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अहम साल रहा 2015, घातक पर्यावरणीय बदलावों के लिहाज से
बीता वर्ष 2015 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है. हालांकि, पिछले करीब एक दशक में कई वर्ष ऐसे रहे हैं, जो उस समय तक सबसे गर्म साल के रूप में आंके गये, लेकिन वर्ष 2015 को इसलिए भी अहम माना जा रहा है, क्योंकि क्लाइमेट चेंज के लिहाज से विशेषज्ञों ने इसे ‘टिपिंग […]
बीता वर्ष 2015 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है. हालांकि, पिछले करीब एक दशक में कई वर्ष ऐसे रहे हैं, जो उस समय तक सबसे गर्म साल के रूप में आंके गये, लेकिन वर्ष 2015 को इसलिए भी अहम माना जा रहा है, क्योंकि क्लाइमेट चेंज के लिहाज से विशेषज्ञों ने इसे ‘टिपिंग प्वाइंट’ करार दिया है. क्या इंगित करता है यह टिपिंग प्वाइंट, क्यों जतायी जा रही है इस संबंध में चिंता आदि समेत इससे जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं को बता रहा है आज का नॉलेज …
कन्हैया झा
दिल्ली : भविष्य में जब लोग मानवता के इतिहास के बारे में लिखेंगे, तब धरती के क्लाइमेट सिस्टम की सुरक्षा को जोखिम के लिहाज से वर्ष 2015 का अपना एक अलग और खास चैप्टर होगा. निश्चित रूप से यह साल धरती पर अब तक का सबसे गर्म साल रहा है. इस चैप्टर में धरती के बचाव को लेकर विभिन्न देशों के बीच आपसी टकराव और साजिशों को भी शामिल किया जा सकता है.
हालांकि, अच्छी बात यह रही कि इस साल के आखिर में एक अनूठा क्षण भी दिखा, जब दुनिया के तकरीबन सभी (195) देशों ने इस मसले पर चिंता जताने के लिए एक वैश्विक सम्मेलन (पेरिस में) का आयोजन किया, जिसमें वैश्विक स्तर पर कार्बन समेत विभिन्न प्रदूषण को कम करने का वादा किया गया.
विशेषज्ञों का कहना है कि पेरिस समझौते के तहत भविष्य में भले ही मानव जाति को पर्यावरण की विकराल होती समस्या से निजात दिलाने पर मुहर लगा दी गयी हो, लेकिन इस गंभीर समस्या का दिखना अब स्पष्ट रूप से शुरू हो चुका है. जीवाश्म ईंधन और उन पर आधारित कंपनियों के खिलाफ वैश्विक आंदोलन चला रहे संगठन ‘350 डॉट ओआरजी’ के संस्थापक बिल मैककिबेन के मुताबिक, ‘सबसे सम्मोहक बात यह है कि पेरिस सम्मेलन के बारे में आप कह सकते हैं कि इससे धरती को बचाया नहीं गया, लेकिन इतना जरूर है कि इसने हमें धरती को बचाने का एक मौका जरूर दिया है.’
हार्वर्ड केनेडी स्कूल के हार्वर्ड इनवायरमेंटल इकोनॉमिक्स प्रोग्राम के डायरेक्टर रॉबर्ट स्टेविन्स ने भी इस ओर सावधान करते हुए कहा था कि हम केवल यह मूल्यांकन करने में सक्षम हो पायेंगे कि यह साल या शायद अब से यह दशक वाकई में इस लिहाज से सफल वर्ष होगा. लेकिन अगर कहीं यह गलत साबित हुआ तो? जैसा कि सभी विशेषज्ञ सहमत हैं कि क्लाइमेट चेंज के लिए इससे बीता हुआ पिछला वर्ष (2014) भी ‘टिपिंग प्वाइंट’ रह चुका है. ‘टिपिंग प्वाइंट’ वह बिंदु है, जहां छोटे बदलावों या घटनाओं की शृंखला एक बड़े कारण के लिए उल्लेखनीय रूप से पर्याप्त समझी जा रही हो. पिछले तीन दशकों से संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिक भी इस समस्या की नियमित निगरानी कर रहे हैं.
