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सपने, संघर्ष और चुनौतियां 4 : हमने सही राह चुनी

-हरिवंश- रोज हर पल कंपटीशन में. लगातार संघर्ष. इनोवेशन. अब तीन सबसे बड़े अखबारों से स्पर्धा, उनके छल, छद्म, कुप्रचार और षडयंत्र से मुकाबला. उनकी बड़ी पूंजी से पूंजीविहीन होकर लड़ना. तकरीबन 51, 47, 40, संस्करणों वाले अनेक राज्यों में फैले अखबारों से 8-9 संस्करणों के बल लड़ना? क्या पहले की स्थिति में रह कर […]

-हरिवंश-

रोज हर पल कंपटीशन में. लगातार संघर्ष. इनोवेशन. अब तीन सबसे बड़े अखबारों से स्पर्धा, उनके छल, छद्म, कुप्रचार और षडयंत्र से मुकाबला. उनकी बड़ी पूंजी से पूंजीविहीन होकर लड़ना. तकरीबन 51, 47, 40, संस्करणों वाले अनेक राज्यों में फैले अखबारों से 8-9 संस्करणों के बल लड़ना? क्या पहले की स्थिति में रह कर हम सब इस नयी स्थिति से जूझ सकते हैं या नया विकल्प ढूंढ़ना होगा? ठीक 20 वर्ष पहले प्राय: एक बंद, अचर्चित सुविधाविहीन, देश के सबसे पिछड़े इलाके से निकलनेवाले अखबार प्रभात खबर ने एक नयी राह चुनी. इस पेज थ्री की पत्रकारिता के विकल्प में चल कर. इसी अखबार के विकल्प ने सबसे पहले पशुपालन भ्रष्टाचार को उजागर किया.

आज भी इसे सामने लानेवाले पत्रकार किसलय उसी जीवनशैली में हैं. वैसे ही प्रतिबद्ध हैं, जैसे तब थे. फिर कुशासन के प्रसंगों को सामने लाने तथा झारखंड राज्य बनाने में भूमिका से लेकर नये राज्य बनने के बाद, हर सरकार पर अंकुश रखने की पत्रकारिता. मधु कोड़ा प्रसंग को सामने लाने तक की पत्रकारिता की राह कम-से-कम 20 वर्ष पहले ही प्रभात खबर ने चुनी. हम यह आत्मसंतोष कर सकते हैं कि हमने सही राह चुनी. समय ही सबसे बड़ा गवाह होता है. समय फिसलता है. आज एक और वर्ष गुजरा. क्या हम चाहें, तो यह समय ठहर सकता है? नहीं. यह मान लें कि ईश्वर ने अवतार लिया, तो वह भी इस सृष्टि को काल से नहीं बचा पाये.

