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बालू के बवंडर से बदला फैसला

बालू ही नहीं डेढ. दर्जन से अधिक ऐसे लघु खनिज हैं, जिस पर सीधा हक ग्रामसभा व पंचायत का बनता है. अगर कोई सरकार बड़ी कंपनियों के माध्यम से इसकी नीलामी कर इसके निजीकरण की दिशा में कदम बढ़ती है, तो यह कोशिश ही संविधान की मूल भावना पर चोट है. अगर राजस्व संग्रह, कानून […]

बालू ही नहीं डेढ. दर्जन से अधिक ऐसे लघु खनिज हैं, जिस पर सीधा हक ग्रामसभा व पंचायत का बनता है. अगर कोई सरकार बड़ी कंपनियों के माध्यम से इसकी नीलामी कर इसके निजीकरण की दिशा में कदम बढ़ती है, तो यह कोशिश ही संविधान की मूल भावना पर चोट है. अगर राजस्व संग्रह, कानून व्यवस्था और पर्यावरण अनुमति का सवाल है, तो यह राज्य सरकार का काम है और उसे ही इसके लिए एक मैकेनिज्म (तंत्र) बनाना होगा. दर्जन से अधिक ऐसे लघु खनिज हैं,

जिस पर सीधा हक ग्रामसभा व पंचायत का बनता है. अगर कोई सरकार बड़ी कंपनियों के माध्यम से इसकी नीलामी कर इसके निजीकरण की दिशा में कदम बढ़ती है, तो यह कोशिश ही संविधान की मूल भावना पर चोट है. अगर राजस्व संग्रह, कानून व्यवस्था और पर्यावरण अनुमति का सवाल है, तो यह राज्य सरकार का काम है और उसे ही इसके लिए एक मैकेनिज्म (तंत्र) बनाना होगा. एक रिपोर्ट :

सरायकेला-खरसावां जिले के चांडिल इलाके के चौका गांव के ग्राम प्रधान करम मार्डी राज्य सरकार द्वारा बालू घाटों का ठेका बाहर की बड़ी कंपनियों को देने के फैसले से आहत थे. अब जब झारखंड सरकार ने 11 दिसंबर को चौतरफा दबाव के बाद अपने उस फैसले से हाथ खींच लिया है, तब भी वे बहुत खुश नहीं हैं. उनकी सधी हुईप्रतिक्रिया है : फैसले से संतुष्ट हूं, लेकिन देखना होगा कि सरकार पंचायत व ग्रामसभा को इसकी जिम्मेवारी देने के लिए कैसी नियमावली बनाती है. कहते हैं : बालू पर ग्रामसभा का ही हक होना चाहिए. यह उसी की संपत्ति है और पेसा इलाके में तो यह फैसला और कड़ाई से प्रभावी होना चाहिए. वे सरकार के बाहरी कंपनियों को बालू ठेका देने के फैसले को गैर जिम्मेदाराना बताते हैं. उनके इलाके से स्वर्णरेखा नदी गुजरती है और उस नदी से जगह-जगह बालू का उठाव किया जाता है. इस इलाके में कुछेक जगहों पर ग्रामसभा ने बालू का बेहतर प्रबंधन भी किया व उससे प्राप्त हुए राजस्व का गांव के विकास में बेहतर उपयोग किया. करम मार्डी पेसा कानून को भली-भांति जानते समझते हैं. वे कहते हैं : बालू घाट के अलावा सरकारी तालाब व हाट-बाजार का प्रबंधन ग्रामसभा से ही कराया जाना चाहिए.

क्यों था बालू पर टकराव?

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अक्तूबर महीने में बालू का पट्टा मुंबई कंपनियों को देना का फैसला लिया था. इसके पीछे उनका तर्क था कि इससे 400 करोड. का राजस्व राज्य को मिलेगा. जिसका 80 प्रतिशत हिस्सा पंचायतों को जायेगा. उन्होंने स्थापना दिवस के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में यह भी तर्क दिया कि ये कंपनियां जब बालू खनन करेंगी तो उससे स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलेगा, जिससे गांव की बेरोजगारी कम होगी. मुख्यमंत्री के इस तर्क और फैसले से उनकी ही सरकार के दो धडे. कांग्रेस व राजद ने असहमति जतायी और सरकार को फैसला वापस लेने या फिर सर्मथन वापसी का अल्टीमेटम दे दिया. बालू उठाव करने वाले ट्रक के संगठन ने भी विरोध किया और अंत में फैसला बदला.

बालू पर बड़ी कंपनियों की नजर क्यों?