संबंधित वैज्ञानिकों के संघ से जुड़े और वाशिंगटन स्थित एक वरिष्ठ मौसम विशेषज्ञ एल्डेन मेयर का कहना है कि पेरिस सम्मेलन और वहां जतायी गयी प्रतिबद्धताओं ने यह दर्शाया है कि हम इस मसले को कितनी गंभीरता से ले रहे हैं. मौसम के अत्यंत घातक हालात के पैदा होने और दुनियाभर में विज्ञान के प्रति बढ़ रहे आत्मविश्वास ने इस विषय को गंभीरता से लेने की ओर प्रेरित किया है.
अब तक का सबसे गर्म साल
‘यूएस नेशनल ओसनिक एंड एटमॉस्फेयरिक एडमिनिस्ट्रेशन’ ने हाल ही में वर्ष 2015 को सबसे गर्म वर्ष करार दिया है.इस वर्ष अफ्रीका के पूर्वी और दक्षिणी हिस्से में भयावह अकाल पड़ा. उत्तरी ध्रुव पर बीते दिसंबर में तापमान औसत से काफी ज्यादा रहा और 2015 में अब तक का सबसे ताकतवर हरिकेन भी दर्ज किया गया. इसके कुछ लक्षण हमें अल नीनो के रूप में दिखेंगे, जो मौसम की एक स्वाभाविक घटना है और जो प्रत्येक पांच या छह वर्षों के अंतराल पर उष्णकटिबंधीय व दक्षिणी प्रशांत इलाके में भयावह हालात पैदा करती है. लेकिन, इतना तय है कि ग्लोबल वार्मिंग के बाइ-प्रोडक्ट के तौर पर इस बार का अल नीनो ज्यादा घातक मापा जायेगा.
नये जियोलॉजिकल युग की आहट
बीते सप्ताह ही वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट जारी की है कि क्लाइमेट चेंज ने अगले हिम युग को संभावित तौर पर 50,000 वर्ष आगे धकेल दिया है. सुनने में भले ही यह अच्छी खबर की तरह लग रही हो, लेकिन पर्यावरण का लगातार गर्म होना मानवता के लिए आसन्न खतरों का संकेत है. जीवाश्म ईंधनों को जलाने से धरती का थर्मोस्टेट बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, जो निश्चित तौर पर धरती पर इनसानों के लिए बुरी खबर है.
विशेषज्ञ इस नतीजे के बिल्कुल करीब पहुंचे हैं कि धरती के बायोलॉजिकल सिस्टम पर यह असर इस कदर व्यापक हो चुका है कि उसे एक नये जियोलॉजिकल युग का नाम दिया जा सकता है. मौजूदा जियोलॉजिकल युग के संदर्भ में 20वीं शताब्दी की मध्यावधि को संभवत: शुरुआती तिथि माना जायेगा.
व्यापक जागरूकता की जरूरत
ढाका स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के डायरेक्टर सलीम उल हक का कहना है कि धरती काे बचाने के लिए मौसम के संदर्भ में लोगों के बीच व्यापक समझ पैदा करना होगा. ग्लोबल चुनौतियों के संदर्भ में हाल ही में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सालाना सर्वेक्षण की हालिया जारी रिपोर्ट में करीब 750 विशेषज्ञों ने अपनी चिंता जतायी है.
इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन से जुड़ी असफलताओं को शीर्ष पर रखा गया है. दूसरे स्थान पर इसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और तीसरे व चौथे स्थान पर पानी की समस्याओं को शामिल किया गया है.
2015 में मिले मौसम की अत्यधिक विषम परिस्थितियों के सर्वाधिक और स्पष्ट सबूत
इस समस्या को इंगित करने के लिए कोई बड़ी हेडलाइन देना मुश्किल है, क्योंकि इससे जुड़ी लाखों रिपोर्ट और आंकड़े हैं और उन सबकी अपनी-अपनी हेडलाइन्स हैं. ‘350 डॉट ओआरजी’ की टीम ने दुनियाभर में न्यू क्लाइमेट इंपैक्ट का अध्ययन किया है और लोगों को इस समस्या से जूझते हुए देखा है.
