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कृष्ण बिहारी मिश्र

– हरिवंश – अपने गांव की तलाश में आदरणीय कृष्ण बिहारी जी से मिलना हुआ. मिलना, कहना गलत होगा, मिला, आमने-सामने तो लगभग डेढ़ दशक बाद. पर उन्हें जाना, उनसे रूबरू हुआ, महानगर मुंबई में. अपने गांव को तलाशते हुए उनके ललित निबंधों से रूबरू हुआ. लगा, जो अपनी बेचैनी, भाव, विचार और आवेग नहीं […]

– हरिवंश –
अपने गांव की तलाश में आदरणीय कृष्ण बिहारी जी से मिलना हुआ. मिलना, कहना गलत होगा, मिला, आमने-सामने तो लगभग डेढ़ दशक बाद. पर उन्हें जाना, उनसे रूबरू हुआ, महानगर मुंबई में.
अपने गांव को तलाशते हुए उनके ललित निबंधों से रूबरू हुआ. लगा, जो अपनी बेचैनी, भाव, विचार और आवेग नहीं कह-बोल सकता, उनका इतना सुंदर चित्रण, भावपूर्ण और संवेदनशील तरीके से. और इस तरह उनसे पहली मुलाकात (बिना देखे-मिले), ‘बेहया का जंगल’ (ललित निबंध और व्यक्तिपरक निबंधों का संग्रह) के माध्यम से हुआ. बिना मिले लगा, यह संकलन अत्यंत संवेदनशील, मूल्यपरक और पवित्र मन का उद्गार है.
सर्जनात्मक ऊंचाई और भारत की सर्वश्रेष्ठ परंपरागत ‘मनीषा’ की झलक भी मिली. पर पीले कवर की वह पुरानी प्रति छपाई की दृष्टि से अनाकर्षक थी. पर आज भी वह मेरे पुस्तक संग्रह में है. हालांकि अब आनंद प्रकाशन कोलकत्ता के सौजन्य से यह पुस्तक आकर्षक रूप में छपकर आ गयी है. पर मुंबई के मेरे अग्रज और प्रिय, शैलेंद्र तिवारी (कस्टम अफसर) ने कोलकाता से मंगवा कर वह पुस्तक मुझे भेंट दी थी. शैलेंद्र जी का असमय जाना, मेरे निजी जीवन के लिए शायद सबसे दुखद घटनाओं में से एक है.
‘धर्मयुग’ में काम करते हुए संयोग से उनसे एक विदेशी मित्र (मारीशस) राज हीरामन के माध्यम से मिलना हुआ था. पर अफसर होते हुए , इतना संवेदनशील, बड़ा इंसान और जागरूक विरले ही होते हैं. मेरी नौकरी के शुरूआती दिन थे. बहसें, विचार, मुद्दे हमारे अत्यंत निजी व आत्मीय संबंधों के पुल थे. गांवों को लेकर बहसें होतीं, तो कृष्ण बिहारी जी का नाम बार-बार उछलता. वही मेरी पहली मुलाकात थी.
हालांकि हिंदी पत्रकारिता पर उनका अद्भुत शोध ग्रंथ ‘हिंदी पत्रकारिता , निजी पुस्तक संग्रह में ला चुका था. हिंदी में इस गंभीरता, अध्ययन शोध, और संपूर्ण दृष्टि से पत्रकारिता पर, शायद दूसरी कोई पुस्तक नहीं है. यह मानक ग्रंथ है. आज जब हिंदी में पीएचडी/डी.लिट. डिग्री का कारोबार या स्तर के बारे में सुनता हूं , तो लगता है कि हिंदी की परंपरा कितनी समृद्ध रही है.
कृष्ण बिहारी जी ने डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में यह शोधप्रबंध लिखा था, कलकत्ता में अध्यापन करते हुए . हिंदी पत्रकारिता की समृद्ध परंपरा, मूल्य, त्याग और तेज को सामने लाने का काम जिस तरह कृष्ण बिहारी जी ने किया, और कर रहे हैं, वैसा कोई दूसरा नाम हिंदी विद्वानों में दिखायी नहीं देता. पर उनके इस योगदान का महत्व तो बाद में जाना, समझा या आत्मसात कर पाया. हालांकि आज भी मन, मस्तिष्क और संवेदना में, उनके गांवों के निबंध ही मेरी पहली पसंद हैं. क्योंकि ये निबंध उद्गार और बेचैनी मन को छूते, बांधते और स्पर्श करते हैं.
