।। दर्शक।।
कल्पना की हकीकत सामने है. सपना का असलियत भी. सन् 2000 में जब नये राज्य झारखंड का गठन हो रहा था, तो देश में सपना था, कल्पना थी कि यह इलाका, देश का सबसे संपन्न इलाका होगा. कुछ लोग मानते भी थे कि झारखंड, जर्मनी के रूर (एक अत्यंत संपन्न इलाका) की तरह, भारत का रूर बनेगा. पर पिछले 13 वर्षो में जो हालात बने, उनसे लगता है कि झारखंड, देश के संघीय ढांचे या कार्यपालिका-सरकार की मूल आत्मा या संविधान या भारतीय संघ के मूल ढांचे-आकार पर ही चोट-प्रहार कर रहा है. यह सब इस कारण भी अनदेखा है, क्योंकि केंद्र में एक कमजोर और लाचार सरकार है. अगर इंदिरा गांधी जैसा शासन होता, तो आज झारखंड में जिस तरह संवैधानिक व्यवस्था की टूट के गंभीर लक्षण दिखायी दे रहे हैं, कम से कम वे न होते. पहला तथ्य यह है कि झारखंड की सरकार हो या विधायिका या पुलिस या कार्यपालिका या राज्य सरकार, ये सभी संघीय व्यवस्था के अंग हैं. खुद मुक्तसर स्वतंत्र देश नहीं. लेकिन इनके आचरण हतप्रभ करनेवाले हैं.
झारखंड में, एक मंत्री के अंगरक्षक से दो एके -47 राइफल और डेढ़ सौ गोलियां गायब हो गयी. साथ में रिवाल्वर व 35 गोलियां भी. गायब हुई दो एके-47 राइफल और डेढ़ सौ गोलियां तालाब के किनारे झाड़ियों में मिली हैं. एक सिपाही की सर्विस रिवाल्वर की तलाश जारी है. इसके पहले भी इन्हीं मंत्री के अंगरक्षकों के हथियार ओरमांझी से गायब हुए थे, वह भी मिले. मंत्री के पिता भी प्रभावी राजनीतिज्ञ थे. उनके बॉडीगार्ड से भी कारबाइन की लूट हुई थी. दो दिन बाद वह मिली थी. फिर इसी बॉडीगार्ड से दो बार पिस्तौल गायब हुई, जिसकी बरामदगी नहीं हुई. पर उक्त अंगरक्षक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. महज उक्त अंगरक्षक के वेतन से अब तक पैसा वसूला जा रहा है. याद रखिए, एक ही अंगरक्षक से कारबाइन गायब होती है, दो पिस्तौल गायब होती है, एक-एक कर. इस तरह सरकारी हथियार गायब होते हैं, पर उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती. दंड स्वरूप महज अंगरक्षक के वेतन से कटौती हो रही है. पर यह पुराना मसला है.