बड़ी कंपनियों को बालू पट्टे की कोशिश उसके निजीकरण के दिशा में बढ.ाया गया पहला कदम था. जब बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां बालू पट्टा लेंगी तो आने वाले समय में इसके ब्रांड तैयार कर इसकी बिक्री की जायेगी. निजीकरण की इस कोशिश से मिलने वाले राजस्व में भले ही पंचायत को 80 प्रतिशत हिस्सा देने का भरोसा क्यों नहीं दिलाया जाये, लेकिन यह तय है कि इससे कंपनियां कई गुणा अधिक मुनाफा कमायेंगी. बालू की वैश्‍विक व राष्ट्रीय परिदृश्य में मांग बढ.ने के साथ इसकी किल्लत भी बढ. रही है. तमिलनाडु में भी बालू की किल्लत है. दो-चार दिन पूर्व ही चेत्रई के बिल्डर्स एसोसिएशन ने एक बयान के माध्यम से कहा है कि बालू की किल्लत के कारण वहां दस हजार करोड. रुपये का कंस्ट्रक्शन कार्य प्रभावित हो रहा है. वहां भी बालू उठाव रुक जाने के कारण यह परेशानी उत्पत्र हुई. पिछले साल आंध्रप्रदेश में भी कुछ समय के लिए बालू उठाव पर तकनीकी कारणों से लगी रोक के कारण एक लाख करोड. रुपये के कंस्ट्रक्शन कार्य में अड.चनें आयी थीं. दरअसल, ऐसी दिक्कतें अकेले तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश में ही नहीं आतीं. कई राज्य कभी न कभी इस तरह की परेशानियों से गुजरते हैं. बालू की बढ.ती मांग व उत्पत्र किल्लत के कारण बड.ी कंपनियों को इसमें उज्ज्वल व्यावसायिक भविष्य नजर आ रहा है. केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों के अनुसार, देश में खनिजों के कुल मोल में लघु खनिजों का मोल लगभग नौ प्रतिशत है. इसमें बालू का बड़ा हिस्सा है. ऐसे में बडे. खनिजों की तरह ही अब बालू के कारोबार में भी बड़ी कंपनियों को बेहतर भविष्य नजर आ रहा है. अब तो कंपनियां सीमेंट व बालू का मिक्सचर तैयार करने की ओर कदम बढ़ा चुकी हैं.

बालू पर ग्रामसभा का ही अधिकार क्यों?

किसी भी गांव के संसाधन व संपत्ति पर सबसे पहला हक वहां की ग्रामसभा का है. ग्रामसभा के सदस्य गांव विशेष के सभी स्थानीय वयस्क (मतदाता) होते हैं. किसी भी योजना की स्वीकृति या वहां के ग्राम क्षेत्र के प्राकृतिक व अन्य प्रकार के संसाधनों के दोहन से पहले राज्य सरकार या केंद्र सरकार को उस ग्रामसभा की अनुमति लेना अनिवार्य है. औद्योगिक परियोजनाओं व खनन के लिए भी ग्रामसभा की अनुमति लेना अनिवार्य है. अदालत के ऐसे अनेकों फैसले व निर्देश रहे हैं, जिसने ग्रामसभा की सर्वोता साबित की है और सरकारों को अपनी मनर्मजी करने के फैसले से हाथ खींचने के लिए विवश किया है. हाल का चर्चित उदाहरण ओड.िशा का है. ओड़िशा में नियमगिरि पर्वत पर स्थित गांवों की ग्रामसभा ने राज्य सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसके तहत वेदांता समूह को वहां खनन करना था. इस कारण सरकार को भी अपना यह फैसला बदलना पड़ा.

झारखंड जैसे राज्य जहां का लगभग आधा इलाके पेसा कानून के तहत आते हैं, वहां ग्रामसभा की अनुमति लेना और महत्वपूर्ण हो जाता है. पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ग्रामसभा को समुचित स्तर पर पंचायतों की सिफारिशों को अनुसूचित क्षेत्रों में गौण खनिजों के लिए पूर्वेक्षण अनुज्ञप्ति या खनन पट्टा प्रदान करने के पूर्व आज्ञापरक बनाया जायेगा. यानी ग्रामसभा का यह यह हक होगा कि वह लघु खनन (मोरम-मिट्टी, पत्थर, चूना पत्थर) के उठाव की अनुमति दे.