इस लिहाज से वर्ष 2015 को इसलिए भी खास तौर से इंगित किया जा रहा है, क्योंकि इस वर्ष दुनियाभर में मौसम की अत्यधिक विषम परिस्थितियों के सर्वाधिक और स्पष्ट सबूत पाये गये हैं. वर्ष 2015 को क्लाइमेट चेंज के लिहाज से टिपिंग प्वाइंट मानने का सबसे बड़ा कारण यह प्रतीत होना है कि औद्योगिक युग की शुरुआत के बाद से यह पहला साल ऐसा रहा, जब वैश्विक तापमान एक डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा के स्तर पर कायम रहा. दुनिया के अनेक हिस्सों में वर्ष 2015 में कितनी विषमता पायी गयी, इससे जुड़े कुछ तथ्य इस प्रकार हैं :
हीटवेव्स
इस वर्ष अनेक गंभीर हीटवेव्स की घटनाएं सामने आयीं. मध्य पूर्व एशिया में जुलाई और अगस्त में हीटवेव्स ने भयावह रूप धारण कर लिया था. ईरान के बंदर-ए-माहशर इलाके में इस वर्ष 73 डिग्री तक तापमान रिकॉर्ड किया गया.
इस इलाके में लाखों शरणार्थी रहते हैं, जिन्हें इसके घातक असर को झेलना पड़ा. इराक के कई इलाकों में लगातार आठ दिनों तक तापमान 49 डिग्री सेल्यियस से ज्यादा रहा. भारत में भी इसका घातक असर देखा गया इस वर्ष और हीटवेव्स से 2,300 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी. इसके अलावा, सीजनल मानसून भी देरी से आया, जिसके बुरे नतीजे सामने आये.
जंगल की आग
इस वर्ष दुनिया के अनेक हिस्सों में जंगलों में भयावह आग लगने की घटना देखी गयी. कनाडा में छह हजार फोरेस्ट फायर की घटना से सिसिली के जितने आकार के इलाके में आग लगी. अमेरिका में भी 1960 के बाद से अब तक की सबसे भयावह जंगल के आग की घटनाएं देखी गयी, जिनमें 11 मिलियन एकड़ से ज्यादा इलाके चपेट में आये. इससे हजारों लोगों को विस्थापित भी होना पड़ा.
सुपर स्टोर्म्स
उत्तरी गोलार्ध में आये साइक्लोन, हुरिकेन, टाइफून आदि की संख्या ने रिकॉर्ड कायम किया. कुल मिला कर इनकी संख्या 22 रही, जबकि पिछला रिकॉर्ड 18 का है.
अल नीनो की गंभीरता
क्लाइमेट चेंज से पैदा होनेवाली हीट का 90- 95 फीसदी हिस्सा समुद्र में चला जाता है. इस प्राकृतिक घटना ने इस वर्ष अल नीनो की गंभीरता को और ज्यादा बढ़ा दिया और यह अब तक का सबसे घातक साबित हुआ. वर्ल्ड मीटीयोरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन के सेक्रेटरी-जनरल माइकल जेरोड का कहना है कि इस बार का अल नीनो व्यापक दायरे में देखा गया.
क्लाइमेट चेंज के कारण हमारी धरती पर अनेक नाटकीय बदलाव देखे गये हैं. पापुआ न्यी गिनी और पूर्वी अफ्रीका में भीषण अकाल पड़ने का बड़ा कारण यही रहा, जबकि पराग्वे, बोलिविया और भारत के तमिलनाडु समेत दुनिया के अनेक हिस्सों में आयी भयावह बाढ़ के लिए भी यही कारक जिम्मेवार है.
जीवन पर हावी हो रहे जीवाश्म-कार्बन
जीवाश्म-कार्बन हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू जैसे हवा, पानी, भोजन, चिकित्सा, ईंधन और खेती में अनेक तरीके से घुसपैठ कर चुका है. वायुमंडलीय उत्सर्जन और पारिस्थितिकी तंत्र में प्लास्टिक प्रदूषण के माध्यम से यह कार्बन हमारी वनस्पति प्रजातियों से लेकर मानव स्वास्थ्य तक को प्रदूषित कर रहा है. प्रकृति ने जल को सभी के लिए स्वतंत्र स्रोतों के माध्यम से उपलब्ध किया था, लेकिन इनसान ने उसका निजीकरण कर दिया है.