नये पर लौटें. मंत्री की सुरक्षा में लगे सिपाही नवनीत तिवारी के स्नेत से बाहर आयी सूचना पर यकीन करें, तो मंत्री की मिलीभगत से ही जवानों के हथियारों की चोरी हुई. हम मान लेते हैं कि मंत्री नितांत निर्दोष, सच और सात्विकता की प्रतिमूर्ति हैं, फिर भी इस घटना से यह तो साफ है कि मंत्री के अंगरक्षक ही हथियार चुरानेवाले हैं. यह अलग बात है कि मंत्री की संलिप्तता की बात, पुलिस और सरकार के ऊपर तक लोगों को सूचना के तहत बतायी गयी है. पर जानकारी के अनुसार इसकी लीपापोती की कोशिश हो रही है, ताकि नीचे के लोगों को फंसा कर मंत्रीजी को बचाया जा सके. हम इस प्रकरण में नहीं डूबना चाहते. हम घोषित रूप से मान रहे हैं कि मंत्री महोदय निर्दोषहैं. हमारा सवाल है कि इन चोरी गये हथियारों का क्या होता? या इस चोरी का मकसद क्या था? यह काम धर्मार्थ तो नहीं था. इसके पीछे एक ही मकसद रहा होगा, इन हथियारों को बेचना. इस इलाके में इन हथियारों के खरीदार कौन होते? उग्रवादी या आतंकी? 2004 के बाद माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तीन-चार बार ऑन रिकार्ड कह चुके हैं कि आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवाद और उग्रवाद हैं. अब आप-हम मान भी लें कि मंत्री पाक साफ और निदरेष हैं. हालांकि सही तो यह होता कि यह इतना गंभीर मामला है कि इसकी निष्पक्ष जांच सीबीआइ द्वारा होती, तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता. पर व्यवस्था में एक मंत्री और उसकी सुरक्षा में लगे सिपाही, स्टेट पावर यानी राजसत्ता के सबसे बड़े प्रतीक हैं. पर मंत्री के बॉडीगार्ड, खुद अपना हथियार चुरा कर छुपा देते हैं, ताकि मामला थम जाने पर इन हथियारों की सौदेबाजी हो सके. मंत्रीजी के माननीय पिताजी के बॉडीगार्ड से गायब दो पिस्तौल आज तक नहीं मिली? क्या कभी पुलिस या व्यवस्था ने पता लगाया कि गायब पिस्तौल कहां गयी? सरकार (चाहे केंद्र की हो या राज्य की) संविधान के तहत बनती है. वह इस संघीय ढांचे की उपज है. राज्यसत्ता की हिफाजत, कानून-व्यवस्था या सुरक्षा की जवाबदेही इन पर है.
इन्हीं मंत्रियों पर. इनकी हिफाजत में लगे सुरक्षाकर्मी पर. सरकारी मालखाने से मिले हथियारों पर. यही व्यवस्था चलानेवाले लोग अगर अपने ही मालखाने के हथियार देश तोड़क ताकतों तक पहुंचायेंगे, तो देश का क्या होगा? संविधान और संघ की नींव खोदने या कमजोर करने का काम, संविधान के कं धे पर बैठे लोग करें, तो क्या होगा? हथियार चोरी में मंत्रीजी की भूमिका पर उठे सवाल के दूसरे दिन (01.12.13 को) मंत्रीजी ने हजारीबाग में प्रेस कांफ्रेंस किया. उन्होंने हजारीबाग के एसपी और राज्य के डीजीपी को अत्यंत कटु-भद्दे विशेषणों से नवाजा. याद रखिए, कार्यपालिका के दो महत्वपूर्ण अंग हैं, जिन्हें व्यवस्था को चलाना है. पहली सरकार और दूसरी नौकरशाही. दोनों का समर्पण संविधान के प्रति है. क्योंकि संविधान ही इनका उद्गम स्नेत है. एक कानून माननेवाले नागरिक के तौर पर हजारीबाग के एसपी का यह काम साहसपूर्ण दिखता है कि उन्होंने चोरी गये हथियारों को पकड़ा. अब कार्यपालिका का दूसरा अंग यानी मंत्री अपने ही एसपी और डीजीपी को सार्वजनिक रूप से भला-बुरा कहें, ऐसा देश में और कहीं नहीं हो रहा है. इन्हें तो कोई भी सरकार शाबाशी देती. अगर मंत्री निर्दोष हैं, तो राज्य के डीजीपी और हजारीबाग के एसपी के कामकाज की सार्वजनिक तारीफ करते. कहते कि इन दोनों ने राज्यसत्ता के हित में काम किया. संविधान, कानून-व्यवस्था को मजबूत बनाया है. यह मामूली घटना नहीं है. देश की व्यवस्था तोड़ने का गंभीर मामला है. सरकार में बैठा आदमी अपने एसपी और डीजीपी को महज अपने को बेदाग बताने के लिए बुरा-भला कहे, ऐसा शायद ही कहीं और होता हो? दरअसल, दुर्भाग्य यह है कि पहले की तरह आइएएस-आइपीएस की संख्या घट गयी, जिनके लिए संविधान और कानून ही सर्वोपरि और पूज्य होता था. अन्यथा झारखंड का दृश्य ही कुछ और होता. प्रेस कांफ्रेंस में बड़े अफसरों की आलोचना के बयान पूरी तरह व्यवस्था को तोड़ने का गंभीर मामला है. अराजकता का यह शिखर है. यहां से ढलान ही है. दुर्भाग्य है कि दिल्ली की सत्ता में बैठे जिन लोगों को यह ढलान-फिसलन देखने-रोकने का फर्ज है, वे अपनी ही सत्ता बचाने में ही डूबे हैं. उन्हें तो शायद मालूम भी नहीं कि देश के सुदूर हिस्सों में हालात कहां पहुंच गये हैं? वश चले, तो झारखंड के मंत्री अपने इन पालतू लोगों को हर जगह बैठा देंगे, जो इन्हें ‘भगवान’ मानते हैं और इनके गलत आदेशों को परमपूज्य कर्तव्य.
