देश में बढ़ती असहिष्णुता पर पिछले हफ़्ते लोकसभा में हुई बहस के अंत में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों, कलाकारों और इतिहासकारों से इस फ़ैसले को बदलने की अपील की थी.
उन्होंने कहा था कि आप इस विषय पर बात करने के लिए बैठक बुलाइए जिसमें मैं ख़ुद शामिल होऊँगा.
राजनाथ सिंह का आमंत्रण बहुत अच्छा है. लेकिन वो गृह मंत्री हैं और ये मामला संस्कृति और मानव संसाधन मंत्रालय से जुड़ा है. गृह मंत्रालय अंदरूनी ख़तरों से जुड़े मामलों को देखता है. हम लेखक इस देश के लिए अंदरूनी ख़तरा नहीं हैं. हम लोग अंदरूनी शांति को बनाए रखना चाहते हैं.
बेहतर ये होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ऐसी बैठक बुलाएँ जिसमें विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सांस्कृतिक मामलों के मंत्री महेश चंद्र शर्मा शामिल हों. ये लोग इंटैलिजेंसिया के चुने हुए लोगों से बात करें और समझें कि उनकी समस्या क्या है.
अगर लेखक प्रश्न पूछें तो उन प्रश्नों के उत्तर भी दिए जाएँ. सरकार और लेखकों के बीच ये जो टकराव दिख रहा है उसके बारे में कभी इतालवी बुद्धिजीवी ग्राम्शी ने कहा था कि ये राजनीतिक तंत्र और नागरिक तंत्र के बीच का द्वंद्व है. इसे पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों और राजनीतिक सरकार के बीच का द्वंद्व नहीं मानना चाहिए.
इस दौर में सरकारों को ही राष्ट्र मानने की ग़लती की जा रही है. सरकार का विरोध करने वालों को बार-बार राष्ट्र विरोधी कह दिया जाता है. लेकिन सरकार राष्ट्र नहीं है. भारत संघीय गणराज्य है. पर इसे बार-बार राष्ट्र-राष्ट्र कहा जाता है. ये नेशन बनने की प्रक्रिया में है – बन सकता है या नहीं इसका जवाब भविष्य में है.
राजसत्ता के चार अंग होते हैं जिनके ज़रिए हमारा संविधान हमें सुरक्षित करता है, सुरक्षा की गारंटी देता है. उसमें अनुच्छेद 19 है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी देता है.
पुरस्कार वापसी के इस पूरे विवाद में उम्मीद तो ये थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद बोलेंगे. पर वो नहीं बोले, हालाँकि उन्होंने संविधान दिवस पर संसद में अच्छा भाषण दिया. मैंने उनकी तारीफ़ भी की थी जिस पर हिंदी के वामपंथियों ने मेरे बयान के ऊपर के हिस्से को लेकर मेरी आलोचना की.
पर मैंने तारीफ़ की थी तो संदेह भी प्रकट किया था. मैंने दोमुँहेपन या डबल स्पीक का ज़िक्र किया था. अपने उपन्यास 1984 में अँग्रेज़ उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने डबल स्पीक के बेहतरीन उदाहरण दिए हैं. यानी जो कहा जाता है वो किया नहीं जाता.
मैं अपने जीवन में लंबे समय तक समाजवाद और वामपंथ से जुड़ा रहा. वामपंथी विमर्श में जो बोला गया क्या वो किया गया? कौन सा ऐसा यूटोपिया था जिसे यथार्थ में बदलने की कोशिश की गई? हम सब जानते हैं कि हम सब डिस्टोपिया के समय में रह रहे हैं. अब स्वर्ग का लुभावना सपना हमें नहीं बेच सकता है. हम जागरूकता के युग में रह रहे हैं. हम अपनी सब मासूमियत खो चुके हैं.
जब मैंने पुरस्कार वापस करने की घोषणा फ़ेसबुक पर की, तब तक ये अंदाज़ा नहीं था कि ये मामला इतना बड़ा हो जाएगा. शुरू के 20-25 दिन तो मेरी आलोचना हुई, मज़ाक उड़ाया गया. हिंदी की तरफ़ से सबसे ज़्यादा आलोचना हुई.