पत्रकारिता पर उनके श्रमसाध्य अध्ययन आज भी मुझे बौद्धिक योगदान और मस्तिष्क को प्रभावित करनेवाली कृतियां लगती हैं. बड़े विद्वानों पर उनके संस्मरणात्मक लेख सजीव और मार्मिक लगते हैं. हालांकि आमने-सामने तो लगभग डेढ़ दशक बाद हुआ. पर क्यों महानगरों में भी अपना गांव खोजता था? यह खोज कैसे कृष्ण बिहारी जी तक भी ले गयी.
37 वर्ष हुए गांव छूट गया. पर गांव मन में अटक भी गया. 70 में ही हाइस्कूल पास कर बनारस पढ़ने जाना हुआ. बनारस पढ़ते हुए भी लगा, गांव ही लौटना है. रात भर की यात्रा थी. आना-जाना भी होता था. आज सोचता हूं, वह गांव, जहां से आया, क्यों आज भी मन में अटका है? अत्यंत कठिन जीवन. दो पवित्र नदियों, गंगा और घाघरा के दोआब में बसा. साल में छह महीने बाढ़ में घिरे रहनेवाला. कभी भी किसी नदी में, घर और खेत गिर सकते थे.
जीने का एक ही साधन था खेती. वह भी बाढ़ के कारण, साल में सिर्फ एक फसल होती थी. यही शादी, ब्याह, जीने-मरने, बीमारी, तीमारदारी और भविष्य संवारने का एकमात्र साधन था. वह भी प्रकृति के भरोसे. आज पलट कर देखता हूं, तो लगता है, जीवन इतना कठिन भी हो सकता है?
पर वह संघर्ष और कठिनाई प्रिय लगते हैं, अब बाढ़ के दिनों में एक-एक रात जहां कयामत की रात लगती, वहां से नदी पार कर पहला बाजार ‘रिविलगंज’ या ‘रानीगंज’ या ‘सिन्हा घाट’ देखा, तो लगा यही बड़े शहर हैं. यही दुनिया का चरम है. बनारस गया, तो लगा, यूरोप-अमेरिका के शहर ऐसे ही होंगे. पहली बार पढ़ते हुए जब मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलूर (एनसीसी में होने के कारण) वगैरह देखा, तो लगा संसार कितना बड़ा, व्यापक, समृद्ध और आगे है.
फिर दुनिया के कई बड़े देशों-शहरों को भी जाना देखा, पर जो पिछड़ा, गरीब और चुनौतियों से भरा ‘गांव छूटा’ वह आज भी मन में अटका है. क्यों? गांव की गरीबी से निकला, तो शहरों की समृद्धि देखी. चाकचिक्य पाया. फर्राटेदार अंगरेजीवालों का रोबदाब देखा. सड़कें, गाड़ियां और महल दिखे. लगा कि मेरे गरीब गांव, अपढ़ लोगों के मुकाबले ऊंची हवेलियों-महलों में रहनेवाले लोग भी बड़े होंगे.
मानवीय, उदार, संवेदनशील और बड़ा सपना देखनेवाले. पर आज कह सकता हूं कि अपढ़ गांववाले, जिनकी सोहबत में पला-बढ़ा, सीखा, डांट खायी, कठिन जीवन जीया, उनमें से अधिसंख्य बड़े ऊंचे और सही अर्थों में बड़े लोग थे. उनके जीवन मूल्य, सरोकार, आत्मसम्मान, जुझारुपन, दुश्मन के प्रति भी मर्यादित विरोध जैसे संस्कार, डॉ कृष्ण बिहारी के लेखन-जीवन में मिलते हैं. इसलिए भी वे मेरे आदरणीय, प्रियजन और पूज्य हैं. इन्हीं मूल्यों, भावों और बोधों की तलाश में हर साल बार-बार गांव आता-जाता हूं . पर वह गांव जो ’70 में छोड़ आया, जो मन में अटका है, वह गांव अब उस गांव में भी नहीं है, जिसकी चर्चा कर रहा हूं. देश, काल, परिस्थितियां ही सच हैं. समय ही बलवान है.
सब कुछ बदलता है, यही सच है, इसलिए जो गांव ’70 में छोड़ आया, वह भी बदलना ही था. पर मेरा वह गांव, उसके उदात मूल्य, संस्कार, सरोकार, भाव और बोध, सब कुछ श्रेष्ठ रूप में कहीं दिखायी देते हैं, तो कृष्ण बिहारी जी के उद्गारों में, विचारों में, रहन-सहन और जीवन में. ‘बेहया का जंगल’ की परंपरा में ही, बाद में आया उनका निबंध संग्रह ‘मकान उठ रहे हैं ‘ , और ‘आंगन की तलाश’ भी महत्वपूर्ण कृतियां हैं.
