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यह राजनीति में गिरावट की इंतेहा

रजी अहमद, सचिव, गांधी संग्रहालय यह तो राजनीति में आयी गिरावट की इंतेहा है. सियासी पार्टियों में टिकट के लिए जो मारामारी हो रही है, उसने राजनीति को बेपर्दा भी कर दिया है. आज राजनीति कहां पहुंच गयी है? राजनीति में अब उसूलों की बात नहीं होती. पार्टी के कार्यकर्ता और विधायक-सांसद भी उसूलों से […]

रजी अहमद, सचिव, गांधी संग्रहालय
यह तो राजनीति में आयी गिरावट की इंतेहा है. सियासी पार्टियों में टिकट के लिए जो मारामारी हो रही है, उसने राजनीति को बेपर्दा भी कर दिया है. आज राजनीति कहां पहुंच गयी है? राजनीति में अब उसूलों की बात नहीं होती. पार्टी के कार्यकर्ता और विधायक-सांसद भी उसूलों से नहीं बंधे हैं. यह इसलिए भी है कि राजनीतिक पार्टियों के पास कोई उसूल नहीं है. कोई सिद्धांत नहीं है.
जब उनके पास सिद्धांत ही नहीं है, तो वे समाज को क्या देंगी? कैसा भविष्य रचेंगी. यह किसी एक पार्टी की बात नहीं रह गयी है. ले-देके ऐसा लगता है कि पार्टियां सिर्फ विधायक या सांसद बनाने के लिए रह गयी है. पार्टियों की भूमिका बदल गयी है. जब समाज के लिए, भविष्य के लिए कोई नजरिया, कोई टास्क नहीं है तो लोगों को भी लगता है कि अगर मूल काम विधायक अथवा सांसद बनना रह गया है. जब एक पार्टी किसी को टिकट नहीं देती है, तो वह टिकट के लिए किसी दूसरे दल में चला जाता है.
इन हालातों से राजनीतिक विश्वसनीयता को बुरी तरह प्रभावित किया है. राजनीतिक कर्म के प्रति लोगों में, समाज में बहरी उदासीनता के भाव इसलिए भी आये हैं. अब देखिए कि पार्टियां अच्छे लोगों को राजनीति में आने की बात करती हैं पर दूसरी ओर वह अच्छे लोगों को सामने नहीं लाना चाहतीं. हम यह नहीं कहते कि आप अच्छे लोगों को विधायक या सांसद का टिकट ही दीजिए. राजनीतिक कर्म एक बड़ा और पवित्र उद्देश्य के तहत होने वाला काम है.
पर आज की राजनीति अपने उद्देश्यों से ही भटक गयी है. क्या यह अजीब नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों का सारा कारोबार सिर्फ टिकट और चुनावों में उम्मीदवार चयन करने तक सिमट गया है. दूसरी बात यह है कि पार्टियां अब केवल बाबा नाम केवलम के सहारे चल रही हैं. पार्टियों में आलाकमान संस्कृति ने और भयावह स्थ्िित पैदा कर दी है. दिल्ली और पटना से अब सब कुछ तय होता है. राजनीतिक पार्टियों में ऊपर से नीचे तक कमेटियां होती थीं और उनकी अनुशंसा पर चुनाव में उम्मीदवार तय होते थे. पर आज न तो संगठन काम कर रहा है और न उसके साथ कार्यकर्ता काम करते हैं.
कोई उद्देश्य, बदलाव का कोई ब्लू प्रिंट नहीं होने के चलते कार्यकर्ताओं को उस काम में लगाने की परिपाटी भी खत्म हो गयी. ऐसे में सारा जोर सांसद और विधायक बनने पर केंद्रित हो गया है. आप कल्पना कर सकते हैं कि बिहार के जो पुराने नेता थे, आज क्या वे चुनाव जीत पाते? भोला पासवान शास्त्री, कपरूरी ठाकुर आज की राजनीति में कहां जगह पाते? आज महंगाई कहां पहुंच गयी, पर किसी भी राजनीतिक पार्टी का इससे कन्सर्न नहीं है.
बताती हैं कि राजनीति की प्राथमिकता बदल गयी है. समाज के मसलों से उसे कुछ लेना-देना नहीं रह गया है. मुङो लग रहा है कि समाज में एक किस्म की हताशा बढ़ रही है और राजनीति इसे नहीं समझ पा रही है.
हमारा एक पड़ोसी देश खुद को सेक्यूलर राष्ट्र घोषित कर रहा है और हम 68 साल बाद इसे हिंदू राष्ट्र बनाने की राह तलाश रहा है. क्या कोई समाज ऐसे चल पायेगा? मेरी मान्यता है कि राजनीति इन चीजों के प्रति दूर हो गयी है.

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