बालू या अन्य लघु खनिज पर ग्रामसभा का हक होना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि बड.ी कंपनियां भले ही पर्यावरण अनुमति लेकर खनन की बात करें, लेकिन यह बार-बार देखने में आया है कि उनके द्वारा किये गये खनन कार्य में पर्यावरण मानकों का ख्याल नहीं रखा जाता है. झारखंड में ऐसी दर्जनों खदान हैं, जिन्हें खनन के बाद पर्यावरण शर्त के अनुरूप पूर्व के स्वरूप में नहीं लाया गया. लघु खनन के संदर्भ में भी यही व्यवस्था है कि जहां से खनन हो रहा है, वहां का भौगोलिक व पर्यावरणीय संतुलन को कायम रखने के लिए भी दूसरे चरण में कार्य हो. अगर ग्रामसभा खनन कार्य की निगरानी रखेगी तो वह बेहतर ढंग से आकलन कर सकेंगी कि खनन से उनके गांव को, वहां से गुजरने वाली नदी को कोई बड.ा नुकसान तो नहीं हो रहा है.राहुल सिंह

सरायकेला-खरसावां जिले के चांडिल इलाके के चौका गांव के ग्राम प्रधान करम मार्डी राज्य सरकार द्वारा बालू घाटों का ठेका बाहर की बड.ी कंपनियों को देने के फैसले से आहत थे. अब जब झारखंड सरकार ने 11 दिसंबर को चौतरफा दबाव के बाद अपने उस फैसले से हाथ खींच लिया है, तब भी वे बहुत खुश नहीं हैं. उनकी सधी हुईप्रतिक्रिया है : फैसले से संतुष्ट हूं, लेकिन देखना होगा कि सरकार पंचायत व ग्रामसभा को इसकी जिम्मेवारी देने के लिए कैसी नियमावली बनाती है. कहते हैं : बालू पर ग्रामसभा का ही हक होना चाहिए. यह उसी की संपत्ति है और पेसा इलाके में तो यह फैसला और कड.ाई से प्रभावी होना चाहिए. वे सरकार के बाहरी कंपनियों को बालू ठेका देने के फैसले को गैर जिम्मेदाराना बताते हैं. उनके इलाके से स्वर्णरेखा नदी गुजरती है और उस नदी से जगह-जगह बालू का उठाव किया जाता है. इस इलाके में कुछेक जगहों पर ग्रामसभा ने बालू का बेहतर प्रबंधन भी किया व उससे प्राप्त हुए राजस्व का गांव के विकास में बेहतर उपयोग किया. करम मार्डी पेसा कानून को भली-भांति जानते समझते हैं. वे कहते हैं : बालू घाट के अलावा सरकारी तालाब व हाट-बाजार का प्रबंधन ग्रामसभा से ही कराया जाना चाहिए.

क्यों था बालू पर टकराव?

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अक्तूबर महीने में बालू का पट्टा मुंबई कंपनियों को देना का फैसला लिया था. इसके पीछे उनका तर्क था कि इससे 400 करोड. का राजस्व राज्य को मिलेगा. जिसका 80 प्रतिशत हिस्सा पंचायतों को जायेगा. उन्होंने स्थापना दिवस के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में यह भी तर्क दिया कि ये कंपनियां जब बालू खनन करेंगी तो उससे स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलेगा, जिससे गांव की बेरोजगारी कम होगी. मुख्यमंत्री के इस तर्क और फैसले से उनकी ही सरकार के दो धडे. कांग्रेस व राजद ने असहमति जतायी और सरकार को फैसला वापस लेने या फिर सर्मथन वापसी का अल्टीमेटम दे दिया. बालू उठाव करने वाले ट्रक के संगठन ने भी विरोध किया और अंत में फैसला बदला.

बालू पर बड़ी कंपनियों की नजर क्यों?