संघीय संविधान के झारखंड में कमजोर होने के दृश्य का यह पहला पक्ष है. दृश्य का दूसरा पक्ष, कल यानी 30.11.13 को झारखंड में पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में हुए बंद के दौरान दिखा. पुलिस-प्रशासन द्वारा प्रायोजित बंद. टीवी के दृश्य और अखबारों की तसवीरें देखें. महिलाएं पीटी गयीं. पहले से आयोजित सेमिनारों में बाहर से आये विशिष्ट प्रोफेसर पीटे गये. उनकी गाड़ियां तोड़ी गयीं. पुलिस के सामने. बीमारों के साथ बदसलूकी हुई. बाहर से आनेवाले अनजान लोगों के साथ मारपीट हुई. क्या ये लोग राज्य में डोमिसाइल नीति न बनने के अपराधी या दोषी हैं?
डोमिसाइल नीति कौन बना सकता है? संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार वे लोग, जो आज यह आंदोलन चला रहे हैं, वही लोग यह काम कर सकते हैं. सरकार और विधायिका के पास यह हक है. पिछले 13 वर्षो से झारखंड की सत्ता में ये सभी लोग रहे हैं. तब इन लोगों ने क्या किया? क्या इसमें से एक भी आदमी उन दिनों इस बात के लिए पद छोड़ा कि डोमिसाइल नीति नहीं बनी? बाबूलाल मरांडी ने वोट बैंक की राजनीति के लिए जिस भावनात्मक जिन्न को बाहर निकाला, अब वह उनके हाथ में भी नहीं है. जिन लोगों के कंधे पर उन्होंने इस जिन्न को बैठाया, अब वे सब इसके नेता बन गये हैं. याद रखिए, कल ये भी इसके नेता नहीं रहेंगे. कोई नया उग्र बोलने-करनेवाला इसका उत्तराधिकारी बन जायेगा. आज जो इस आंदोलन को वोट बैंक में तब्दील कर रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि दूध की आपूर्ति रोक, गरीब सब्जीवाली महिलाओं को सब्जी न बेचने के लिए पीट देने, निहत्थे स्कूटर सवार को पीट देने और उसकी गाड़ी तोड़ देने, एक गाड़ी के ड्राइवर पर बीस लोग मिल कर हमला कर देने से डोमिसाइल नीति बनेगी? जब आप (सांसद या विधायक) मंत्री थे, सरकार के साथ थे, तब आपने अपनी सरकार को विवश कर नीति बनवायी होती या इस मुद्दे के लिए पद और सुविधाएं छोड़ी होती, तब लगता कि सही रूप से इस मुद्दे के प्रति आपका समर्पण है. जब सत्ता के अंदर हो, तो सुविधा की राजनीति और सत्ता के बाहर हो, तो कुरसी पाने की लिए समाज को बांटने की राजनीति? यह नयी किस्म की सांप्रदायिकता है. समाज बांटो और वोट बैंक बनाओ. क्या डोमिसाइल के लिए जिन्हें आप पीट रहे हैं, धमका रहे हैं, जिनकी बंद दुकानों को तोड़ रहे हैं, वे बनायेंगे डोमिसाइल नीति?
