ठंड के मौसम में दिन में सोना, क्रोध, शोक, ठंडा जल पीना, ठंडे पानी के टब में स्नान करना, मूत्र, मल एवं छींक के वेग को रोकना, सत्तू आदि द्रव पदार्थ का सेवन तथा जमीन पर लेट कर सोना हानिकारक है.नासाकृमिहर योग, दषक्षीरघृत प्रयोग लाभकारी है.
ठंड का मौसम आ गया है. ऐसे में वैसे व्यक्ति जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, नासागत रोग प्रतिष्याय होने की संभावना होती है. मौसम परिवर्त्तन के साथ तापक्रम में परिवर्त्तन, हवा का दबाव, ठंड तथा ओस के कारण नासा का तापमान कम होने के फलस्वरूप नासागत रक्ताल्पता, नाक में खुजली होना, सिर में दर्द होना, सिर में भारीपन, छींक आना, शरीर में दर्द होना, बुखार आना, गले का स्वर बैठना, नाक में चिपचिपाहट, मुंह से लार टपकना व नाक से पानी का निकलना, तालू में पीड़ा होना जैसा लक्षण हो, तो उसे प्रतिष्याय कहते है.
कारण: धूल, धूप में अधिक घूमना, ओस (शीत) में सोना, मूत्र व मल के वेग को रोकना, एलर्जी, औषधियों का दुष्प्रभाव, बीड़ी व सिगरेट पीना, जल में अधिक तैरना, हवा में विद्यमान बैक्टीरिया के संक्रमण आदि मुख्य कारण है.
आयुर्वेदीय मतानुसार: सुश्रुत के मातानुसार प्रतिष्याय पांच प्रकार के है: वातजन्य प्रतिष्याय- नाक से पतला स्नव होना, गले, तालु और ओंठ में खुश्की होती है एवं सूई के चुभन सी पीड़ा होती है, आवाज में रूकावट सा होता है.
पित्तजन्य प्रतिष्याय: नाक से पीले व हरे रंग का स्नव होना, दुर्बलता होना, गर्मी का अनुभव होना, प्यास अधिक लगना, मुंह अथवा नाक से धुआं निकलना सा प्रतीत होता है.
कफजन्य प्रतिष्याम: नाक से उजले एवं ठंडा कफ का स्नव होना, आंख में सूजन, सिर, गला, होंठ एवं तालू में खुजली होना.
सन्निपातज: प्रतिष्याय के लक्षण का बार-बार होना एवं शांत हो जाना स्वाद नहीं मालूम होना, छींक आना, ज्वर होना.
रक्तजन्य प्रतिष्याय: नाक से लाल रंग का स्नव होना, आंख का लाल होना, श्वास तथा मुंह से दरुगध आना, गंध का महसूस नहीं होना, नाक से श्वेत, चिकना एवं छोटे-छोटे कृमि का गिरना. उपयरुक्त लक्षण के प्रतिष्याय रोग की चिकित्सा यथाशीघ्र करना चाहिए अन्यथा यह कास, श्वास एवं क्षय रोग में परिवत्तिर्त हो जाता है.
चिकित्सा: धूम्रपान, विरेचन व शिरोविरेचन लाभकारी है. नस्य-कट्फलादिनस्य, केसर नस्य, गोमयनस्य, बलादितैल नस्य, रसांजनादितैलनस्य, नासाकृमिहर योग, दषक्षीरघृतप्रयोग लाभकारी है.
औषध: महालक्ष्मी विलास रस, व्याघ्रीहरीतकी, चित्रकहरीतकी, षड्बिंदु तैल, षड्बिंदु घृत, त्रिभुवनकित्तर्ि रस, गोदंती भस्म, अभ्रक भस्म, पंचामृत रस, व्योसादि बटी का प्रयोग लाभकारी है.
आहार: गेहूं, मूंग, अरहर, कुलथी, बैगन, परवल, सहिजन, जौ की रोटी या वारली का सेवन, पतली मूली, लहसून, पीपर मिर्च युक्त मसाला, सिर पर गरम वस्त्र व शरीर पर मोटा वस्त्र पहनना चाहिए.
डॉ देवानंद प्रसाद सिंह
अधीक्षक, राजकीय आयुर्वेदिक कॉलेज अस्पताल पटना
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