बड़ी कंपनियों को बालू पट्टे की कोशिश उसके निजीकरण के दिशा में बढ.ाया गया पहला कदम था. जब बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां बालू पट्टा लेंगी तो आने वाले समय में इसके ब्रांड तैयार कर इसकी बिक्री की जायेगी. निजीकरण की इस कोशिश से मिलने वाले राजस्व में भले ही पंचायत को 80 प्रतिशत हिस्सा देने का भरोसा क्यों नहीं दिलाया जाये, लेकिन यह तय है कि इससे कंपनियां कई गुणा अधिक मुनाफा कमायेंगी. बालू की वैश्‍विक व राष्ट्रीय परिदृश्य में मांग बढ.ने के साथ इसकी किल्लत भी बढ. रही है. तमिलनाडु में भी बालू की किल्लत है. दो-चार दिन पूर्व ही चेत्रई के बिल्डर्स एसोसिएशन ने एक बयान के माध्यम से कहा है कि बालू की किल्लत के कारण वहां दस हजार करोड. रुपये का कंस्ट्रक्शन कार्य प्रभावित हो रहा है. वहां भी बालू उठाव रुक जाने के कारण यह परेशानी उत्पत्र हुई. पिछले साल आंध्रप्रदेश में भी कुछ समय के लिए बालू उठाव पर तकनीकी कारणों से लगी रोक के कारण एक लाख करोड. रुपये के कंस्ट्रक्शन कार्य में अड.चनें आयी थीं. दरअसल, ऐसी दिक्कतें अकेले तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश में ही नहीं आतीं. कई राज्य कभी न कभी इस तरह की परेशानियों से गुजरते हैं. बालू की बढ.ती मांग व उत्पत्र किल्लत के कारण बड.ी कंपनियों को इसमें उज्ज्वल व्यावसायिक भविष्य नजर आ रहा है. केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के दस्तावेजों के अनुसार, देश में खनिजों के कुल मोल में लघु खनिजों का मोल लगभग नौ प्रतिशत है. इसमें बालू का बड.ा हिस्सा है. ऐसे में बडे. खनिजों की तरह ही अब बालू के कारोबार में भी बड.ी कंपनियों को बेहतर भविष्य नजर आ रहा है. अब तो कंपनियां सीमेंट व बालू का मिक्सचर तैयार करने की ओर कदम बढ़ा चुकी हैं.

बालू पर ग्रामसभा का ही अधिकार क्यों?

किसी भी गांव के संसाधन व संपत्ति पर सबसे पहला हक वहां की ग्रामसभा का है. ग्रामसभा के सदस्य गांव विशेष के सभी स्थानीय वयस्क (मतदाता) होते हैं. किसी भी योजना की स्वीकृति या वहां के ग्राम क्षेत्र के प्राकृतिक व अन्य प्रकार के संसाधनों के दोहन से पहले राज्य सरकार या केंद्र सरकार को उस ग्रामसभा की अनुमति लेना अनिवार्य है. औद्योगिक परियोजनाओं व खनन के लिए भी ग्रामसभा की अनुमति लेना अनिवार्य है. अदालत के ऐसे अनेकों फैसले व निर्देश रहे हैं, जिसने ग्रामसभा की सर्वोता साबित की है और सरकारों को अपनी मनर्मजी करने के फैसले से हाथ खींचने के लिए विवश किया है. हाल का चर्चित उदाहरण ओड.िशा का है. ओडिशा में नियमगिरि पर्वत पर स्थित गांवों की ग्रामसभा ने राज्य सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसके तहत वेदांता समूह को वहां खनन करना था. इस कारण सरकार को भी अपना यह फैसला बदलना पड़ा

झारखंड जैसे राज्य जहां का लगभग आधा इलाके पेसा कानून के तहत आते हैं, वहां ग्रामसभा की अनुमति लेना और महत्वपूर्ण हो जाता है. पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ग्रामसभा को समुचित स्तर पर पंचायतों की सिफारिशों को अनुसूचित क्षेत्रों में गौण खनिजों के लिए पूर्वेक्षण अनुज्ञप्ति या खनन पट्टा प्रदान करने के पूर्व आज्ञापरक बनाया जायेगा. यानी ग्रामसभा का यह यह हक होगा कि वह लघु खनन (मोरम-मिट्टी, पत्थर, चूना पत्थर) के उठाव की अनुमति दे.

बालू या अन्य लघु खनिज पर ग्रामसभा का हक होना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि बड़ी कंपनियां भले ही पर्यावरण अनुमति लेकर खनन की बात करें, लेकिन यह बार-बार देखने में आया है कि उनके द्वारा किये गये खनन कार्य में पर्यावरण मानकों का ख्याल नहीं रखा जाता है. झारखंड में ऐसी दर्जनों खदान हैं, जिन्हें खनन के बाद पर्यावरण शर्त के अनुरूप पूर्व के स्वरूप में नहीं लाया गया. लघु खनन के संदर्भ में भी यही व्यवस्था है कि जहां से खनन हो रहा है, वहां का भौगोलिक व पर्यावरणीय संतुलन को कायम रखने के लिए भी दूसरे चरण में कार्य हो. अगर ग्रामसभा खनन कार्य की निगरानी रखेगी तो वह बेहतर ढंग से आकलन कर सकेंगी कि खनन से उनके गांव को, वहां से गुजरने वाली नदी को कोई बड.ा नुकसान तो नहीं हो रहा है.

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