प्रभात खबर यह सवाल उठा सकता है. क्योंकि जब आज के इस आंदोलन के अनेक धुरंधर नेता, बड़े दलों के समर्थक थे, तब अलग राज्य भी नहीं बना था, तब से प्रभात खबर पीछे छूट गये लोगों का सवाल उठाता रहा है. उनके लिए लंबा संघर्ष किया है. पहले डोमिसाइल पर बात होनी चाहिए. क्यों नहीं इस आंदोलन के नेता खुद डोमिसाइल नीति बनाते और बहस के लिए सार्वजनिक मंच पर लाते हैं. इस आंदोलन के प्रवर्तक या सूत्रधार लोकसभा में भी रहे हैं. आज विधानसभा में भी हैं. क्यों नहीं इन लोगों ने लोकसभा में या विधानसभा में झारखंड की अलग डोमिसाइल नीति पर कोई प्राइवेट बिल तैयार करके प्रस्तुत किया? सार्वजनिक मंच पर बहस के लिए रखा? कोई भी कानून या नीति इसी रास्ते बनते हैं. सड़क पर निदरेषों को पीटने से कानून नहीं बनते. अपनी जिम्मेदारी से भाग कर युवाओं के मन में भ्रम पैदा करते हैं, तो यह देर -सबेर टूटता ही है. और फिर समाज में निराशा और हिंसा फैलती है. क्या झारखंड के समाज को हमें इसी रास्ते ले जाना है? झारखंड का भविष्य इन्हीं नेताओं की भूमिका से तय होनेवाला है. यह बात साफ होनी चाहिए कि झारखंड, स्वतंत्र देश है या भारत संघ का अंग? क्योंकि तभी यह नीति बन पायेगी. अगर भारत के संविधान के तहत झारखंड बना, तो झारखंड की डोमिसाइल नीति भी अन्य राज्यों की तरह भारतीय संविधान के अंदर ही होगी. फिर कहां समस्या है? क्यों नहीं 13 वर्षो में बनी नीति? हर नेता और दल सुख भोगे और ऐसे मुद्दों पर लगातार बंद करा कर राज्य को घृणा, द्वेष, हिंसा, नफरत की आग में झोके ? यह कब तक चलेगा? अगर झारखंड पूरे देश और संविधान से अलग हट कर अपनी अलग डोमिसाइल नीति चाहता है, तो वह विधानसभा में बना कर पास करे. केंद्र के पास भेजे और मंजूरी ले. यह सरकार कांग्रेस या केंद्र के सहयोग से चल रही है, उसके लिए मंजूरी ले आये. लोकतंत्र में एक और रास्ता है. अगर आपको लोकतंत्र में यकीन है, तो नयी डोमिसाइल नीति का प्रारूप रख कर पूरे राज्य में रेफरेंडम करा दीजिए. फिर बहुमत के आधार पर जो चीज आये, मान लीजिए. पर वोट पाने के लिए राजनीति करनेवाले इसका हल नहीं चाहते. उन्हें खुद भी नहीं पता कि डोमिसाइल नीति कैसी या क्या होगी? आपको तय करना होगा कि भारत के संविधान की चौहद्दी में आप रहना चाहते हैं या बाहर? आपके हाथ में सरकार है, कानून-व्यवस्था, विधायिका, विधानसभा है. कानून यहीं बनते हैं. नीति यहीं बनती है. बना लीजिए. पर निदरेष लोगों पर जुर्म, हिंसा, आतंक, बीमार मरीजों की पिटाई, शादी करके जा रहे दूल्हा-दूल्हन पर जुर्म के रास्ते तो यह नीति नहीं बन सकती. इससे समाज में और आग लग सकती है. क्या पहले से ही इस समाज में कम ताप-तनाव है कि नयी आग चाहिए?
