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तब हार और जीत प्रत्याशी की नहीं, जनता की होती थी
महावीर प्रसाद अकेला पूर्व विधायक, नवीनगर महावीर प्रसाद अकेला औरंगाबाद के नवीनगर विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अपने समय को याद करते हुए महावीर प्रसाद कहते हैं- राजनीति में 1960 और 70 के दशक तक की स्थिति अलग थी. उस समय लोग सेवा की भावना से ही राजनीति में आते थे. चुनाव भी इसी […]
महावीर प्रसाद अकेला
पूर्व विधायक, नवीनगर
महावीर प्रसाद अकेला औरंगाबाद के नवीनगर विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अपने समय को याद करते हुए महावीर प्रसाद कहते हैं-
राजनीति में 1960 और 70 के दशक तक की स्थिति अलग थी. उस समय लोग सेवा की भावना से ही राजनीति में आते थे. चुनाव भी इसी उद्देश्य के साथ लड़ते थे. चुनाव चाहे विधानसभा का हो या लोकसभा का, मकसद लोगों के बीच रहना और उनकी सेवा करना होता था.
इसके बाद रूखे मन से कहते हैं – अब वह चीज कहां है. लोग अपने-अपने मकसद के साथ नेता का चोला धारण कर रहे हैं. आंख बंद कर चुनाव पर धन बहा रहे हैं. पैसे के बूते ही जनतंत्र को जेब में रख लेने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं.महावीर प्रसाद बताते हैं कि उनके दौर में चुनाव में होनेवाली हार व जीत जनता की ही होती थी.
पहले तो जनता अपने चहेते प्रत्याशी को भरपूर सहयोग करती थी. गांव-गांव में एक रुपये, दो रुपये, आठ आने, चार आने तक का चंदा कर प्रत्याशी को सहयोग किया जाता था. सौ-दो सौ रुपये देनेवाले अच्छे सहयोगियों में गिने जाते थे. उस समय माना जाता था कि जनता स्वयं चुनाव लड़ रही है. हार भी जनता की व जीत भीउसी की.
अब धन-बल जोड़-तोड़ के साथ बाहुबल चुनाव में मददगार बन रहे हैं. इन्हीं के भरोसे चुनाव लड़ा जा रहा है. इसीलिए अब जीत और हार भी प्रत्याशी की ही होती है. और इसी वजह से प्रत्याशी जैसे भी हो, केवल जीतना ही चाहता है. चाहे उसके लिए उसे कुछ भी क्यों नकरना पड़े.
श्री प्रसाद कहते हैं – मैंने कभी हार नहीं मानी. 1967 में पहली बार सीपीआइ के टिकट पर चुनाव लड़ा. तब लगभग 17 हजार मत प्राप्त हुए थे. सत्येंद्र नारायण सिंह विजयी हुए. कामाख्या नारायण सिंह की जमानत जब्त हो गयी. उस वक्त मैं महज छह हजार रुपये में चुनाव लड़ा था.
पैसे आमलोगों के सहयोग से ही मिले थे. 1969 में अय्यर आयोग बैठा. उस दौरान छह प्रभावशाली लोगों का टिकट कट गया था. कांग्रेस से सरयू प्रसाद सिंह हमारे विरुद्ध चुनाव लड़े थे. उन्हें तब 10 हजार से हार का सामना करना पड़ा.
29 हजार वोट पाकर स्वयं विजयी हुआ. 1972 में कांग्रेस के युगल प्रसाद सिंह से लगभग 10 हजार वोट से हार का सामना करना पड़ा. 1977 में युगल प्रसाद सिंह चुनाव लड़े और जीते भी. सीपीआइ के धर्मदेव सिंह दूसरे नंबर पर रहे. इस चुनाव में मैंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया था.
इसके बाद फिर 1982 में एक विवादास्पद किताब (बोया पेड़ बबूल का) प्रकाशित करने के बाद विवादों से सामना हुआ. जेल भी गये और पार्टी ने निष्कासित भी कर दिया. 1990 में सीपीआइ को त्याग कर आइपीएफ से चुनाव लड़े. हालांकि तब लगभग सात हजार वोट से कांग्रेस के रघुवंश प्रसाद सिंह से हार हो गयी. इसके बाद तो सक्रिय राजनीति से ही संन्यास ले लिया.
मैं खुद जितना भी चुनाव लड़ा, किसी में खर्च का आंकड़ा आठ हजार तक भी नहीं पहुंचा. तब तक चुनाव को न अपराधी प्रभावित कर रहे थे और न नक्सली. पैदल गांव-गांव घूम कर चुनाव प्रचार होता था. चुनाव प्रचार के दौरान रात हो जाती तो जहां रहते, वहीं ठहर जाते थे.
कार्यकर्ता जी-जान से सहयोग करते थे. उनमें अपनत्व की भावना भी होती थी. तब प्रत्याशी और वोटरों दूरी नहीं रहती थी. सब साथ रहते, खाते-पीते और सोते थे. अब वो बात नहीं. अब तो नेता और कार्यकर्ता अलग-अलग दिखते हैं. दबंग किस्म के ही लोग चुनाव लड़ते हैं और जनता भी वैसे लोगों को ही चुनती भी है. इससे साफ है कि अब के दौर में वोटरों का मिजाज भी बदल गया है. सच कहा जाये, तो हम पोस्टर युग में हम जी रहे हैं.
प्रत्याशी चुनाव मैदान में पहुंचे, इससे पहले उसका पोस्टर पहुंच जाता है. पैदल घूमने का चलन भी खत्म हो गया है. गाड़ियों का काफिला प्रत्याशियों की पहचान बन गयी है. महंगी गाड़ियों का दिखावा अब शायद जरूरत है. लेकिन, कुछ किया नहीं जा सकता. जो भी बदलाव आया है, वह जनता ने सुनिश्चित किया है. आगे क्या होनेवाला है, यह भी वही जनता तय करेगी.
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