हमारे खेतों की मिट्टी पेट्रो-केमिकल्स रसायनों से पट गयी है, जिससे इस मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवों का नाश हो रहा है. जीवाश्म-कार्बन पर हमारी निर्भरता ने हमारे सोचने, समझने, जीने-खाने यहां तक कि जैव-विविधता आधारित हरित-कार्बन को भी आर्थिक रूप से महंगा कर दिया है.
कच्चे तेल के प्रति हमारी निर्भरता ने एक तो हमारी आर्थिक व्यवस्था में जबरन घुसपैठ कर ली है और ऊपर से इसके कारण लाखों लोग काल के ग्रास बन गये. अब तक कई युद्ध और विस्थापन इस तेल के कारण हो चुके हैं. हालांकि, अब क्लाइमेट चेंज के तहत जो चिंताएं जतायी जा रही हैं, उससे यह आशंका भी पैदा हो रही है कि इनसान के अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी तत्व यानी पेयजल की कमी हो सकती है.
पेरिस समझौता धरती की सुरक्षा की िदशा में बड़ाकदम
वर्ष 2015 में क्लाइमेट चेंज की गंभीरता को देखते हुए दुनिया के तकरीबन सभी देशों राष्ट्राध्यक्ष या प्रतिनिधि दिसंबर में फ्रांस की राजधानी पेरिस में जुटे और धरती के तापमान को दो डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने देने का संकल्प लिया. जलवायु परिवर्तन पर आम सहमति पर पहुंचना दुनियाभर के देशों के लिए एक बड़ी जीत बताया जा रहा है. इस पर्यावरण समझौते पर 195 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसके लिए बधाई दी. देशवासियों के नाम संदेश में उन्होंने कहा, ‘मुझे यकीन है कि पूरी दुनिया के लिए यह क्षण एक अहम मोड़ साबित होगा. यह समझौता आश्वासन देता है कि आने वाले समय में धरती बेहतर स्थिति में होगी.’ जलवायु सम्मेलन की मेजबानी कर रहे फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने इसे ‘धरती के लिए एक महान दिन’ का नाम दिया.
उन्होंने कहा, ‘पिछली कई शताब्दियों में पेरिस ने कई क्रांतियां देखी हैं. लेकिन इसे सबसे खूबसूरत और सबसे शांतिपूर्ण क्रांति कहा जा सकता है.’ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा, ‘यह समझौता धरती के भवष्यि को सुरक्षित रखने की दिशा में एक बड़ा कदम है.’ संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के मुताबिक, यह कदम न केवल धरती के पर्यावरण को बचायेगा, बल्कि गरीबी का भी अंत करेगा और विकास को बढ़ावा देगा.
पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ‘हमने जिसे अपनाया है, वह एक समझौता ही नहीं है, सात अरब लोगों के जीवन में एक नया अध्याय है.’ महात्मा गांधी को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘वे कहा करते थे कि हमें यह धरती अपने पुरखों से विरासत में नहीं मिली है, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों ने इसे हमें कर्ज पर दिया है.’
जीवाश्म ईंधनों के डाइवेस्टमेंट पर जोर
यदि मलबे से भी आप मुनाफा कमाने की चाहत रखते हैं, तो फिर आप क्लाइमेट चेंज की मुहिम को पलीता लगा रहे हैं. आपको यह समझना होगा कि आपकी मुनाफे की यह चाहत आगे चल कर धरती और जीवन के लिए घातक साबित हो सकती है.’गोफॉसिलफ्री डॉट ओआरजी’ इस संबंध में एक वैश्विक अभियान चला रहा है, जिसके तहत दुनियाभर में जीवाश्म ईंधनों को खत्म करने की कवायद हो रही है. यह संगठन दुनिया के खतरनाक जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को बंद करते हुए क्लाइमेट चेंज की समस्या के समाधान में मदद कर रही है.