एक और बड़ी भूल कर रहे हैं, झारखंड के नेता. बंद के दौरान रांची में जिन लोगों ने हालात देखे, उन्हें भविष्य की भी झलक मिली. आप छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार देकर उन्हें सड़क पर उतार देते हैं. वे आक्रामक होते हैं. उनमें भीड़ का उन्माद होता है. पुलिस और प्रशासन को असहाय खड़ा देखते हैं, तो उनके मन से कानून का भय खत्म हो जाता है. वे तोड़फोड़ करते हैं. हमलावर होते हैं. इससे भयहीन, अराजक समाज का जन्म होता है. गांधीजी के आंदोलन (तब के आंदोलन से आज के आंदोलन की तुलना पाप है. क्योंकि तब सचमुच आत्मसंयमवाले लोग, चरित्रवाले लोग आंदोलन में थे) के दौरान जब इस तरह का उपद्रव, बंद, धरना-प्रदर्शन या तोड़फोड़ की घटना हुई, तो मनीषी-चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने अपने को इस आंदोलन से अलग किया और गांधीजी से निवेदन किया, समाज को चेताया कि इस रास्ते हम एक अनुशासनविहीन, अराजक और हिंसक समाज को जन्म देंगे, जो कानून-व्यवस्था में यकीन नहीं रखेगा. आज देश में यही हालात हैं. कहीं दस लोग डंडा लेकर बैठ गये, तो सड़क जाम. बंद के पीछे तो दर्शन था कि आप बंद की अपील करें. जिन कारणों से आप बंद बुला रहे हैं, उनके पीछे इतनी जबरदस्त अपील हो कि लोग घरों में सिमट जायें. अपने आप हर आदमी बंद का भागीदार बने. डरा कर, धमका कर, मारपीट कर बंद नहीं होते. इसलिए आज सुप्रीम कोर्ट से लेकर झारखंड, केरल समेत अन्य राज्यों के हाइकोर्ट ने ऐसे बंद के खिलाफ सख्त हिदायतें दी हैं. अगर झारखंड या रांची में कोई एनजीओ सक्रिय हो और ऐसे बंद में हुए नुकसानों का ब्योरा व प्रमाण इक ट्ठा कर कोर्ट में जाये, दोषियों पर कार्रवाई और सरकार की चुप्पी के बारे में सवाल उठाये, तो एक अलग दृश्य होगा. यह ऐसी आग है, जो देश-समाज को गृहयुद्ध में ढकेल देगी. कहीं एक मोहल्ले की खबर टीवी पर भी देखी और अखबारों में भी पढ़ा. वहां बंद की मुखालफत करनेवाले सड़क पर उतर आये. दोनों गुटों में जम कर झड़प हुई. क्या यही हमारी मंजिल है? क्या पुलिस-प्रशासन इस प्रहसन के मूक दर्शक या रेफरी हैं.
एक और मंत्री हैं. उन्हें रोज नये विवादों में पड़ने की शगल है. वह भाषा को लेकर कई बार कह चुकी हैं. महज बयान, कोई ठोस काम नहीं. क्यों नहीं आदिवासी बोलियों-भाषाओं की संरक्षण की पहल उनकी सरकारी करती? यह काम तो सरकार-मंत्री के अधिकार के अंदर है. अधीन है. इसके लिए वह विवादों में क्यों पड़ती हैं? उनके पास अधिकार है, फैसला करने का. निर्णय करने का. फिर वह जनता में यह विवाद क्यों ले जाती हैं? पर याद रखिए, जब आप भाषा का विवाद सुलझाना चाहते हैं, तो आपको याद रखना होगा कि हजारीबाग, डालटनगंज, कोडरमा, गिरिडीह वगैरह की भावना या समस्या का हल निकले. नहीं तो परिणाम और भी कटु होंगे. अलग झारखंड के भाष्यकार और जानेमाने इतिहासकार डॉ पुरुषोत्तम कुमार (30-40 वर्षो पहले वह अलग झारखंड की बात करने-लिखने-जूझनेवालों में से