काल की गति
अर्जुन का एक किस्सा मशहूर है. जब भीलों ने द्वारिका से उनके साथ आ रही महिलाओं का अपहरण कर लिया, तब का प्रसंग है. वही अर्जुन, वही गांडीव, वही तीर, पर कुछ नहीं कर सके. लोगों ने महर्षि व्यास से पूछा – आप तो ईश्वरावतार हैं. क्या होने जा रहा है? महाभारत के पहले. उन्होंने कहा. दोनों हाथ उठा कर चिल्ला रहा हूं, सर्वविनाश, पर कोई सुनता नहीं. यह है काल की गति और महिमा. यह सिर्फ पूर्वी सभ्यता की बात नहीं है. पश्चिमी सभ्यता के महान नायकों में माने जाते हैं नेपोलियन, जिस इनसान ने कहा था -इंपासिबल (असंभव) शब्द मेरी डिक्शनरी (शब्दकोश) में नहीं है. यह वाक्य आज दुनिया के कोने-कोने में लोग कोट करते हैं. लोगों को मोटिवेट करने के लिए, पॉजीटिव थिंकिंग के रास्ते पर डालने के लिए. पर वही महान नेपोलियन जब हेलेना द्वीप पर बंदी बन गया, तो वह कहता रहा, मेरे दिन बदल गये. मैं परिस्थितियों का दास हूं. हालात का बंदी. समय बदल गया. बड़ा ही रोचक प्रसंग है. सीखने और स्मरणयोग्य. ब्रिटिश पत्रकार पाल ब्रंटन की मशहूर पुस्तक ‘गुप्त भारत की खोज’ में. पाल ब्रंटन 20 वीं सदी के आरंभिक दौर में नीरव जंगलों में, हिमालय की तराइयों में, उत्तर से दक्षिण के छोटे-छोटे शहरों में आध्यात्मिक भारत का चेहरा देखने के लिए भटके. उन्हीं की पुस्तक का यह अंश है.
‘चकित जगत के सामने बड़ी दिलेरी के साथ आल्प्स पर्वत को अपनी सेना के साथ लांघ जाने पर, नेपोलियन ने जो बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, वही आज मुझे याद आयी, असंभव, मेरे कोष में ऐसा शब्द नहीं है. लेकिन मैंने उनके सारे जीवन की सारी बातों का बार-बार अध्ययन किया है. हेलेना के टापू पर अपने पूर्व कार्यों की समीक्षा करते हुए उस महान बुद्धिशाली ने जिन चंद बातों को लिखा था, सो मेरे स्मृति पटल पर चमक जाती है. मैं हमेशा नियतिवाद का कायल था. विधि का बदा, एकदम बदा ही….मेरे सितारे मंद पड़ गये, मेरे हाथों से बागडोर फिसलती दिखायी दी, तब भी मेरा वश नहीं था.’ याद रखिए ये वाक्य नेपोलियन द ग्रेट के बारे में एक अत्यंत पढ़े-लिखे ब्रिटिश पत्रकार के हैं. यह काल है.
ब्रह्मांड में मनुष्य की हैसियत
दशकों पहले एक बार रात में चंद्रशेखर जी के साथ दिल्ली में जा रहा था. सड़क की बगल में मुगल सल्तनत के एक बादशाह का मकबरा था. देख कर कहा, देखते हो, दिल्ली में बड़े बादशाहों के अनेक मकबरे हैं. उनके क्या हाल हैं? किन्हें याद हैं ये? दरअसल, इस सृष्टि, संसार या ब्रह्मांड में मनुष्य की क्या हैसियत है? गांधी जैसे महान लोग, जब मानव इतिहास में कामा, फुलस्टाप जैसे हैं, तो हमलोग क्या हैं? इन मकबरों को देख कर भी दिल्ली के शासक नहीं देखते कि हमारी हैसियत क्या है?
हम अपने को अमर और संसार का अंतिम सच मानने लगते हैं. चंद्रशेखर जी में अद्भुत इतिहास बोध था. यह बोध हर इनसान में होना चाहिए. एक बार मैंने कोशिश की, महान लोगों के जीवन का उत्तरार्द्ध पढ़ा. गांधी, लेनिन, माओ, स्टालिन वगैरह के अंतिम दिनों को पलटा. यकीन मानिए, उनकी विवशता देख कर, उनके भी मानव होने का एहसास हुआ. खुद भारत के पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीवन का एक प्रसंग हमेशा याद रहता है. कुछ वर्षों पहले एक पश्चिमी ने पुनर्जन्म पर अध्ययन किया था. उन्होंने पंडित नेहरू के बारे में बताया था कि वह पूर्व जन्म में कोई महान बौद्ध भिक्षु थे. पुनर्जन्म का रहस्य नहीं मालूम, पर पंडित नेहरू का जीवन सचमुच कुछ ऐसा ही था. वह भारत के महान लोगों में से एक थे.
पंडित जी का करिश्मा
बचपन से ही कुछेक बड़े नेताओं की छाप हम बच्चों पर पड़ी. उनमें पंडित जी भी थे. प्राइमरी स्कूल की आरंभिक कक्षाओं में रहा होगा, तब पंडित जी की मौत हुई थी. बस से पिताजी के साथ ननिहाल जा रहा था. हर आदमी पंडित जी की बात कर रहा था. पढ़ा-बिना पढ़ा सब. यह था, उनके व्यक्तित्व का करिश्मा. जब बड़ा हुआ, विश्वविद्यालय में पढ़ने गया, अंगरेजी बहुत समझ में नहीं आती थी, पर पंडित जी की पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’खरीदने की स्मृति अब भी है. जुलाई का महीना था. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्रों की संख्या बढ़ने लगी थी.
