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मुजफ्फरपुर से प्रभात खबर

09.10.2010 से प्रभात खबर मुजफ्फरपुर से छप रहा है. चर्चिल ने विश्वयुद्ध के समय कहा था. अतीत को जितनी दूर तक पीछे देख सकते हों, देखें. इससे भविष्य के लिए संदेश मिलता है. रास्ता भी. आज मुजफ्फरपुर प्रभात खबर कार्यालय में अपने साथियों के साथ बातचीत में यह प्रसंग याद आया. बाबा आमटे भी याद […]

09.10.2010 से प्रभात खबर मुजफ्फरपुर से छप रहा है. चर्चिल ने विश्वयुद्ध के समय कहा था. अतीत को जितनी दूर तक पीछे देख सकते हों, देखें. इससे भविष्य के लिए संदेश मिलता है. रास्ता भी. आज मुजफ्फरपुर प्रभात खबर कार्यालय में अपने साथियों के साथ बातचीत में यह प्रसंग याद आया. बाबा आमटे भी याद आये.
1985 के आसपास उनके आश्रम गया था. रविवार पत्रिका में रिपोर्ट करने के लिए. बाबा से पूछा, आनंद वन (कुष्ठ रोगियों के लिए आश्रम) कैसे बना? बाबा और ताई (उनकी पत्नी) ने बताया. एक लंगड़ी गाय, वह भी बिसूखी (जो दूध नहीं देती) हुई. जमा पूंजी छह आने नकद पैसे. दो-चार कुष्ठ रोगी. कुल यही मानव संपदा, पशु संपदा व पूंजी संपदा से हमारी शुरुआत हुई. चंद्रपुर (नागपुर के पास) की निर्जीव पहाड़ियों व बंजर जमीन में आनंद वन बना, इसी संपदा व ताकत के बल पर.
अक्तूबर, 1989 में प्रभात खबर के पुनर्जीवन के प्रयास में जब हम साथी लगे, तो बाबा की कही बात याद आयी. हम और हमारी टीम को सतत प्रेरित करनेवाली बात. प्रसंग. आज मुजफ्फरपुर से संस्करण शुरुआत के दिन चर्चिल का कथन भी याद आया. प्रभात खबर के पुराने प्रयास व काम भी.
हालांकि, इस अखबार की शुरुआत 1984 में तत्कालीन बिहार के रांची से हुई, पर 1989 आते-आते यह लड़खड़ाने लगा. बमुश्किल 400 प्रतियां बिकती थीं. तब दिग्गज व स्थापित अखबार सामने थे. रांची में रांची एक्सप्रेस का साम्राज्य था. जमशेदपुर में उदित वाणी का बोलबाला था. धनबाद की आवाज था, वहां से छपनेवाला ‘आवाज’. इसके अलावा भी कई छोटे-मोटे अखबार थे. आज रांची, जमशेदपुर व धनबाद तीनों जगहों से छपता था. खूब बिकता था. वे दिन अयोध्या उन्माद के दिन थे. पटना से कई अखबार तत्कालीन दक्षिण बिहार पहुंच कर शीर्ष पर थे.
इन कठिन चुनौतियों के बीच ‘प्रभात खबर’ को पुनर्जीवित करने की कोशिश हुई, एक प्रतिबद्ध टीम से. संपादकीय, गैर संपादकीय हर विभाग में यह टीम थी. कोलकाता, दिल्ली व अन्य जगहों से बड़े संस्थान छोड़ कर कुछ साथी आये. पत्रकारिता में एक नये प्रयोग के लिए. यह आजमाने के लिए कि क्या पत्रकारिता समाज पर असर डाल सकती है? तब इस टीम के पास सिर्फ सपने थे. साधन नहीं, पूंजी नहीं, बैठने की पर्याप्त जगह नहीं, छपाई की दृष्टि से आउटडेटेड या स्क्रैप हो चुकी आठ पेज छापनेवाली बंधु मशीन. मैन पावर जरूरत से कई गुणा ज्यादा.
