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धमाकों के बीच मोदी ने की सही चोट

।। अजयसिंह ।। संपादक,गवर्नेसनाउ बड़ा सवाल : क्या मुसलिम+यादवों का दिल जीतने में कामयाब होगी भाजपा? बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में रविवार की सुबह करीब 10:30 बजे प्रेस बॉक्स के पीछे जोरदार धमाका हुआ. पंजाब में आतंकवाद, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद के दौर में मैंने ऐसे कई […]

।। अजयसिंह ।।

संपादक,गवर्नेसनाउ

बड़ा सवाल : क्या मुसलिम+यादवों का दिल जीतने में कामयाब होगी भाजपा?

बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में रविवार की सुबह करीब 10:30 बजे प्रेस बॉक्स के पीछे जोरदार धमाका हुआ. पंजाब में आतंकवाद, उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद के दौर में मैंने ऐसे कई आइइडी धमाके देखे और सुने थे.

मैंने महसूस किया कि ये धमाके भी निश्चय ही आइइडी से ही किये गये हैं. थोड़ी चिंता हुई. सावधानी के साथ मैंने आसपास के लोगों को देखा कि क्या रिएक्शन है, लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं. न कुछ दिखा ही. सब कुछ शांत. भाजपा कार्यकर्ताओं का एक समूह यह कह कर हालात सामान्य करने में जुट गया कि चिंता की कोई बात नहीं, एक ट्रैक्टर का टायर फटा है. पर, मैं इससे संतुष्ट नहीं हुआ.

इसके बाद एक के बाद एक तीन और धमाके हुए. हर धमाके के साथ मैं आश्वस्त होता गया कि हो न हो यह आइइडी विस्फोट है, जो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के रैली स्थल पर लगाया गया है. इसकी वजह से भयावह दृश्य उत्पन्न हो गया था.

लेकिन ताज्जुब हुआ कि मोदी को सुनने आयी भीड़ और माहौल पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा. दोपहर के बाद खबरें आनी शुरू हो गयीं कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की सभा के चारों ओर सिलसिलेवार बम विस्फोट हो रहे हैं. रेलवे स्टेशन पर भी एक धमाका हुआ है. कुल मिला कर धमाकों में छह लोगों की मौत हो गयी और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए.

बावजूद इसके, न भाजपा की ओर से, न ही वहां डय़ूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मियों की ओर से इसके बारे में एक भी शब्द कहा गया. सबसे विलक्षण बात यह थी कि गांधी मैदान में सब कुछ सामान्य ढंग से चलता रहा. मैदान में चारों तरफ उत्साही युवाओं का रेला था. मैं वहां का नजारा देख जान बचा कर भाग भीनहीं सकता था.

मैंने भी मीडिया के अन्य साथियों और वहां मौजूद भीड़ के भी बीच खुद को भाग्य के भरोसे छोड़ गांधी मैदान में डटा रहा.गांधी मैदान ऐसी कई ऐतिहासिक रैलियों का गवाह रहा है, जिसने भारत की राजनीति की दिशा और दशा बदली. यहां हुई हर रैली पिछली रैली से बड़ी मानी गयी. गुजरात के मुख्यमंत्री की 27 अक्तूबर की रैली भी कोई अपवाद नहीं थी. भाजपा नेताओं ने मोदी की रैली को पटना में हुई अब तक की सबसे बड़ी रैली करार दिया, तो विरोधियों ने इसे सामान्य रैली बताया.

लेकिन, इस बात से किसी ने इनकार नहीं किया कि मोदी की रैली कई मायने में पिछली रैलियों से अलग थी. खासकर भीड़ का व्यवहार. मोदी के भाषण के बीच-बीच में बिहार के कोने-कोने से आये युवा एक लय में शंखनाद (हिंदू धर्म में किसी शुभ कार्य की शुरुआत शंख बजा कर करते हैं) करते और माहौल को राजनीतिक से अधिक धार्मिक (भक्तिमय) बनाते रहे.

