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आखिर कौन बने शिक्षक!

।। श्रीश चौधरी ।। प्राथमिक शिक्षा-2 : उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात शिक्षा व्यवसाय नहीं, बल्कि सेवा है. इतिहास के पन्नों का पलटें तो पाते हैं शिक्षण में बहुत पैसे तो कभी नहीं थे, परंतु आदर-सम्मान था. भारत में भी स्वतंत्रता के कुछ वर्षो बाद तक शिक्षक समाज का अति आदरणीय सदस्य था. […]

।। श्रीश चौधरी ।।

प्राथमिक शिक्षा-2 : उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात

शिक्षा व्यवसाय नहीं, बल्कि सेवा है. इतिहास के पन्नों का पलटें तो पाते हैं शिक्षण में बहुत पैसे तो कभी नहीं थे, परंतु आदर-सम्मान था. भारत में भी स्वतंत्रता के कुछ वर्षो बाद तक शिक्षक समाज का अति आदरणीय सदस्य था. अब बात ऐसी नहीं रही. वह एक चतुर्थ नहीं, तो तृतीय श्रेणी कर्मचारी हो गया है.

किसी भी शिक्षक में चरित्र-व्यक्तित्व ज्ञान एवं शिक्षा देने की कला होना आवश्यक है. अच्छे शिक्षक ही अच्छे विद्यार्थी उत्पन्न करते हैं. शिक्षा के लिए यदि और कुछ नहीं भी हो, भवन ना हो, डेस्क-बोर्ड भी नहीं हो, तो काम चल जायेगा यदि वहां शिक्षक उपलब्ध हों.

शिक्षक के बिना किसी भी प्रकार की शिक्षा की कल्पना असंभव है. अच्छे शिक्षक के बिना अच्छी शिक्षा की कल्पना बेमानी है. बिना वशिष्ठ व विश्वामित्र के राम या बिना द्रोणाचार्य के भीष्म एवं श्रीकृष्ण के अजरुन या बिना परशुराम के भीष्म स्वयं, या बिना अरस्तु के सिकंदर नहीं होते हैं.

1986 ईस्वी में मैंने अंगरेजी में एक लेख लिखा था, ‘शिक्षक कौन बने?’ मैंने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़ों से यह दिखाने की कोशिश की थी कि संपूर्ण विश्व में आठ प्रतिशत से भी कम अच्छे छात्र किसी भी स्तर पर शिक्षक बनना चाहते हैं.

यह स्थिति आज भी नहीं बदली है. अच्छे चरित्र (जो आप अकेले में है), अच्छे व्यक्तित्व (जो आपने अध्ययन-मनन में अजिर्त किया है) वाले कम ही छात्र शिक्षक बनना चाहते हैं. थोड़ी कम जानकारी, जरा कमजोर व्यक्तित्व, आदि से काम चल भी जाये, परंतु शिक्षक में अच्छे चरित्र का होना आवश्यक है.

यदि शिक्षक स्वयं सच नहीं बोलता है, स्वयं भय-स्वार्थ-लोभ काम मोह मुक्त नहीं है, तो वह और कुछ भी हो, अच्छा शिक्षक नहीं हो सकता है. अच्छा शिक्षक बिना बोले हुए अपने चरित्र-व्यक्तित्व से पढ़ाता है, उसकी बात नहीं, उसकी जीवन शैली अधिक प्रभावशाली होती है.

भगवान राम से लेकर गौतम बुद्ध होते हुए महात्मा गांधी तक ने अनेकों पीढ़ियों में करोड़ों व्यक्तियों को अपनी बातों से अधिक अपनी जीवन-शैली, अपने जीवन दर्शन से प्रभावित किया है. गांधी ने तो कहा भी था -’मेरा जीवन ही मेरा संदेश है.’

परंतु, सरकार-समाज की नीतियां कुछ ऐसी बनीं कि हम अच्छे युवकों को शिक्षा के क्षेत्र में आकर्षित नहीं कर पाते हैं. यहां ऐसे लोग भी आ रहे हैं, जो अन्य तथाकथित अच्छी नौकरियों में नहीं चुने गये हैं, जिनका अपने विषय का मौलिक ज्ञान भी संदिग्ध है. जो मंत्री तो क्या मुखिया से भी डरते हैं, कलक्टर तो क्या दारोगा से भी डरते हैं.

जिनके साथ हम अपनी बच्ची को अकेले रखने में डरते हैं आदि-आदि. वे हमारे बच्चों को क्या शिक्षा देंगे? और ऐसा इसलिए हुआ है कि हमने इस क्षेत्र में अच्छी प्रतिभा या चरित्र-व्यक्तित्व के लोगों को आकर्षित करने के लिए प्राय: कुछ नहीं किया है. शिक्षण में भारत ही क्या, विश्व में कहीं भी बहुत पैसे तो कभी नहीं थे.

परंतु शिक्षण में आदर था. स्वतंत्रता के कुछ वर्षो बाद भी भारत में भी, बिहार-झारखंड में भी शिक्षक समाज का अति आदरणीय सदस्य था. सारा गांव सारा समाज उसका आदर करता था. जब विश्वामित्र राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को मांगने गये, तो राजा दशरथ ने अपने सिंहासन से उठ कर उनका स्वागत किया था तथा अपने सिंहासन पर उनको बैठाया था.

1950-60 के दशक तक के शिक्षकों का यही स्वागत मैंने बिहार झारखंड में भी देखा है. डॉक्टर-जज-कलक्टर-मंत्री सभी उठ कर अपने शिक्षक का स्वागत करते थे, उनके अपने शिक्षक रहे हों तो पांव छूकर प्रणाम करते थे, सभा-सार्वजनिक स्थल पर उन्हें ऊंचा आसन मिलता था. राजा को पांच, परंतु गुरुओं को छह बार भी श्री लिखने का नियम था. अब ऐसी बात नहीं रही.

उनके वेतन के अनुकूल ही अब उनका आदर रह गया. वह एक चतुर्थ नहीं तो तृतीय श्रेणी, सरकारी, गैर सरकारी कर्मचारी हो गया. खुद से अधिक आय एवं अधिकार वाले किसी भी व्यक्ति के आगे खड़ा रहना उसका कर्तव्य था. पढ़ाने के अतिरिक्त उसे अब और भी काम करने थे.

चुनाव करवाना, पशु गणना-जनगणना, टीका-मलेरिया रोक, आदि अन्य अनेक काम इसके जिम्मे न्यूनतम अधिकार सुविधा एवं पारिश्रमिक के साथ अब इसकी लाचारी बन गये. सरकारी-गैर सरकारी समाज का ऐसा कोई अंग नहीं है जिसकी सुविधा-तनख्वाह इतनी सीमित एवं कर्तव्य क्षेत्र इतना असीमित हो. एक चुनाव की ही बात करें. कोई कारण नहीं है कि शिक्षकों को पाठशाला से हटा कर इस काम में लगाया जाये. उनका काम पढ़ना-पढ़ाना है, बक्सा-पेटी लेकर चुनाव कराना नहीं है.

शिक्षक संघों को इसका विरोध करना चाहिए. जो शिक्षक, कर्मचारी, वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर, आदि इच्छुक हों, इस कार्य में संलग्न होना चाहते हों वे जायें, जैसे होमगार्ड, टेरिटोरियल आर्मी आदि में जाते हैं, परंतु किसी को भी इन कार्यो के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए. अनादर का इससे अधिक दुखद रूप सोचना कठिन है.

जारी…

(लेखक आइआइटी मद्रास में मानविकी एवं समाज विज्ञान के प्रोफेसर हैं)

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