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साइकिल भी नहीं थी, पैदल किया था क्षेत्र का दौरा
श्रीकांत पाठक पूर्व विधायक, बक्सर 1985 से 90 तक बक्सर विधानसभा सीट से कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने वाले श्रीकांत पाठक बताते हैं कि जब उन्होंने चुनाव लड़ा था तो पैदल ही प्रचार किया था. उनके पास साइकिल भी नहीं थी. समर्थक अपने पैसे से मोटरसाइकिलों में पेट्रोल भरा कर गांव-गांव घूम कर प्रचार करते थे. […]
श्रीकांत पाठक
पूर्व विधायक, बक्सर
1985 से 90 तक बक्सर विधानसभा सीट से कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने वाले श्रीकांत पाठक बताते हैं कि जब उन्होंने चुनाव लड़ा था तो पैदल ही प्रचार किया था. उनके पास साइकिल भी नहीं थी. समर्थक अपने पैसे से मोटरसाइकिलों में पेट्रोल भरा कर गांव-गांव घूम कर प्रचार करते थे. लेकिन, उन्होंने खुद पैदल घूम-घूम कर प्रचार किया, वोट मांगे और फिर जीत हासिल की.
वह बताते हैं कि मैं कोलकाता में रहता था. गरमी की छुट्टी में बक्सर आया था. उस समय चुनावी माहौल था. बक्सर की जनता परिवर्तन चाहती थी. ट्रेड यूनियन का नेता और शिक्षक रहने के कारण कानून के मुताबिक मैं सोचता था और फिर भाषण भी देता था. किसान-मजदूर संघ बना कर मैंने मजदूरों का नेतृत्व किया, जिससे मेरे काम से बक्सर की जनता प्रभावित हुई. इसके बाद मुङो टिकट मिल गया. टिकट के लिए मैंने एक पैसा भी खर्च नहीं किया और चुनाव लड़ने के लिए भी नहीं किया.
विधायक बन गया. स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों पर चल कर आगे बढ़ा. 1985 के चुनाव में मेरे खिलाफ लोक दल से वशिष्ठ नारायण सिंह, सीपीएम से मंजू प्रकाश और भाजपा से प्रदुमन सिन्हा चुनाव लड़ रहे थे.
सभी जाति के लोगों ने मुङो वोट दिया और मैं जीत गया. वोटिंग का आलम यह था कि उमरपुर, जिगना, मुरारपुर में तो 100 प्रतिशत पोल हुए. इस पर सवाल भी उठाये गये. इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे बोर्ड में से पांच हजार वोट निकाल दिये गये. फिर भी 10 हजार से अधिक वोटों से मैं जीत गया.
श्रीकांत पाठक ने बताया कि उनके समय में लोग नेतृत्व पर विश्वास करते थे, नेतृत्व कार्यकर्ता पर विश्वास करते थे और फिर कार्यकर्ता आम जनता से जुड़े रहते थे. जिस दरवाजे पर जाते थे, उन्हीं के साथ खाते थे.
सम्मान देना और लेना दोनों साथ-साथ होता था. आज की राजनीति जात-पात की राजनीति हो गयी है. राजनीति में अच्छे लोग असहाय महसूस कर रहे हैं. नेता इतने हो गये हैं कि उनकी पार्टी के लोग उन्हें नहीं पहचानते हैं. भ्रष्टाचार और अफसरशाही राजनीति में घुसी हुई है. देश को सुधारना है तो पहले जनप्रतिनिधि को खुद सुधरना होगा.
ब्यूरो क्रैट में सुधार लाना होगा. आज स्थिति राजनीति की मदारी जैसी हो गयी है. मदारी की तरह राजनीतिज्ञ झूठ बोल कर व चकमा देकर वोट लेते हैं. व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति होती है जनता के लिए नहीं.
लोग पैसे खर्च करते हैं अपने स्वार्थ में और व्यवसाय के लिए चुनाव में पैसा लगा कर 10 गुना हासिल करने का सोचते हैं. सेवा भावना खत्म गयी है. जाति-पात की राजनीति में अच्छे लोगों की कीमत नहीं है. अच्छे बुरे का सवाल खत्म हो गया है. पैसे देकर टिकट खरीदा, पैसा देकर वोट खरीदो और फिर जनता का पैसा लूट कर चमचमाती गाड़ियां और अकूत संपत्ति जमा करा लो.यही दस्तूर बना है.
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