थे) कहा करते थे कि संस्कृति और भाषा का सवाल नहीं संभाला गया, तो इसी झारखंड में कई कोनों से फिर अलग होने की बात उठेगी. आज बिरहोर से पूछिए, वह अपने को माटी का मूल आदमी मानता है. पहाड़िया आदिवासियों से पूछिए, वह कहेंगे, सब बाहरी हैं. हम धरतीपुत्र हैं. इसी तरह असुर-बिरजिया हैं. इसलिए इतिहास में पीछे लौट कर समाधान आप नहीं निकाल सकते. सबको एकजुट होकर सहमत होना होगा कि हमारे बीच जो सदियों से पीछे छूट गये हैं, उन्हें आगे लाने के लिए अधिक महत्व और अधिक अवसर दें. इसी रास्ते पर आज दुनिया चल रही है. सामान्य भाषा में कहें, तो यह सारी लड़ाई नौकरी के लिए ही है न! झारखंड बनने के बाद से अब तक हजारों पद खाली हैं, सरकारी कार्यालयों में. क्यों नहीं 13 सालों में स्थानीय शासकों ने लोगों की नियुक्ति नीति बना कर यहां के लोगों को अवसर दिया? आज जो लोग आंदोलन चला रहे हैं, वे भी सरकार में थे. उन्होंने क्यों नहीं ऐसी नीति बनायी कि स्थानीय लोगों को नौकरी मिले? पर सरकार में अब भी हजारों पद खाली हैं. अगर सरकारी भर्ती का यह काम हुआ होता, तो झारखंड के हजारों स्थानीय नौजवान आज नौकरी में होते. पर इस काम में किसी की रुचि नहीं है. रुचि है, हर मुद्दे पर राजनीति करने की. ताकि समाज में अपना पद और महत्व बरकरार रहे. जिस दिन झारखंड के पढ़े-लिखे नौजवान राजनीति की यह सच्चई समझ लेंगे, झारखंड में एक नयी शुरुआत की संभावना बनेगी. झारखंड की राजनीति में जो नये-नये चलन दिख रहे हैं, वह देश को चलानेवाली व्यवस्था को ही तोड़ने का गंभीर संकेत दे रहे हैं.
झारखंड की सरकार में ही एक कांग्रेसी विधायक, मंत्री हैं. विधायक बनने के पहले से ही वह ख्यात हैं, अपने आपराधिक कामों के लिए. सरकारी मुलाजिमों को पीटने के लिए. उनके खिलाफ कई आपराधिक मुकदमे हैं. फिर भी वह मंत्री बन गये. मंत्री बन कर दिल्ली से लौटे, तो बड़ा विवादास्पद बयान दिया कि आलाकमान को खुश कर मंत्री बना. काम कुछ नहीं, लेकिन रोज अत्यंत आपत्तिजनक बयान देने में माहिर. उनके सौजन्य से पूर्व मुख्य सचिव के घर पर जो दृश्य दिखा, वह भूलनेवाला नहीं है. अब मंत्री जी के पीए एक मामले में कह रहे हैं कि पुलिस ने अच्छा नहीं किया. मुख्यमंत्री को दवाब देकर नये एसएसपी भीमसेन टूटी को भी पूर्व एसएसपी साकेत कुमार सिंह की तरह हटवा दिया जायेगा. याद रखिए, नये एसएसपी दो-चार दिनों पहले ही आये हैं. मंत्री के पीए की यह हैसियत कि ऐसा सार्वजनिक बयान दे कि वह एसएसपी को हटवा देगा? धन्य है, झारखंड. पर क्या करेंगे? खुद मंत्री महोदय कह रहे हैं कि मैंने एसएसपी और आइजी को हटवा दिया. कारण वह मैच देखने गये थे. मिली सूचना के अनुसार वह खिलाड़ियों की पत्नियों के लिए आरक्षित सीट पर जाकर बैठ गये. उनको वहां मौजूद बड़े अफसरों ने विनम्रता से कहा कि आपकी जगह कहीं और है. बस इतनी-सी बात से मंत्रीजी खफा हो गये. उन्हें लगा कि वह झारखंड सरकार के मंत्री नहीं, चक्रवर्ती सम्राट हैं, वह