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संविधान से कुछ समुदायों के सामने पहचान का संकट

आरएनपी सिंह, सीनियर फेलो, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन, दिल्ली नेपाल के नये संविधान में मधेसियों और थारूओं की शिकायतों-चिंताओं का ख्याल नहीं रखा गया है. मधेसियों का मानना है कि संविधान में उनकी घोर उपेक्षा की गयी है. राज्यों का जो सीमांकन हुआ है, मधेसी उससे संतुष्ट नहीं हैं. हालांकि, एक धर्मनिरपेक्ष संविधान में सबको साथ […]

आरएनपी सिंह,
सीनियर फेलो, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन, दिल्ली
नेपाल के नये संविधान में मधेसियों और थारूओं की शिकायतों-चिंताओं का ख्याल नहीं रखा गया है. मधेसियों का मानना है कि संविधान में उनकी घोर उपेक्षा की गयी है. राज्यों का जो सीमांकन हुआ है, मधेसी उससे संतुष्ट नहीं हैं.
हालांकि, एक धर्मनिरपेक्ष संविधान में सबको साथ लेकर चलने की बात दर्ज होती है, लेकिन नेपाल में छोटे-छोटे समुदायों की इतनी बहुलता है, जिन्हें एक कर दिया जाये, तो उनकी पहचान खत्म हो जाती है. मधेसी, थारू और कुछ अन्य जनजातियां अपनी-अपनी पहचान को संविधान में दर्ज कराना चाहते हैं, क्योंकि अब तक नेपाल में ये द्वितीय श्रेणी के नागरिक बने रहे हैं, जिन्हें कम अधिकार मिलते रहे हैं. नये सीमांकन से मधेसी, थारू और कुछ जनजातियों को अपनी पहचान का संकट नजर आ रहा है, जिसका वे विरोध कर रहे हैं.
मधेसियों ने इस संविधान का जिस तरह से विरोध किया है, उसका स्वरूप भयानक है. इस विरोध के चलते 40 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. अपनी मांग को लेकर वे बहुत ही दृढ़निश्चयी दिख रहे हैं.
आगे वे इस विरोध को कितना बनाये रख पाते हैं, उनकी मांगों को मान लिया जायेगा या नहीं, इस बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता. हालांकि किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. नेपाल के इस पूरे घटनाक्रम में भारत की कोई भूमिका नहीं है.
असल में, वहां के नेताओं में प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति बनने की हड़बड़ी है, जिसके चलते वे जल्दीबाजी कर रहे हैं. संविधान बनने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पदों के लिए चुनाव होंगे. भारत ने बस इतना ही कहा था कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया में अभी और वक्त लिया जाना चाहिए, लेकिन वहां के नेताओं ने जल्दीबाजी कर दी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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