नया सत्र शुरू हो रहा था. विश्वविद्यालय के सुंदर हरे-भरे मैदानों में ‘वॉलीबॉल’खेलना और राजनीति पर बहस, ये हमारे मुख्य काम थे. उसी महीने की एक बरसाती शाम को छात्रावास से पैदल बाजार (लंका) गये और यूनिवर्सल बुक डिपो से वह पुस्तक खरीद लाये. शायद 15 या 18 रुपये में. बचा-खुचा पैसा यही था. फिर पंडित जी पर और किताबें पढ़ने की धुन सवार हुई. आज विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की स्मृति एक ज्योतिपुंज की तरह उभरती है. देर रात तक बिल्कुल शांत माहौल में पढ़ते छात्र. वहीं हमने पूर्व सांसद और पूर्व आइसीएस एचवी कामत का पंडित जी पर संस्मरण पढ़ा. साम्यवादी और अत्यंत प्रखर वक्ता प्रोफेसर हीरेन मुखर्जी का पंडित नेहरू के बारे में संस्मरण पढ़ा. बाद में चौधरी चरण सिंह ने भारत की आर्थिक नीति पर एक पुस्तक लिखी, उसमें भी पंडित जी के उतार (उम्र ढलने) के दिनों के संस्मरण हैं. उन तीनों संस्मरणों को पढ़ कर लगा कि पंडित नेहरू के व्यक्तित्व में भी एक वीतरागी धारा थी. पंडित नेहरू के इस व्यक्तित्व ने हम युवाओं पर गहराई से छाप छोड़ी. इसका असर अब भी है.
अहं ग्रंथि से पीड़ित
हम पत्रकार भी एक अद्भुत अहं ग्रंथि से पीड़ित रहते हैं. अहंकार का, दंभ का, कुछ विशिष्ट होने का, सत्ता के पास होने का, सत्तामद. यह सब भ्रम है. माया है. कम-से-कम तीन दशकों के पत्रकारीय जीवन में इस प्रसंग में मेरे मन में कोई अस्पष्टता नहीं रही. कम-से-कम वर्ष के अंत में, नये वर्ष की दहलीज पर खड़े होकर इन चीजों को याद रखने से नयी ताकत, ऊर्जा और दृष्टि मिलती है, इसलिए यह सब आपसे शेयर कर रहा हूं. प्रभात खबर को पुख्ता करने के कुछ नये काम क्या हो सकते हैं, उन्हें मैं सोच रहा हूं. अपनी भूमिका संपादकीय निगरानी के अलावा उन्हीं चीजों में लगाना चाहता हूं. छात्र दिनों में अंगरेजी में एक कविता पढ़ी थी शायद कीट्स की थी. आज भी उसकी ये पंक्तियां उत्साह भरती हैं. आइ वाज एवर ए फाइटर, सो वंस फाइट मोर, द वेस्ट एंड द लास्ट.
कुप्रचार और षडयंत्र से मुकाबला
क्या नया सृजनात्मक संघर्ष हो सकता है? संपादकीय निगरानी के अलावा? यह विषय मेरे मस्तिष्क में घूम रहा है. संभव है, कोई विषय न सूझे. प्रयास विफल हो, पर फिलहाल यही सवाल मस्तिष्क में है. बड़े घरानों-बड़े महानगरों की पत्रकारिता की चकाचौंध छोड़ कर जंगल (तब रांची को महानगरों के साथी यही कहते थे) में प्राय: बंद अखबार में आया. अच्छे विकल्प छोड़ कर. यह जीवन में प्रयोग की एक कड़ी थी. इसके बाद लगातार बड़े घरानों की बड़ी पूंजी, अनेक संस्करण वाले अखबारों से हम प्रतिस्पर्धा में रहे. रोज हर पल कंपटीशन में. लगातार संघर्ष. इनोवेशन. अब तीन सबसे बड़े अखबारों से स्पर्धा, उनके छल, छद्म, कुप्रचार और षडयंत्र से मुकाबला. उनकी बड़ी पूंजी से पूंजीविहीन होकर लड़ना. तकरीबन 51, 47, 40, संस्करणों वाले अनेक राज्यों में फैले अखबारों से 8-9 संस्करणों के बल लड़ना? क्या पहले की स्थिति में रह कर हम सब इस नयी स्थिति से जूझ सकते हैं या नया विकल्प ढूंढ़ना होगा?
दूसरी रणनीति क्या होगी? यह सोचने की रणनीति पर फोकस करना होगा. रोज-रोज का काम जिम्मेदार हाथों-टीमों को सौंप दिया है. नरेंद्रपाल जी, राजेंद्र जी, अनुज, स्वयंप्रकाश, विनय की टीम. विजय पाठक, रंजीत, अनुराग, संजय, जीवेश, नरेंद्र, माधव वगैरह युवा साथियों की टीम. यह टीम मुझसे बेहतर काम कर रही है, शर्त है, मिल कर काम करे. निजी अहं किसी में हो, तो इंफोसिस के आदर्शों से प्रेरित होकर ‘अखबार’ को सबसे आगे रख कर यह टीम निर्णय करे. एकजुट हो कर. आप परिणाम देखेंगे. उसी तरह विज्ञापन, सर्कुलेशन, प्रोडक्शन, इवेंट, रेडियो, इंटरनेट हर विभाग में नयी टीम अपना दायित्व समझे और संभाले. इनोवेशन के अलावा हमारा ‘सस्टेनेबुल मॉडल’ क्या हो सकता है, मैं और प्रभात खबर के अन्य वरिष्ठ साथी इसमें समय लगाना चाहते हैं.