दूसरे अखबारों से कटिंग-पेस्टिंग कर, यह अखबार अगले दिन की रोशनी देखता था. न कोई सप्लीमेंट, न विशेष सामग्री. यह वही दौर था, जब देश करवट ले रहा था. दो मोरचों पर. एक ओर अयोध्या की आग का ताप फैल रहा था. दूसरी ओर, आजादी के बाद की अर्थनीतियों ने देश को कंगाल बना दिया था, लगभग दिवालिया. उन्हीं दिनों दुनिया नये कगार पर थी. टेक्नोलॉजिकल रिवोल्यूशन के. जिसके गर्भ से ग्लोबलाइजेशन, उदारीकरण, सूचना क्रांति व नॉलेज एरा का उदय हुआ. मोबाइल क्रांति दूर देशों में आहट दे रही थी.
टीवी चैनलों की आवाजें दस्तक देने लगी थीं, पर फूलफॉर्म में नहीं. पूंजी निर्णायक भूमिका में थी. विचार और वाद ढलान पर थे.
उन्हीं दिनों पत्रकारिता के साथी कहते कि पत्रकारिता का मर्म तो महानगरों में है. सत्ता के पास रहने में है. इस विद्या के ग्लैमर से खुद को जोड़ने में है. तब शुरुआत हुई थी, पत्रकारिता को मंच बना कर राज्यसभा या सत्ता गलियारे में पहुंचने की या इस माध्यम को लॉबिंग में इस्तेमाल करने की.
महानगरों की तुलना में जंगल
तभी प्रबंधन से लेकर संपादकीय में कुछ साथियों ने जंगल(तब महानगरों की तुलना में रांची जंगल ही कहा जाता था) से धारा के खिलाफ प्रभात खबर में प्राण डालने व नयी जान फूंकने का विकल्प चुना.
आज भी उनमें से कई साथी साथ हैं, हर विभाग में, हर बड़े प्रस्ताव या प्रलोभन के बावजूद. कुछ अन्यत्र हैं. अच्छी जगहों पर. इन सबके सामूहिक प्रयास ने यह नयी कोशिश की. तब जाने-माने पत्रकार पूछते या व्यंग्य करते कि अखबारों की सूची में सबसे नीचे के पायदान पर जड़ जमा चुका प्रभात खबर कहां ठौर पायेगा? अखबारी दुनिया के एक जाने-माने प्रबंधन विशेषज्ञ से, इस अखबार ने अपने भविष्य का आकलन चाहा.
1991 में उनकी रिपोर्ट आयी, जितना जल्द यह बंद कर दिया जाये, उतना ही बेहतर. वे सही थे, क्योंकि अखबारों की तत्कालीन प्रतिस्पर्द्धा में ‘प्रभात खबर’ कहीं था ही नहीं. न थी सुविधाएं या आवश्यक पूंजी. सारे लॉजिक इस अखबार के चलने और इसके बुनियादी अस्तित्व के खिलाफ थे. दूर-दूर तक भविष्य में कहीं रोशनी नहीं.
पर एक टीम थी, जो नयी व भिन्न पत्रकारिता चाहती थी. मुद्दों के ईद-गिर्द. ऐसी ही युवा व समर्पित टीम थी प्रबंधन में (विज्ञापन, सर्कुलेसन, प्रोडक्शन, वगैरह) जो अकल्पनीय मुसीबतों और अभाव में भी कुछ कर दिखाने के लिए तत्पर थी.
तब बिहार, विकास की दृष्टि से सबसे पिछड़ा राज्य था. और उन दिनों छोटानागपुर बिहार का सबसे पीछे छूटा हिस्सा. अखबार, विज्ञापन से चलते हैं. विज्ञापन के बारे में तथ्य है कि यह डेवलपमेंट का बाइप्रोडक्ट है. इसलिए जहां विज्ञापन नहीं, वहां अखबार की गुंजाइश नहीं.