उसके कुछ समय बाद जब नयनतारा सहगल ने पुरस्कार लौटाया, फिर अशोक वाजपेयी, के सच्चिदानंदन, शशि देशपांडे, माया राव आदि ने लौटाया. फिर थिएटर, इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र के लोगों ने बौद्धिक समुदाय की ओर से पुरस्कार लौटाए.
पर सरकार और अन्य संस्थाओं की ओर से क्या कहा गया? विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने कहा कि पुरस्कार लौटाने वाले शराबख़ोर (बिग बूज़र्स) हैं. फिर उन्होंने कहा कि ये लोग पैसा लेकर पुरस्कार लौटा रहे हैं. संस्कृति मंत्री महेश चंद्र शर्मा ने कहा पुरस्कार वापस करने वालों की पृष्ठभूमि की जाँच करनी चाहिए.
पर क्यों न हम नागरिक समाज के लोग इन राजनेताओं की पृष्ठभूमि की जाँच करें. जब बार-बार कैबिनेट मंत्रियों की ओर से इस तरह के बयान आए तो भय बढ़ता ही गया. फिर साहित्य अकादमी (हमारी संस्था) के प्रमुख ने ही कहा कि जिन्होंने पुरस्कार लौटाए हैं वो ब्याज भी लौटाएँ. उन्हें जो प्रतिष्ठा मिली है उसे भी अदा करें.
क्या ये लोग राष्ट्रीय संस्थाओं को किसी बैंक की तरह चलाना चाहते हैं. या हर कोई पुलिस और मिलट्री के अफ़सर हैं? चेतन भगत जैसे लेखक ने कहा कि पुरस्कार वापस करने वालों को अपने पासपोर्ट भी जमा करवा देने चाहिए. क्या हम लेखक कोई स्मगलर या टैक्स चोर हैं कि इस देश से भाग न पाएँ? हम यहीं रहें और मारे जाएँ. या फिर हर तरफ़ से अपमानित हों.
फिर कुछ समय बाद ही दादरी में (गोमांस खाने के शक में) अख़लाक़ की हत्या कर दी गई. युवा दलित लेखक हचंगी प्रसाद ने जातिवाद के ख़िलाफ़ लिखा तो उसकी उंगलियाँ काटने की धमकी दी गई. हालात यहाँ तक ख़राब हो गए कि ख़ुद हिंदुत्व के समर्थक सुधीर कुलकर्णी के मुँह पर कालिख पोती गई और ग़ुलाम अली को गाने से रोका गया. मेरा सवाल है कि क्या आप तराना, ख़याल, ठुमरी, तबला सबको बाहर कर देंगे? कहीं न कहीं ऐसा तबक़ा आ गया था जो जानता ही नहीं था कि इस देश की संस्कृति और परंपरा है क्या?
कलाएँ और खेल वो अंतरसूत्र हैं जो किसी देश और समाज को जोड़े रहते हैं. क्या आप चाहते हैं कि सभी लोग एक व्यक्ति या विचार के आदेश पर चलें. एके रामानुजन की किताब ‘हंड्रेड रामायण’ क्यों दिल्ली विश्वविद्यालय से हटाई गई?
विंडी डोनेगर की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुइज़्म’ को वापस लेने पर क्यों मजबूर किया गया? किताबों पर प्रतिबंध लगाना, पाठ्यक्रम बदलना, फ़िल्म और टेलीविज़न इंस्टीट्यूट में ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति करना जो सिनेमा के बारे में नहीं जानता है. नेशनल बुक ट्रस्ट, आइसीएचआर जैसी तमाम संस्थाओं में भी ऐसे ही लोग नियुक्त कर दिए गए हैं.
ये ऐसा आक्रमण है जो हमारी पूरी स्मृति, पूरी परंपरा पर होने जा रहा है. ये सब कुछ बहुत डरावना था जिसका विरोध होना ज़रूरी था. हिंसा का डर था– इसमें मौखिक हिंसा भी शामिल है.
अभी अभिनेता आमिर ख़ान ने अपनी पत्नी किरण राव के हवाले से कहा कि इस डर के माहौल में किरण ने हिंदुस्तान से बाहर जाकर रहने की बात कही. इस पर आमिर ख़ान को सोशल मीडिया में 40 लाख बार तमाचे मारे गए. वही आमिर ख़ान जिन्होंने 2014 में अपने सभी अंगों के दान की घोषणा की थी, जिसके सरोकार इतने गहरे हैं, अचानक उसके प्रति इतनी घृणा पैदा करवा दी गई. हम कैसा समाज बना रहे है?