समय व संयोग बार-बार नहीं मिलता
मैं कहना यह चाहता हूं कि समय का महत्व हम समझें. समय और परिस्थितियों ने हमें एक मंच दिया है. प्रभात खबर में 23 वर्ष पहले हम अभाव में थे. आज मजबूत हैं. आज देश के तीन सबसे बड़े घरानों से हमारा मुकाबला है. यह परिस्थितियों और समय की देन है. हमारी भूमिका ही आगे का रास्ता तय करेगी कि हम किधर जायेंगे? समय ने हमको एक अवसर दिया है, कुछ कर दिखाने का. बार-बार यह समय और संयोग किसी को नहीं मिलता. समय गुजर जाने के बाद, हाथ से बालू की तरह चीजें फिसल या निकल और बिखर जाती हैं. आइए हम चीजों को बिखरने न दें. और समय को न गंवा कर एक दीर्घजीवी संस्था की नींव डालें, जिससे हमारा निजी भला भी हो और समाज का हित भी सधे.
हमारी ताकत
सबसे महत्वपूर्ण बात मैं अंत में कहना चाहता हूं. हमारे प्रबंधन का सहयोग और मार्गदर्शन नहीं रहता, तो हम यहां नहीं पहुंचते. मैं तो शुद्ध संपादकीय का आदमी रहा. टाइम्स ग्रुप और आनंद बाजार पत्रिका में कार्य करते हुए, अन्य विभागों से संपादकीय का संपर्क नहीं रहता था. वह संपादकीय श्रेष्ठता से उपजा अहं बोध का दौर था. तब ’90 के दशक में पत्रकारों का यही मानस था. पर प्रभात खबर आकर हमने बृजकिशोर झंवर (लाली बाबू) से मैनेजमेंट की बारीकियां सीखीं : अपने तत्कालीन चेयरमैन बसंत कुमार झंवर के विजन-प्रोत्साहन और दृष्टि ने प्रभात खबर को हमेशा नयी ताकत दी.
हमारे युवा चेयरमैन प्रशांत झंवर और युवा एम.डी राजीव झंवर का पग-पग पर सुझाव, सहयोग और विजन ‘प्रभात खबर’ समूह की सबसे बड़ी ताकत है. प्रभात खबर के निदेशक समीर लोहिया के प्रैक्टिकल सुझाव हमारी ताकत हैं. मैं क्यों यह सब बता रहा हूं, क्योंकि कोई संस्था, इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी खड़ी हुई, तो हमारे पीछे अनेक लोगों का सामूहिक प्रयास, पहल और भागीदारी है. इसी तरह हम अपना मस्तिष्क खुला रख कर सबके सुझावों से सीखें, तो हमारे सामने हमेशा एक बेहतर संसार मौजूद रहेगा. मीडिया इंडस्ट्री में विशेषज्ञ मानते हैं कि मामूली संसाधनों के बल प्रभात खबर का टिकना, बढ़ना और फैलना एक प्रबंधकीय चमत्कार है. अगर यह चमत्कार है, तो इसका श्रेय ‘झंवर परिवार’द्वारा प्रभात खबर को मिले प्रबंधन दिशा-निर्देश को है. इस परिवार के हर सदस्य ने नये-नये आइडिया देकर हमें हमेशा प्रोत्साहित किया.
आभार
सबसे अंतिम पंक्ति में सबसे पहले जिनके प्रति ॠण व्यक्त करना है, उनका उल्लेख करना चाहूंगा. अंत में इसलिए, ताकि यह भविष्य में सबसे महत्वपूर्ण ढंग से स्मरण रहे. झारखंड -बिहार-बंगाल के हिंदी पाठकों ने, जिन्होने हमें बचाये-बनाये रखने में सबसे कारगर काम किया, वे हमारे पूज्य हैं. प्रेरणास्रोत हैं और वे ही हमारी असली ताकत हैं.
समाप्त

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