पर, इस टीम ने एक ही संकल्प लिया-हमें भिन्न अखबार बनना है, अलग पहचान के साथ. हमने दूसरे बड़े महारथियों से अपनी तुलना छोड़ दी. हम सब डूब गये अपने संसार में. सीमित साधनों में ही, क्या राह होगी? कैसे हम अपने ही मापदंड पर एक्सीलेंस (श्रेष्ठता) हासिल कर सकते हैं. अपना मुकाबला खुद से. हां, प्रभात खबर ने खुद को जोड़ा समाज के मूल सवालों से.
बीमारू राज्य का संदर्भ और हम
हमने माना कि 80 के दशक में डेमोग्राफर इन चीफ प्रो आशीष बोस ने हिंदी इलाकों को बीमारू कहा, तो हमारी भूमिका क्या हो सकती है? भ्रष्टाचार, गवर्नेंस, मूल्यहीनता की राजनीति के बीच हम क्या कर सकते हैं.
याद रखिए, उन्हीं दिनों उदारीकरण का दौर आया. और उसके साथ आयी पत्रकारिता की नयी विद्या, पेज-3 की पत्रकारिता. यानी, रियूमर (अफवाह), गॉसिप, लाइफ स्टाइल, महानगरों में होने वाली भोग-विलास की पार्टियों की खबरें, संपन्न घरानों की चर्चित शादियां और राजनीतिक गलियारों की अफवाहें. गांधी हमारे आदर्श थे.
हमारा काम बोले, हम नहीं. हमारा पाथेय था. आज मार्केटिंग एक्सपर्ट या ब्रांडिंग के माहिर लोग इसे प्रभात खबर का ॠण पक्ष मानते हैं. इस दौर में आत्म प्रचार या चर्चा ब्रांडिंग के लिए अपरिहार्य कदम माना जाता है. बहरहाल तब प्रभात खबर के एक-एक साथी, चाहे वे जिस विभाग में हों दूसरे विभाग का काम सीखने को उत्सुक, बिना श्रेय लिये या बताये. मल्टी स्किलिंग क्षमता विकसित करने की कोशिश. अज्ञेय की एक पंक्ति याद रहती थी, जब विकल्प न हो, तब जीवन कितना आसान हो जाता है.
अभावों का संसार था. इसलिए बीच-बीच में काम बंद कर देने वाली मशीन पर कंपोजिंग या पुराने यंत्रों-मशीनों पर ही काम होना था. विकल्पहीन स्थिति. इसी कार्य संस्कृति का परिणाम है कि अखबार के विशेषज्ञों ने जिस अखबार की आयु दो-एक महीने बतायी या कुछ अखबार घरानों के विशेषज्ञों ने उदार होकर वर्ष भर का समय दिया, आज वह जन्म के 26वें साल में है. और उत्तर बिहार की सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर से आरंभ हो रहा है. इसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ पाठकों को है. यह अखबार इस मिट्टी का अखबार है.
रांची से निकल कर जमशेदपुर गया.उसी टूटी-फूटी और स्क्रैप प्रिंटिंग मशीन (बंधु) को लेकर. उसी मशीन से धनबाद में शुरुआत हुई, क्‍योंकि वह अभाव की दुनिया थी. संसाधनों के सपने हम नहीं पाल सकते थे. इसी तरह, देवघर में भी हैदराबाद से लाकर अत्यंत पुरानी व जर्जर मशीन से हमने शुरुआत की. और शुरू होने के कुछ ही दिनों के अंदर हम सबसे आगे पहुंचे. महज इस वजह से कि प्रभात खबर ने समाज के जीवन व धड़कन से खुद को जोड़ा. पेज-3 की पत्रकारिता संस्कृति के विकल्प में ग्रासरूट पत्रकारिता की राह चुनी.
