोशिश है. भूलें नहीं कि नदी की रेत का महत्व सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, कृषि, पेयजल, उद्योग और हमारी आजीविका में भी है.
जरूरी उपाय
हकीकत यह है कि निर्माण क्षेत्र के लिए रेत की देश में कोई कमी नहीं है. लेकिन सभी को अच्छी वाली रेत चाहिए; मोटे दाने वाली! उसकी कीमत ज्यादा है. इसीलिए माफिया नदी के पेट में घुसकर रेत निकाल लाना चाहता है. यूं भी न्यायाधिकरण ने रेत खनन पर रोक नहीं लगाई है; सिर्फ अवैध खनन पर रोक लगाई है. अभी देश में वैध से कई गुना ज्यादा अवैध खनन होता है. क्या इसे रोकना गलत है? सही बात यह है कि यदि आदेश की पालना के जरूरी अन्य उपाय नहीं किए गए तो, न्यायाधिकरण के ताज़ा आदेश का हर्श बुरा ही होगा. इसके साथ-साथ कालाबाजारी और कीमत की मनमानी बढ.ोतरी रोकने के लिए सरकारों को कुछ एहतियाती कदम ज़रूर उठाने होंगे. लोहे की तरह रेत जैसी अन्य खनन सामग्रियों को भी सरकारी तौर पर घोषित दर के दायरे में लाना होगा. राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के आदेश की पालना करने की जिला से लेकर स्थानीय निकाय व ग्रामसभा तक बहुस्तरीय नियमन व निगरानी व्यवस्था बनानी होगी. नदी, पुल, बैराज से कब, कहां, कितनी मात्रा और कितनी दूरी पर खनन हो; इसके लिए नदीवार मानक तय करने होंगे. तटों की सुरक्षा और नदी तट पर रेत खनन के नियमन संबंधी केरल संलग्नक ऐसे कई उपयोगी सुझाव सुझाता है. यह संलग्नक उन तमाम सवालों के जवाब भी देता है, जो रेत खनन के नियमन की व्यावहारिकता को लेकर उठाए जा रहे हैं. यदि हम चाहते हैं कि नदी, रेत, हरियाली, हम और विकास. साथ-साथ जिंदा रहें, तो आइए! नदी के रेत के आदेश पर हम खुद किनारा बनकर हो जाए. दुबई आज भी अपने टापू को गंगा की रेती से बनाने का शौक रखता है. हम गंगा की रेती के संरक्षण को अपना शौक बनाएं. आदेश की पालना खुद-ब-खुद हो जाएगी.
(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार)