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मीडिया पर बहस!
हरिवंश पग-पग पर चुनौतियों के बावजूद 20 वर्ष का सफर. नीचे से शीर्ष की यात्रा. 500 प्रतियों (1989 अक्तूबर) से रोजाना छहों संस्करणों (रांची, जमशेदपुर, धनबाद, पटना, कोलकाता और देवघर) की छपनेवाली लगभग तीन लाख 15 हजार प्रतियां, पाठकों की कसौटी और स्नेह का प्रमाण है. प्रभात खबर रूपी जो झूला मिला, वह सोने का […]
हरिवंश
पग-पग पर चुनौतियों के बावजूद 20 वर्ष का सफर. नीचे से शीर्ष की यात्रा. 500 प्रतियों (1989 अक्तूबर) से रोजाना छहों संस्करणों (रांची, जमशेदपुर, धनबाद, पटना, कोलकाता और देवघर) की छपनेवाली लगभग तीन लाख 15 हजार प्रतियां, पाठकों की कसौटी और स्नेह का प्रमाण है. प्रभात खबर रूपी जो झूला मिला, वह सोने का नहीं, ईंट, कंकरीट और पत्थरों का था. बड़े घरानों के अखबार तो बड़ी पूंजी, बड़ी टेक्नोलॉजी, बड़ी प्रचार राशि और अपार संसाधनों से बने सोने के झूलों से यात्रा शुरू करते हैं, इसीलिए कंकरीट के झूलों से शुरू हई यात्रा की पीड़ा, पड़ाव और मानस लोग नहीं जानते-समझते. बड़े घरानों की चमक-दमक और पूंजी प्रदर्शन से लोगों को यही एहसास होता है कि सभी अखबार इसी रास्ते चल निकलते हैं. पर भिन्न रास्ते चल कर, झारखंड जैसे उपेक्षित समाज की पीड़ा को राष्ट्रीय फलक पर स्वर दिया, प्रभात खबर ने. 20 वर्षों बाद यहां तक पहुंचने का आनंद प्रभात खबर की टीम महसूस करती है, इसका प्रतिफल है, आज अखबार के साथ वितरित विशिष्ट परिशिष्ट.
प्रभात खबर की इस यात्रा में पाठकों, विज्ञापनदाताओं, एजेंटों और हॉकरों का समान योगदान है. इसलिए प्रभात खबर की टीम के साथ-साथ पाठकों, विज्ञापनदाताओं, एजेंटों और हॉकरों को भी बधाई. प्रबंधन के प्रति आभार, जिसने हर संकट से निबटने की रणनीति बनाने से लेकर आगे बढ़ने के रास्ते बताये. बदलती दुनिया को पहचानने और जगह बनाने के लिए प्रोत्साहित किया.
20 वर्ष पूरे होने पर प्रभात खबर ने 8 अगस्त से 14 अगस्त तक रांची में प्रभात उत्सव का आयोजन किया है. समाज के हर तबके के अनुरूप कार्यक्रम इस उत्सव में होंगे.
यह उत्सव क्यों?
अखबारों का जीवनस्रोत है, विज्ञापन. विज्ञापन, आर्थिक विकास का प्रतिफल (बाइ प्रोडक्ट ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट) है, जहां आर्थिक विकास न हो, वहां अखबार खड़े नहीं हो सकते. 1990 के बाद देश में जो भी आर्थिक विकास के सर्वे हुए हैं, उनमें लगातार बिहार पिछड़ेपन में सबसे नीचे पाया गया है. स्वाभाविक है, पिछड़े राज्यों में विज्ञापन नहीं होंगे. विज्ञापन की प्राणशक्ति नहीं होगी, तो वहां अखबार नहीं चलेंगे. 15 नवंबर, 2000 तक झारखंड, उसी बिहार का हिस्सा था. वह बिहार, जो देश का सबसे पिछड़ा राज्य था. उस पिछड़े राज्य का सबसे पिछड़ा इलाका था, छोटानागपुर. जो अलग होकर झारखंड बना.
उस पिछड़े सूबे से निकल कर प्रभात खबर आज यहां तक पहुंचा, फैला. अपनी प्रगति से इस बुनियादी मान्यता को गलत साबित किया कि समृद्ध राज्यों में ही कुछ हो सकता है. जहां विज्ञापन है, बाजार है, फलते-फूलते उद्योग-धंधे हैं, वहीं से बेहतर अखबार निकल सकता है. प्रभात खबर के लगभग सभी संस्करणों का जन्म ही अखबार उद्योग द्वारा स्क्रैप घोषित (सेकेंड या थर्ड हैंड) प्रिंटिंग मशीनों से हुआ. इस यात्रा से प्रभात खबर ने विकास का लो कॉस्ट मॉडल (कम पूंजी निवेश) विकसित किया. अगर एक छोटा संस्थान प्रतिकूल परिस्थितियों में ऐसा कर सकता है, तो अपार प्राकृतिक संपदा से भरा झारखंड भी देश के लिए एक मॉडल बन सकता है. इस मामूली उपलब्धि में निहित संभावनाओं के अजस्र स्रोत के प्रति उत्साह का प्रतीक है, प्रभात उत्सव.
देश-समाज-झारखंड की इस स्थिति के लिए रोज राजनीति, नौकरशाही, विधायिका, प्रशासन, पुलिस पर टिप्पणियां होती रही हैं. यह मांग उठती रही है कि दूसरों की छानबीन करनेवाला मीडिया अपना आत्ममूल्यांकन क्यों नहीं करता? अपने दामन के दाग नहीं देखता? गांधी के इंडियन ओपिनियन के प्रकाशन के सौ वर्ष की स्मृति में पूरे देश में अकेले प्रभात खबर ने विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, पत्रकारों की कसौटियों की उसमें भी चर्चा थी.
इस दोहरे बोध के कारण प्रभात खबर ने इस बार के विशिष्ट परिशिष्ट (20 वर्ष पूरे होने पर) में मीडिया को ही बहस का केंद्र बनाया है. उसके अंदरूनी संकट-पतन और भूमिका को समाज में नये सिरे से बहस के लिए प्रस्तुत किया है. देश के जाने-माने लोगों के विचारों को आपके सामने रखा है. प्रभात खबर जनसरोकार की पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्ध है और यह विशेषांक आत्ममूल्यांकन की प्रक्रिया का ही हिस्सा है. प्रभात खबर झारखंड के नवनिर्माण का सहयात्री है और पत्रकारिता में उच्च मानकों का सचेत प्रहरी भी.
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