इस राह ने, लोक मुद्दों की ताकत ने प्रभात खबर को आगे पहुंचाया. इसलिए प्रभात खबर के फैलाव का श्रेय भी समाज के ज्वलंत मुद्दों को जाता है. उन मुद्दों से जुड़ कर ही प्रभात खबर टिक पाया. सबसे बड़े, शीर्ष और ताकतवर अखबार घरानों के सामने. इसलिए, यह श्रेय या उपलब्धि भी समाज के ज्वलंत मुद्दों को है. इन मुद्दों से प्रभात खबर आज भटक जाये, तो फिर वह पुरानी स्थिति में ही होगा. अपने अस्तित्व के लिए जूझता.
आक्रामक मार्केटिंग का दौर
वर्ष 2000 आते-आते अखबारों के स्पर्द्धा की दुनिया बदल गयी. छोटे अखबार तेजी से बंद होने लगे. बड़े अखबारों के आक्रमण, मार्केटिंग रणनीति और पूंजी बल के कारण. तब विदेशी पूंजी (एफडीआइ), इक्विटी और शेयर बाजार की पूंजी लेकर अखबारों की दुनिया में भी देशी मल्टी नेशनल कंपनियां उभर आयीं.
वे सीधे-सीधे पहले से जमे पुराने अखबारों को आर्थिक रूप से ध्वस्त करने लगीं. इस तरह, गुजरे 20 वर्षों में न जाने कितने स्थानीय व छोटे अखबार बंद हो गये. या कहने को जीवित हैं. अधिकाधिक अखबारों का होना, लोकतंत्र के चरित्र के अनुरूप है. आवाज या दृष्टिकोण की बहुलता ही लोकतंत्र को ऊर्जा देती है. पर देश में यह नुकसान हो चुका है. पत्रकारिता के इस नये दौर की मार भी प्रभात खबर पर पड़ी, खूब.
उसे बांधने और गुम करने की हर कोशिश हुई, पर प्रभात खबर की समर्पित टीम, इस आक्रामक पूंजी की लहर का भी अपनी सृजन क्षमता से मुकाबला करने में लगी है. देश के तीन सबसे बड़े घरानों (तीनों शेयर बाजार की लिस्टेड कंपनियां) के मुकाबले स्पर्द्धा में उतरा एक अकेला क्षेत्रीय अखबार. पाठकों के बल. अपनी समर्पित टीम के बल.
शुरूआत रांची (14 अगस्त,1984) से. फिर जमशेदपुर (आठ सितंबर, 1995), फिर धनबाद (15 जुलाई, 1999), पटना (सात अप्रैल, 1996), फिर कोलकाता (31 अक्तूबर, 2000), देवघर (29 जुलाई, 2004), पुन: सिल्लीगुड़ी (10 मार्च्, 2006) और अब मुजफ्फरपुर (10 अक्तूबर, 2010).
आमतौर से प्रभात खबर आत्म चर्चा से बचता है. पर यह आत्म प्रचार नहीं है. सिर्फ यह बताना और कहना है कि अभाव की इस धरती से जनम कर भी कोई अखबार पनप और फैल सकता है.
लगातार संघर्ष करता हुआ. कठिन-से-कठिन स्पर्द्धा में. मैनेजमेंट एक्सपर्ट के बल नहीं. लोकल और देशज प्रतिभा के बल. कुछ मूल्यों व उसूलों के बल. आज अखबारों के एक-एक संस्करण की लांचिंग में 30-40 करोड़ लगते हैं. कुछेक लोग अरबों लगाते हैं. तब बाबा आमटे की लंगड़ी व बिसूखी गाय से प्रेरित होकर प्रभात खबर की टीम ने स्क्रैप हो चुकी मशीनों से अपने कई संस्करणों की यात्रा शुरू की. टेंट में मशीन लगा कर. किसी तरह कहीं बैठने का जुगाड़ कर. पर यह कोई इतिहास नहीं है. यह तो एक मामूली प्रसंग है.
ऐसे अनंत प्रसंग जब मिलते हैं, तब समाज, मुल्क, राज्य या देश का कायापलट होता है.