लेखक की पैनी दृष्टि, विवेचन और विश्लेषण से पग-पग पर रूबरू करातीं गरीबी में भी वह आन-बान, टेक, स्वाभिमान, जो मैंने अपढ़ लोगों में, अपने गांव में पायी, वह इस आक्रामक बाजार की दुनिया में भी कृष्ण बिहारी जी में है. आधुनिक जीवन में बाजार और पैसे ने, प्रतिभाओं और बौद्धिक रहनुमाओं का सत्व, तेज और सात्विक आक्रोश हर लिया है. वहीं महानगर कोलकाता में चार-पांच दशकों से रहते हुए भी कृष्ण बिहारी जी अप्रभावित हैं. यह असाधारण बात है. कह सकता हूं कि उनकी माटी, खांटी है.
अखबार की नौकरी दास बना लेती है. समय, आपके वश में नहीं रहता. नौकरी के नियंत्रण में ही समय और जीवन कटते हैं. वह भी आज की प्रतिस्पर्द्धा में क्या कहना? फिर भी कोशिश होती है कि कोलकाता जाऊं, तो एक बार कृष्ण बिहारी जी से बतिया लूं या मिल लूं. वह चाहते तो बड़े से बड़े पद पर जा सकते थे.
ज्ञान का कारोबार करनेवाले मामूली ज्ञानी प्राध्यापकों को देखता हूं, उनका अहं कार, धंधा, रूतबा, ऐशो आराम और ऐश्वर्य भी. तब लगता है कि आजादी के बाद हम फिर तुरंत दास बन गये. दास, पद, पैसे, भ्रष्टाचार, फरेब, अहं कार और तिकड़म का. आत्मसम्मान, बौद्धिक पूंजी और स्वाभिमान गिरवी रखनेवालों का.
पैसेवालों के अभिनंदन में हिंदी विद्वान आज अपना ज्ञान बेचते हैं. कसीदे पढ़ते हैं, वहां कृष्ण बिहारी जी को देखता हूं, तो लगता है, सब कुछ खत्म नहीं हुआ. आज भी अपवाद हैं. आज भी गौरव के, भारतीय संस्कारों के, मूल्यों के प्रतीक समाज में हैं. अहं काररहित, विनम्र पर अपने वसूलों के प्रति सचेत-सजग कृष्णबिहारी जी को उनके मूल्यों से डिगाना कठिन है.
कृष्ण बिहारी जी मेरे पड़ोसी भी हैं. उनका गांव मेरे गांव के पास है. वह भी किसान परिवार में ही जन्मे. हालांकि उनके परिवार ने कलकत्ता में सफल व्यवसाय भी किया था. पर व्यवसाय और कृष्ण बिहारी जी का रिश्ता कैसे जमता? वह व्यवसाय के उत्तराधिकारी नहीं बने.
वह बन नहीं सकते थे. मुनाफे का गणित और संवेदना, लाभ और करुणा, साथ-साथ नहीं चलते. उन्हें गंवई संस्कार मिले. आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य चंद्रबली पांडेय, अज्ञेय जी, डा. विद्यानिवास मिश्र जैसे लोगों का जो अंतरंग रहा हो, प्रिय रहा हो, वह तो इस दौर की भीड़ में अलग होगा ही. इसलिए कृष्ण बिहारी जी अलग हैं.
मुझसे उनकी कई गंभीर शिकायतें भी हैं. मसलन पत्र का जवाब न देना. उनकी पुस्तकें न पढ़ना. पर चुपचाप उनकी बातें या आरोप सुनने का आनंद भी अलग है. पर सच यह है, कि उनकी लगभग सभी पुस्तकें मेरे संग्रह में हैं. उदास और निराश क्षणों में कृष्णबिहारी जी की अलग-अलग पुस्तकों के अंश प्राय: पलटता-पढ़ता हूं. नयी ऊर्जा और दृष्टि के लिए. पर उनकी सुंदर हस्तलिपि में भेंट पुस्तकों की प्रतीक्षा रहती है. यह आत्मीयता, आज की दुनिया में कम मिलती है.