मोदी के भाषण के दौरान बीच-बीच में शंखध्वनि जारी रही. मैदान में बड़े-बड़े एलक्ष्डी टीवी की वजह से लोग मोदी को बेहतर तरीके से सुन रहे थे. पूरी तरह से हाइटेक मोदी की यह रैली धार्मिक, परंपरागत और आधुनिकता से लबरेज थी.

मैदान में मौजूद भीड़ ने साफ दिखाया कि वे एक अलग राजनीतिक विचारधारा के प्रणोता को सुनने आये हैं. यानी मोदी को. इसलिए अरुण जेटली और राजनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं के भाषण के बीच में भी लोग समवेत स्वर में ‘मोदी-मोदी’ चिल्ला बाधा पहुंचाने की कोशिश की.

मोदी ने भी उन्हें निराश नहीं किया. नये मुहावरों और संकेतों के जरिये लोगों में जोश भरने की कोशिश की. उन्होंने द्वारकाधीश भगवान के कृष्ण के बहाने बिहार-यूपी की शक्तिशाली यादव बिरादरी के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश की. उनका मकसद यादवों को अपने वोट बैंक से जोड़ने का था. मोदी जानते हैं कि नीतीश कुमार के राज में यादव समुदाय खुद को हाशिये पर रहा है.

उनके सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद हैं. इसलिए मोदी ने यादव समुदाय के वोट थोक में भाजपा की ओर आकृष्ट करने के लिए भगवान कृष्ण का संबंध गुजरात से जोड़ा.

मोदी ने राजनीतिक इतिहास भी खंगाला. नीतीश कुमार का बिना नाम लिये कहा कि सत्ता से चिपके रहने के लिए यहां के मित्र अपने राजनीतिक गुरुओं जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया तक को भुला दिया. मोदी का नीतीश पर यह हमला अकारण नहीं था.

दरअसल, जदयू का साथ छूटने के बाद निराश भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करने के लिए यह मोदी का सोचा-समझा पांसा था. इसका नतीजा भी मिला, भीड़ ने पूरे उत्साह के साथ मोदी की जय-जयकार किया.

मोदी ने यह भी स्पष्ट संकेत दिया कि वह सिर्फ हिंदुत्व की छवि में बंध कर रहने वाले नहीं हैं. उन्होंने ‘विकास का’ सपना भी दिखाया. उन्होंने बिहार के मुसलिम समुदाय से वादा किया कि सत्ता में आये, तो उनका भविष्य खुशहाल होगा. कुल मिला कर कह सकते हैं कि मोदी अपना पुराना कट्टर चोला उतार कर विकास पुरुष के रूप में उभर रहे हैं.

कुल मिला कर गांधी मैदान में जो लोग जुटे उन्हें मोदी में अपना ‘उद्धारकर्ता’ दिख रहा था. हालांकि भारतीय राजनीति में एक कोई नयी परिघटना नहीं है. आपातकाल से पहले के दौर में, जेपी ने ऐसा ही वातावरण तैयार किया था, लेकिन उनके राजनीतिक वारिसों ने इस मौके को गंवा दिया. बहुत दिन नहीं बीते, जब वीपी सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ विद्रोह किया.

इसके बाद ऐसा लगा मानो वह जनता को तमाम मुश्किलों से निजात दिला देंगे. जिन लोगों ने 1980 के अंतिम दशक में वीपी के समर्थन में ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है’ के नारे लगते सुने होंगे, वे उसकी तुलना आज ‘मोदी-मोदी’ के नारों से करेंगे. लेकिन, सिंह जितनी तेजी से लोकप्रिय हुए थे, उससे ज्यादा तेजी से उनकी लोकप्रियता जाती भी रही.

भाजपा में ऐसा ही उत्साह था, जब लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली और विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ मिल कर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन (एनडीए) बना. छह साल से भी कम समय में ही साबित हो गया कि एनडीए सरकार पिछली सरकारों से अलग नहीं है.

2004 में एनडीए को नकार कर यूपीए को सत्ता में लाना जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. जनता के क्रोध के रथ पर सवार मोदी ने गांधी मैदान में खुद को व्यक्तिगत ‘उद्धारक’ के रूप में पेश किया है, लेकिन किसी के व्यक्तिगत आभामंडल की एक सीमा होती है.

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