वर्षों पहले सिंगापुर शहर में म्यूजियम देख रहा था. ली यूआन क्यू ने कैसे अपना मुल्क व शहर बदला. वह मछुआरों का गांव था. बदबूदार. दुनिया भर के छंटे और गलत धंधों में लगे लोगों का समुद्री पड़ाव. उसे मरे-निर्जीव शहर और देश को ली ने कैसे दुनिया का अलभ्य शहर बना दिया? उस म्यूजियम में प्रधानमंत्री के रूप में ली की वह मशहूर तसवीर देखी. जब झाड़ू उठा कर खुद ही सड़क साफ करते थे. वह ऑक्सफोर्ड से पढ़-लिख कर लौटे थे.
उनमें जज्बा था. अपने मुल्क को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुल्क बनायेंगे. दो खंडों में उनकी आत्मकथा है. हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. हर स्कूल के पाठ्यक्रम में ऐसी पुस्तक अनिवार्य होनी चाहिए. ली ने लिखा है, जब अपने देश के पुनर्निर्माण का संकल्प उनके मन में जगा, तो उन्होंने भारत को देखा. गांधी और नेहरू की आभा में अपने मुल्क को गढ़ना चाहा. पर यहां आ कर कामकाजी संस्कृति देख कर निराश हुए. सिंगापुर के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में जब वह भारत आकर राष्ट्रपति भवन में ठहरे, तो भारतीयों को कैसा पाया? आला नौकरशाह कैसे सिंगापुर दूतावास से उम्दा शराब बोतलों की चाहत रखते थे.
इसी तरह जब चीन में शेंझेन की धरती पर हमने पांव रखा, तो जाना मनुष्य के अंदर कितनी बड़ी संभावनाएं हैं. वहीं से, 1980 में चीन को पलट देने वाले देंग शियाओ पेंग ने दुनिया के सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक हब की नींव डाली. वह भी बदबूदार जंगल था. दलदल जमीन, समुद्री झाड़ियां और मछुआरों का धंधा, न सपना, न संकल्प.
आज 30 वर्ष बाद दुनिया के विशेषज्ञ मानते हैं कि शेंझेन चीन का ग्रोथ एक्सक्लोजन (हैरत में डालने वाला विकास) का कारण बना. अब चीन वैसा ही और एक सेंटर खड़ा कर रहा है. कोरिया के पोहांग स्टील प्लांट की भी यही कथा है. रेत पर खड़ा स्टील प्लांट. न उसके पास आयरन ओर हैं और न अन्य प्राकृतिक संपदा. पर पोहांग स्टील प्लांट हॉर्वर्ड मैनेजमेंट स्कूल का केस स्टडी है.
जिन लोगों ने इसे बनाने का सपना देखा, वे दुनिया के हर कोने में दर-दर भटके. विश्व बैंक ने कहा, यह परियोजना ही अनवायबल हैं. इसे फाइनेंस करने के लिए दुनिया में कोई तैयार नहीं होगा. पर जहां सात्विक जिद है, वहां सपने साकार होते हैं. हॉर्वर्ड ने माना कि जिन बैंकरों ने भी पोहांग स्टील प्लांट के प्रपोजल को अनवायबल पाया. वे सही थे. पर वे भूल गये कि मनुष्य की दुनिया में असंभव को संभव करने की क्षमता भी है.
हिंदी इलाकों में हम बीमारू हालात से निकल कर बेहतर व श्रेष्ठ बन जायें, यह पूरी संभावना है. चाहिए समाज के हर क्षेत्र में श्रेष्ठ व युवा नेतृत्व. आज जरूरत है कि बिहार अपने सुदूर अतीत को देखें. चर्चिल के सुझाव के तहत, ताकि दूर भविष्य के लिए सबक मिल सके. क्या थे, क्या हो गये हम, कि चर्चा बिहार के चुनावों में होनी चाहिए. मिथिला को ही लें, गंगा, कोसी, गंडक से घिरी धरती. 700 वर्षों बाद भी विद्यापति की रचनाओं से सराबोर और भींगी धरती.