इस संगठन का यह मानना है कि सामाजिक कार्यों से जुड़े शैक्षिक और धार्मिक संस्थानों, सरकारों और अन्य संगठनों को जीवाश्म ईंधन खत्म करने का संकल्प लेना चाहिए और उसका इस्तेमाल बंद करना चाहिए. इस संगठन ने इन अभियानों का इंटरनेशनल नेटवर्क कायम करते हुए दुनियाभर में समुदायों के बीच जीवाश्म ईंधनों के ‘डाइवेस्टमेंट’ पर जोर दे रहा है.
डाइवेस्टमेंट का मतलब इनवेस्टमेंट यानी निवेश के विपरीत होता है. जीवाश्म ईंधनों पर किया जा रहा इनवेस्टमेंट निवेशक और धरती, दोनों ही के लिए जोखिम पैदा कर रहा है, इसलिए यह संगठन सभी संस्थानों से इनमें निवेश से दूर रहने का अनुरोध करता है.
सुनने में भले ही यह थोड़ा अचरज भरा लग रहा हो, लेकिन कुछ दशक पीछे के इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि इस तरह के कई डाइवेस्टमेंट अभियान छिड़ चुके हैं. मानवता की रक्षा या बचाव के लिए ऐसे अभियान सफल रहे हैं.
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति के विरोध में वहां कारोबार कर रही कंपनियों से लोगों ने 1980 के दशक में डाइवेस्टमेंट किया था. इस अभियान ने वहां की सरकार की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी, नतीजन वहां लोकतंत्र और समानता का राज कायम हुआ. इसी तरह से कई देशों में तंबाकू के विरोध में चलाये गये अभियान में भी ऐसा ही देखा गया है.
अभियान का असर
फॉसिल फ्यूल डाइवेस्टमेंट कैंपेन का व्यापक असर दिख रहा है और 3.4 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की संपदा वाले 500 से ज्यादा संगठनों ने कुछ हद तक इस निवेश में कमी लाने की प्रतिबद्धता जतायी है.
बिल गेट्स और कुछ अन्य निवेशकों के समूह ने अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए प्राइवेट सेक्टर के साथ कई बिलियन डॉलर के सहयोग से क्लीन एनर्जी इनोवेशन को प्रोमोट करने पर जोर दिया है. इसके माध्यम से कई स्तरों पर अनेक उपलब्धियां हासिल हुई हैं. उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :
– फॉसिल फ्यूल डाइवेस्टमेंट को मंजूरी देनेवाला उपसाला स्वीडन का सबसे बड़ा शहर बन गया है.
– जीवाश्म ईंधनों पर होनेवाले निवेश को पूरी तरह से खत्म करने वाला मुन्स्टर जर्मनी का ऐसा पहला शहर बन चुका है.
-ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़ शहर मेलबॉर्न ने जीवाश्म ईंधनों से निर्भरता को खत्म करना शुरू कर दिया है.
– नॉर्वे की राजधानी ओसलो ने घोषणा की है कि कोयला, तेल और गैस कंपनियों में किये जाने वाले 9 बिलियन डॉलर पेंशन फंड की रकम को डाइवेस्ट किया जायेगा. और इस तरह से वह दुनिया का पहला राजधानी शहर बन जायेगी, जिसने फॉसिल फ्यूल में निवेश पर पाबंदी लगा दी हो.
– डच पेंशन फंड ने भी कोयला कंपनियों में किये गये निवेश को डाइवेस्ट करने और अन्य जीवाश्म ईंधन कंपनियों में निवेश को कम करने की घोषणा की है.
– चीन की सरकार ने वर्ष 2020 तक काेयला के समग्र इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के बारे में प्रतिबद्धता जतायी है और इस दिशा में काम शुरू कर दिया है. मालूम हो कि जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल और कार्बन उत्सर्जन में चीन का बड़ा योगदान माना जाता है.
-लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स समेत यूके की पांच यूनिवर्सिटी ने जीवाश्म ईंधन कंपनियों में किये जाने वाले निवेश को कम करने की घोषणा की है.
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