जब दो अगस्त 1990 को खाड़ी युद्ध शुरू हुआ तो वहाँ फँसे पौने दो लाख भारतीयों को सुरक्षित निकालना एक बड़ी चुनौती थी.
एयर इंडिया की मदद से चलाया गया ये अभियान दुनिया का सबसे बड़ा रेस्क्यू ऑपरेशन माना जाता है.
इस अभियान पर बनी फ़िल्म ‘एयरलिफ्ट’ में अक्षय कुमार ने रंजीत कटियाल की भूमिका निभाई है, जिन्हें भारतीय नागरिकों को वहाँ से बचाकर निकालने में अहम भूमिका निभाने का श्रेय दिया गया है.
फ़िल्म से जुड़े लोगों ने यहां तक दावा किया है कि तत्कालीन विदेश मंत्री आईके गुजराल और इराक़ी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की मुलाकात व्यवसायी रंजीत कटियाल ने कराई थी.
अक्षय कुमार के प्रशंसक 22 जनवरी को रिलीज़ होने वाली फ़िल्म का इंतज़ार कर रहे होंगे, लेकिन इस पर सवाल उठने लगे हैं.
क्या सचमुच ऐसा कोई व्यवसायी था जिसने इतना बड़ा काम किया था?
कुवैत में उस वक़्त सक्रिय रहे पत्रकारों, भारतीय विदेश मंत्रालय और एयर इंडिया के अधिकारियों का कहना है कि ऐसा कोई व्यक्ति था ही नहीं.
लेकिन अक्षय कुमार ज़ोर देकर कहते हैं कि फ़िल्म की कहानी सच्ची है.
मुंबई में बीबीसी हिंदी के लिए स्थानीय रिपोर्टर मधु पाल से बातचीत में अक्षय कुमार ने कहा, "उस व्यक्ति के परिवार से मिली जानकारियों के आधार पर फ़िल्म बनी है, लेकिन रंजीत कटियाल फ़िल्मी नाम है और असली व्यक्ति का नाम कुछ और है."
अक्षय कुमार ने माना कि वे उस व्यक्ति से मिले नहीं हैं.
तो आखिर कौन था ये आदमी? वो कहां है, वो क्यों सामने नहीं आ रहा है? या फिर ये फ़िल्म के प्रचार का हथकंडा है?
अधिकारियों के मुताबिक़, भारतीय दूतावास भारतीयों को वापस लाने का सूत्रधार था और भारतीयों को कुवैत से जॉर्डन की राजधानी अम्मान ले जाया गया जहाँ से एअर इंडिया की मदद से उन्हें निकाला गया.
पहले खाड़ी युद्ध के दौरान केपी फ़ाबियां विदेश मंत्रालय में खाड़ी विभाग के प्रमुख थे. वो ऐसे किसी भी व्यक्ति की मौजूदगी से इनकार करते हैं.
वो बताते हैं, “हमारे सद्दाम हुसैन के साथ अच्छे संबंध थे और हमें किसी और की ज़रूरत नहीं थी.”
तत्कालीन विदेश मंत्री इंदर कुमार गुजराल के साथ कुवैत पहुंचे विदेश मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव आईपी खोसला भी फ़ाबियां की बात का समर्थन करते हैं.
लंबे समय से एअर इंडिया से जुड़े रहे जीतेंद्र भार्गव भी ऐसे किसी व्यक्ति की मौजूदगी से इनकार करते हैं.
भार्गव के अनुसार उन्होंने उस वक्त खाड़ी में स्थानीय डायरेक्टर माइकल मैस्केरेनाज़ से भी बात की, जिन्होंने कुवैत से बाहर निकले कम से कम दो भारतीयों से बात की थी, लेकिन रंजीत कटियाल या फिर ऐसे किसी भी शख़्स के बारे में किसी को कुछ नहीं पता था.
कुवैत में 35 सालों से रह रहे पत्रकार जावेद अहमद ने इस युद्ध को क़रीब से देखा है.
उन्होंने उस वक्त के स्थानीय भारतीयों से संपर्क किया लेकिन कोई ऐसे किसी आदमी की मौजूदगी की तस्दीक नहीं करता है.
जावेद ने इस फ़िल्म का ट्रेलर यूट्यूब पर देखा है. वो कहते हैं, “ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसने बड़े पैमाने पर लोगों की मदद की. ये फ़िल्म झूठ पर आधारित है और उसका हक़ीक़त से कोई संबंध नहीं है.”
जावेद के अनुसार, "फ़िल्म में दसमान पैलेस की बात की गई, लेकिन दसमान पैलेस में उस वक्त कुछ नहीं था. कुवैत के अमीर वहां से चले गए थे. मैं उस वक्त वहां मौजूद था. मैं सारा दिन वहां सड़कों में घूमता था.”
फ़िल्म के लेखकों में से एक और डायरेक्टर राजा कृष्णा मेनन से संपर्क नहीं हो पाया है.
दो अगस्त 1990 की सुबह तेल प्रोजेक्ट में इंजीनियर एके श्रीवास्तव बगदाद में अपने किराए के मकान में दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे जब ख़बर आई कि इराक़ ने कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया है. वो उस दिन दफ़्तर नहीं गए.
फिलहाल गुड़गांव में रह रहे श्रीवास्तव ने बताया कि वो बगदाद में करीब दो महीने रहे, जहां खाने के अलावा कोई खास परेशानी नहीं हुई.
वो बताते हैं, "हमें निकलने में ऐसी कोई दिक्क़त नहीं थी क्योंकि जॉर्डन का बॉर्डर खुला हुआ था. हम लोगों को टिकट वगैरह की ज़रूरत नहीं पड़ी. हमने अपने कागज़ात तैयार करवा लिए थे. पहले तो हम बग़दाद इराक़ एअरवेज़ से जॉर्डन आ गए. वहां जॉर्डन में पूरी सुविधाएं थीं.”
इंडियन फॉरेन अफ़ेयर्स जर्नल को दिए एक साक्षात्कार में वो याद करते हैं कि हमले की ख़बर के बाद विदेश मंत्री इंदर कुमार गुजराल, अतिरिक्त सचिव आईपी खोसला और वो ख़ुद बग़दाद पहुंचे थे, जहां गुजराल की मुलाक़ात सद्दाम हुसैन से हुई.
इस मुलाकात में सद्दाम हुसैन ने गुजराल को गले लगाया था और बातचीत बहुत अच्छी रही थी.
13 अगस्त से 11 अक्टूबर 1990 तक चले इस ऑपरेशन में अम्मान से भारत के बीच करीब पांच सौ उड़ानें भरी गई थीं.
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