रामवृक्ष बेनीपुरी जी की बातों को याद करें, तो वैदिक काल की त्रिभुक्ति (तिरहुत). पौराणिक काल के जनकों की धरती. ऐतिहासिक काल के विदेहों और लिच्छवियों के प्रजातंत्र की क्रीड़ा भूमि. महावीर, गौतम बुद्ध के सघन प्रचार की जगह. इसी तरह पूरे बिहार के बारे में अमर्त्य सेन को याद करें, तो भारत को राष्ट्रीयता का सूत्र देने वाला प्रदेश.
दार्शनिक, मौलिक चिंतक और समाजवादी किशन पटनायक के शब्दों में-अभी तक लिखे गये इतिहास के अनुसार बिहार लंबे समय तक भारतीय राष्ट्र के ऐतिहासिक अभ्युदय के केंद्र में रहा. ऐसी क्रांतियों व विद्रोहों का उद्गम यहां से हुआ, जिनका लक्ष्य मनुष्य समाज को उदात्त व मानव कल्याणकारी बनाना था.
महावीर जैन व गौतम बुद्ध के सघन प्रचार का यह क्षेत्र रहा, बाद में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सम्राट भी यहीं से हुए. चंद्रगुप्त मौर्य से अशोक मौर्य तक का काल भारतीय इतिहास का एक ऐसा कीर्तिमान रहा, जो बिहार राज्य का हमेशा आदर्श बना रहना चाहिए.
पर, इसके बाद बिहार कहीं फिसल गया. मध्यकाल या आजादी के दौरान या बाद में बिहार की विरासत नहीं बन सकी. पुनर्जागरण का कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ. समाज सुधार का अभियान नहीं चला. रामकृष्ण या विवेकानंद के आध्यात्मिक विरासत की तेज बिहार तक नहीं पहुंची.
आजादी की लड़ाई के दौरान बिहार की धरती चंपारण से ही एक नयी आवाज गूंजीं. जिसने अपने समय के सबसे बड़े सम्राज्य को, जिसके राज्य मे सूर्यास्त नहीं होता था, अस्त कर दिया. अहिंसक रास्ते. सात्विक संकल्प और कर्मठता से. बिहार अपना भविष्य तय करने जा रहा है.
उसे तय करना है कि वह इतिहास बनाने वालों में से होगा या फिर हास्यास्पद टिप्पणियों में जगह पायेगा. बिहार में हो रहे इन भविष्य निर्धारक चुनाव में कहां है, सामूहिक संकल्प जगाने का अभियान? बड़े सपनों की बात? फिर भारत को नयी दिशा देने और नया इतिहास बनाने का जज्बा? नेताओं की सारी चिंता परिवार है. बेटा, बेटी, नाते-रिश्तेदार. बदबू आ रही है, इस राजनीति से. बिहारी पहचानें, अपने अतीत से ताकत और ऊर्जा लेकर.
कैसे हों श्रेष्ठ शासक
आज पूरी दुनिया में बहस चल रही है कि श्रेष्ठ शासक (इनलाइटेंड रूलर्स) कैसे हों? उनमें क्या मूल्य हों? उनके जीवन दर्शन क्या हों? किशन पटनायक ने भी लिखा है चंद्रगुप्त के दरबार में चाणक्य था, चापलूसों की जमात नहीं. चंद्रगुप्त महान योद्धा था, जिसने अपना शेष जीवन जैन संन्यासी की तरह बिताया (जैन साहित्य के अनुसार).
अशोक ने युद्ध से मुंह मोड़ लिया और बौद्ध होकर धम्म का संवाहक बना. यानी दो महान दार्शनिक आदर्शों को लोक जीवन में उतारने का काम इस वंश के राजाओं ने किया. अपने समय की सीमाओं में भारत का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण नेता चाणक्य था. वह भारत का प्रथम राष्ट्रनेता था, राजा न होते हुए.