यह उन्हें नहीं कहता कि आपको पत्र लिखने के बदले मिलना ही चाहता हूं . उनसे बतियाना या बतरस में डूबना एक अनोखा आनंद है. वह उद्भट विद्वान ही नहीं गहरे अध्येता भी हैं. आज हिंदी की दुनिया में ऐसे कम लोग हैं, जो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की महत्वपूर्ण पुस्तकों को पढ़ने और उस पर गहराई से सोचने-लिखने का काम करते हैं. महर्षि अरविंद, तिलक, विनोबा, गांधीजी वगैरह की रचनाओं को बात-बात में पुस्तक और संदर्भ के साथ जैसे वह उल्लेख करते हैं, सुननेवाले को हैरत हो सकती है.
गांधीवादी अर्थशास्त्र पर चर्चा करते हुए एक बार उन्होंने मुझे प्रो. जेके मेहता की एक पुस्तक का हवाला दिया. पुस्तक की कुछ महत्वपूर्ण बातें बतायी. फिर अपने संग्रह से खोज कर वह महत्वपूर्ण पुरानी पुस्तक पढ़ने के लिए दी. अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा, इसलिए प्रो. मेहता को जानता था.
वह चोटी के उद्भट विद्वान थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहे. दुनिया में जाने जाते थे. इतने बड़े अर्थशास्त्री ने गांधी के आर्थिक सोच-चिंतन को एक अर्थशास्त्री के रूप में जैसे प्रतिपादित किया है, वह आज ग्लोबल दुनिया के लिए विचारणीय है, पर अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होते हुए भी प्रो. मेहता की इस अनमोल कृति की चर्चा कृष्णबिहारी जी से मैंने सुनी.
कलकत्ता आनंद बाजार समूह में काम करने पहुं चा, तो कृष्ण बिहारी जी के बड़े पुत्र और मेरे भी आत्मीय कमलेश जी के सौजन्य से उनसे मिलना हुआ. उनके पुस्तक भंडार और आत्मीय बरताव ने फिर बांध लिया.
उनसे तर्क-वितर्क की क्षमता या योग्यता मुझमें नहीं, पर पुराने मूल्यों, संस्कारों, आजादी की लड़ाई के धवल प्रसंगों-चरित्रों, हिंदी पत्रकारिता की तेजस्विता व आत्मसम्मान, गंवई वसूलों, गांधी, लोहिया, विनोबा, जेपी वगैरह पर उन्हें धाराप्रवाह सुनना अच्छा लगता है. उनकी सहजता, विनम्रता और ज्ञानवान होने पर भी अहंकार रहित व्यक्तित्व, प्रभावित करते हैं.
साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा, शुष्क विषय अर्थशास्त्र पढ़ा. पर साहित्य पढ़ने-जानने की रुचि न होती, तो जीवन शायद अर्थहीन और बोझ ही होता. गांवों या हिंदी समाज को समझने-जानने के लिए जब फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’ , श्रीलाल शुक्ल की ‘रागदरबारी’ , राहीमासूम रजा का ‘आधा गांव’ और शिव प्रसाद सिंह का ‘अलग-अलग वैतरणी’, पढ़ा तो लगा कि ऐसी कृतियों को पढ़ने के बाद हिंदी इलाकों को समझने-जानने के लिए किसी समाजशास्त्री को पढ़ना जरूरी नहीं, सामाजिक बदलाव, यथार्थ, जटिलताएं, समाज का तानाबाना, सामूहिक सोच, संघर्ष, जीवन, ओछापन…सब कुछ आईने की तरह दिखाती कृतियां. उसी तरह कृष्णबिहारी जी के निबंध संग्रह ‘बेहया का जंगल’, शुरू-शुरू में पढ़ा, तो 1942 के विद्रोही बलिया का मिजाज, पृष्ठभूमि, गांवों के स्वाभिमान, मूल्यों और मानस को निकट से समझ और महसूस कर सका.
पिछले दो दशकों से अधिक से उनका सानिध्य-स्नेह हमें मिला है. पर यह संबंध, कई मजबूत और मेरे प्रेरक संबंध सेतुओं से भी गुजरता है. इनमें से एक हैं, श्रद्धेय नारायण दत्त जी. स्नेह और आदर से जिन्हें आज भी हम ‘भाई साहब’ कहते हैं. मुंबई में जब जीवन व्यापार में उतर रहा था, तब भाई साहब से मुलाकात हुई. तब वह मासिक पत्रिका ‘नवनीत’ का संपादन करते थे. आज भी मेरा मानना है कि भाई साहब के संपादन में ‘नवनीत’ जैसा निकला, वैसी कोई दूसरी पत्रिका नहीं.