जहां बैठ गये, वही उनकी जागीर. उन्हें वहां से हटने का अनुनय-विनय करनेवाले और खिलाड़ियों की पत्नियों के बैठने की जगह तय करनेवाले अफसर क्या हैसियत रखते हैं? यह सही है कि इस घटना के बाद दो बड़े अफसर हटाये गये हैं. हद तो तब हो गयी, जब इस घटना की जांच के लिए सरकार ने न्यायिक आयोग बैठा दिया. अगर पुरानी कांग्रेस होती, इंदिराजी जैसी या जवाहरलाल जी के कांग्रेस की मामूली छाप भी होती, तो यह मंत्री या तो खुद हटता या हटा दिया जाता. पर यह आधुनिक कांग्रेस है. दरसअल, इन चीजों को अलग-अलग घटनाओं से मत आंकिए. सरकार का एक मंत्री खुद अपने ब्यूरोक्रेसी के मनोबल को तोड़ रहा है. उसे सार्वजनिक अपमानित कर रहा है. ब्यूरोक्रसी कमजोर हो गयी, तो क्या ऐसे आपराधिक छविवाले नेता इस देश या इस राज्य को संभालेंगे? यह ब्यूरोक्रेसी के मनोबल को तोड़ने का प्रयास है. झारखंड में अफसरों के लिए यह सबसे बुरा दौर है. कांग्रेस के ही एक मंत्री हैं. उन्होंने कुछ दिनों पहले ही खुलेआम एक एसडीपीओ को भला-बुरा कहा. चार दिनों बाद उसका तबादला करवा दिया. एक विरोधी दल के विधायक हैं. उन्होंने एक इंजीनियर को अपने चहेतों को ठेका देने के लिए कहा. अड़चन आयी, तो विधायक ने उस इंजीनियर का सिर्फ ट्रांसफर ही नहीं कराया है, बल्कि जालसाजी वगैरह के मामलों में फंसा कर सस्पेंड करने की तैयारी है. क्या अफसरों से इस तरह का व्यवहार कर आप कोई बेहतर सरकार चला सकते हैं? किसी भी सरकार के लिए नौकरशाही ही मुख्य एजेंसी होती है, क्रियान्वयन के लिए. उसे भला-बुरा कहने का आपको किसने हक दिया? फर्ज करिए कल से कोई अफसर पलट कर चोर नेता कहना शुरू करे, तो क्या होगा? इसी रास्ते भारतीय संविधान चलेगा? इस रास्ते तो झारखंड और अराजक बन जायेगा? 01.12.13 की ही खबर है. बोकारो में एक सज्जन अपनी पत्नी के साथ सुबह घूम रहे थे. एक बदमाश ने उनकी पत्नी के साथ सरेआम बदसलूकी की. उन्होंने विरोध किया, तो गोली मार दी. यह है कानून-व्यवस्था? एक दिसंबर की ही दूसरी खबर है कि झारखंड के चौपारण में एक रेंजर अनिल कुमार को एक विधायक पुत्र और मुखिया समेत चार लोगों ने पीटा. रेंजर का सिर्फ इतना कुसूर था कि उन्होंने सरकारी संपत्ति चुरानेवाले लोगों को पकड़ा था. ऐसे कितने मामले गिनाये जा सकते हैं, जो झारखंड में प्राय: हो रहे हैं.
इस टूट के बीच एक ही उम्मीद दिखाई देती है, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन. उनका मुख्यमंत्री बनने के बाद संजीदा व्यवहार, संयम और मर्यादापूर्ण बयान. उनके कुछेक मंत्री जो हरकत कर रहे हैं, वह सब महापाप है, भारतीय संविधान को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास. लेकिन यह सब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के संयमपूर्ण आचरण से दबा-ढका है. पर झारखंड की राजनीति में जो चलन दिखाई दे रहा है, वह सिर्फ झारखंड के लिए ही चुनौती नहीं है, बल्कि देश के लिए नासूर साबित होनेवाला है.