फिर, आगे किशन जी लिखते हैं चंद्रगुप्त कोई सामान्य सूझबूझ का आदमी नहीं था, अगर सामान्य सूझबूझ का होता, तो एक बार स्थापित हो जाने के बाद संकीर्ण स्वास्थ्य से या चापलूसों की कुमंत्रणा के वश में आकर उसने चाणक्य को मरवा दिया होता या भगा दिया होता. फिर वह (चंद्रगुप्त) बिहार का निर्माता न होता. यह है बिहार की विरासत की पहली कड़ी.
कहां है इन चुनावों में बिहार की विरासत को स्थापित करने की गूंज? एक-एक राजनेता से जनता हिसाब ले. जब राजनेता धर्म, जाति, समुदाय, क्षेत्र की बात करें, तो जनता उनसे विरासत का हिसाब मांगे.
क्या आपको या हमें पता है कि आज दुनिया के बड़े चिंतक व विचारक कह और मान रहे हैं कि सिकंदर व उसके पिता फिलिप (मकदुनिया) लुटेरे थे. वे दुनिया के आदर्श नहीं हो सकते. यह पश्चिम का ताजा चिंतन है. अशोक अब तक ज्ञात दुनिया के सबसे इनलाइटेन रूलर्स (सर्वश्रेष्ठ, प्रबुद्ध शासक) माने जा रहे हैं. अब पश्चिम को अफसोस है कि उसके छात्र अशोक के बारे में कम जानते हैं. अमर्त्य सेन ने अशोक पर जरूर लिखा है.
दुनिया के एक जाने-माने लेखक मैट रिडले ने किताब लिखी है द रेसनल ऑप्टिमिस्ट (हार्पर कॉलिंस 2010). रिडले मनुष्य के विकासवादी चिंतन के खास अद्येता हैं. उन्होंने लिखा है कि अशोक ने कैसे मौर्य काल की भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाया. दुनिया के लिए खोला. श्रेष्ठ कर प्रणाली विकसित की. राजसत्ता के ठोस बुनियादी संरचना की नींव डाली, ताकि श्रेष्ठ ढंग से कारोबार, व्यापार हो. रिडले ग्लोबलाइजेशन के या ओपेन मार्केट के पक्षधर विचारकों में से हैं. पर, 2008 में ब्रूस रिच ने एक किताब लिखी टू अपहोल्ड द वर्ल्ड. उनकी नयी किताब 2010 में आयी है ‘ए कॉल फॉर ए न्यू ग्लोबल इथिक फ्रॉम एनसिएंट इंडिया’. इसे बेकन पब्लिसर ने छापा है. यह सिर्फ अशोक के बारे में है. ब्रूस पर्यावरणविद हैं.
ग्लोबलाइजेशन के आलोचक, वामपंथी विचारक. यानी दुनिया में वाम से लेकर दक्षिण विचारों वाले चिंतक अशोक के गीत गा रहे हैं. दुनिया कैसे मूल्यों से जुड़े, नैतिक बने, श्रेष्ठ बने, इसके लिए. पर बिहार अपना भाग्य लिखने जा रहा है. और बिहारी नेता, जो बिहार का भविष्य तय करेंगे, वे किसके गीत गा रहे हैं? क्या हमारे रहनुमा हमारे समाज को या बिहारियों को नये सपने और संकल्प दिखायेंगे?
मुजफ्फरपुर से निकला प्रभात खबर उसी समृद्ध विरासत का मंच बनना चाहेगा, जो हिंदी इलाकों को पुन: सर्वश्रेष्ठ बनाये. हर चीज में. शासन में. राजनीति में. स्वस्थ मूल्यों में. श्रेष्ठ शिक्षण माहौल बनाने में. रचना व सृजन की नयी भूख जगाने में. पर यह काम आप पाठकों की सक्रिय साझेदारी और हिस्सेदारी से ही संभव है.
दिनांक : 09.10.2010

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