आपने इस हिंदुस्तान को क्यों ऐसा कर डाला कि अांबेडकर की तरह सब लोग इस धर्म, इस भाषा से बाहर हो रहे हैं? ऐसा मत कीजिए. जातीय समीकरण गहरा होता है. इनके रोटी-बेटी के संबंध होते हैं. वही वाम है, वही दक्षिण है, वही संघ में है वही जनवादी लेखक संघ में है या जसम (जन संस्कृति मंच) में है. इसे रोकिए. एक अच्छा भारतीय बनिए. आधुनिक बनिए. जातीय ग्रंथों की बजाए बुद्ध की ओर जाइए, मार्क्स की ओर जाइए, या कुछ नहीं तो मेरी तरह सूफ़ी हो जाइए.
ये मेरी अपील है. मुझे शायद फिर से कई तरह के विवादों का सामना करना पड़ेगा. पर 64 साल तो हो चुके हैं. अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता. दो चार साल और जीवित रह गया तो बहुत है. ये ज़रूर चाहता हूँ कि कुछ लिखूं. अगर लिखूं तो समाज को जोड़ने की बात ही लिखूंगा, तोड़ने की बात नहीं लिखूंगा.
मुझसे पूछा जाता है कि क्या अब मैं लौटाए पुरस्कार को फिर स्वीकार कर एक नई पहल करना चाहूँगा? पुरस्कार वापस करना मेरे अकेले का फ़ैसला था. और अगर यह भी (पुरस्कार फिर स्वीकार करना) मैंने किया तो मुझे डर है कि मेरा ये क़दम भी कहीं एक सिंड्रोम न बन जाए.
किसी भी लौटाई चीज़ को लेना ठीक नहीं है. उसके लिए हिंदी में एक बहुत ख़राब मुहावरा है. पुरस्कार के साथ एक लाख रुपए की राशि भी है. एक फ़्रीलांस लेखक के लिए ये राशि बहुत बड़ी है. मैंने सुना है कि साहित्य अकादमी एक कमेटी बनाकर पुरस्कार की राशि के बारे में फ़ैसला करेगी. और तब तक हमने जो चेक वापस किए हैं उनकी मियाद ख़त्म हो जाएगी. इसका मतलब कि अकादमी ने हमारी राशि नहीं ली है. ऐसे में क्या होगा? वो रक़म तो हमारे बैंक में ही रह गई.
अब तो मैं हिंदू भी नहीं रह गया हूँ. मेरा आधा परिवार ईसाई हो चुका है. मैं हिंदू धर्म छोड़ रहा हूँ. नहीं छोड़ सकता क्योंकि उसमें जन्म लिया है मैंने. मेरी पत्नी भी दूसरी जाति की है. मेरा एक बेटा ईसाई है. आपने ऐसा क्यों कर डाला हिंदुस्तान को कि आंबेडकर की तरह सब लोग इस धर्म से बाहर हो रहे हैं, इस भाषा से बाहर हो रहे हैं. आप उनको और भगाकर पाकिस्तान भेजना चाहते हैं.
मेरा मन कहता है कि इस रक़म को हिंदी खड़ी बोली के आदिकवि ‘हज़रत अमीर ख़ुसरो’ की मज़ार को बेहतर बनाने के लिए दे दूँ. ख़ुसरो सूफ़ी हैं और निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य भी रहे. मैं पिछले 35 साल से वहाँ जाता रहा हूँ. उनकी मज़ार की हालत ख़राब है. इसके अलावा मैं कुछ रक़म मैं उन संस्थाओं को दे दूँगा और जो सहिष्णुता के लिए काम कर रही हैं.
अब मैं इस रक़म को वापस तो नहीं लूँगा और अगर सरकार ने मुझे हमेशा के लिए शत्रु नहीं मान लिया, तो मैं और लिखूंगा, अच्छा लिखूंगा तो पुरस्कार और मिलेंगे.
(बीबीसी हिंदी के रेडियो एडिटर राजेश जोशी से हुई बातचीत पर आधारित)
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