पर भाई साहब के सामने नहीं कह सकता. क्योंकि उनकी मिट्टी, संस्कार और सरोकार ही भिन्न है. वह प्रखर पत्रकार गणेश मंत्री (धर्मयुग के पूर्व संपादक) और विश्वनाथ सचदेव (नवभारत टाइम्स, मुंबई व धर्मयुग के पूर्व संपादक) मुंबई में नहीं मिले होते, तो मेरी निजी दुनिया निश्चित ही विपन्न-कंगाल होती. वही नारायण दत्त जी भी , कृष्णबिहारी जी के आत्मीय हैं.
कृष्णबिहारी जी जिस तरह नारायण दत्त जी की चर्चा करते हैं, या नारायण दत्त जी, कृष्णबिहारी जी के बारे में जो कहते हैं, इससे मुझे लगता है, कि सचमुच जो ज्ञानवान, बड़े और दृष्टिसंपन्न हैं, उनकी संख्या बढ़े तो यह धरती कितनी आकर्षक और आनंददायक हो सकती है.
मेरे एक और प्रिय और प्रणम्य हैं, कृष्णनाथ जी, अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक, समाजवादी, लेखक, घुम्मकड़यात्री और अब दार्शनिक. काशी के बाशिंदे. पर तेज, ज्ञान और चरित्र, प्रेरक, पूजनीय और अनुकरणीय. कृष्ण बिहारी जी के भी पसंदीदा और प्रिय. दरअसल नारायणदत्त जी हो या कृष्णनाथ जी या कृष्णबिहारी जी. ये व्यक्ति अलग-अलग हो सकते हैं, पर इनका व्यक्तित्व, जीवनशैली, चिंतन, कहीं-न-कहीं एक मिट्टी-संस्कार से बंधा, जन्मा और बना है.
वह है उदात्त भारतीय परंपरा के श्रेष्ठ मूल्यों, आदर्शों और सत्वों पर टिका. इसलिए ये सभी मुझे सम्मोहित करते हैं. ग्लोबल होती दुनिया में भी इनका होना, इनकी उपस्थिति, इनका लेखन, जीवन-शैली, कृतित्व मेरे लिए जीवंत प्रमाण हैं कि संवेदनशील मानवीय रिश्तों की वैकल्पिक दुनिया आज भी संभव है.
लगभग एक साल हुए. मेरे नित्य पूज्य आराध्य, रामकृष्ण परमहंस पर कृष्णबिहारी जी की कालजयी कृति प्रकाशन के काफी बाद की बात है. मैं व मेरी पत्नी चेन्नई से लौटे थे.
कृष्णबिहारी जी हमें ‘दक्षिणेश्वर’ ले गये. वहां पहले भी जा चुका हूं. पर उनके सोहबत-सानिध्य में देखा दक्षिणेश्वर हम भूल नहीं सकते.
एक-एक ईंट, मूर्ति, जगह की जीवंतता के साथ बखान. कृष्णबिहारी जी मुझसे बार-बार पूछते हैं, आपने यह पुस्तक अभी तक नहीं पढ़ी? सच तो यह है कि इस पुस्तक की इतनी चर्चा, प्रशंसा और समीक्षाएं पढ़ी हैं कि लगता है, पढ़ चुका हूं. पुस्तक मिलते ही मेरी पत्नी ने ले लिया. वह आद्योपांत एक साथ पढ़ गयीं.
पढ़कर उसके मार्मिक अंशों को लगातार सुनाते-बताते हुए . आध्यात्म वह आधारभूमि है, जहां खड़े होकर कृष्णबिहारी जी जब भक्ति युग के हिंदी कवियों, उनके स्वाभिमान, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, महर्षि रमण, हमारे इलाके के हुए प्रसिद्ध संतों-मनीषियों-ऋषियों की चर्चा करते हैं, तो लगता है कि हमारी परंपरा में जरूर कुछ है, कि जब यूनान, रोम, मिस्र सब जहां से मिट गये, पर हमारी हस्ती नहीं मिटी.
आज जब ग्लोबल होती दुनिया में इसी भारतीय मनीषा-संस्कृति-सत्व पर उपभोक्तावादी दर्शन का हमला हो रहा है, तब कृष्णबिहारी जैसे लोगों पर कोई भी प्रकाशन, लेखन या सम्मान, अपनी विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने का पवित्र काम है.
अपने हित में, परिवार संस्था के हित में, समाज के हित में, देश के हित में. इस दौर की चुनौतियों से निबटने के लिए अभी कृष्णबिहारी जी के श्रेष्ठ रचना कर्म की हमें प्रतीक्षा है. वह शतायु होकर हमें इसी तरह प्रेरित करते रहें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ.
दिनांक : 27-09-07

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