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एक असाधारण व्यक्ति के असामयिक निधन पर

स्मृति : शैलेंद्र तिवारी (1)-हरिवंश- बहुत बुरी खबर है., घर से फोन में कहा गया.इस अधूरे वाक्य ने मुझे जड़ बना दिया. समझ गया कि यह खबर शैलेंद्र तिवारी जी के संबंध में होगी. क्योंकि पिछले चार-पांच महीनों में शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो, जब वह मेरी स्मृति में पूरी चेतना को बेचैन […]

स्मृति : शैलेंद्र तिवारी (1)
-हरिवंश-

बहुत बुरी खबर है., घर से फोन में कहा गया.इस अधूरे वाक्य ने मुझे जड़ बना दिया. समझ गया कि यह खबर शैलेंद्र तिवारी जी के संबंध में होगी. क्योंकि पिछले चार-पांच महीनों में शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो, जब वह मेरी स्मृति में पूरी चेतना को बेचैन करते हुए न हों. अकसर रात में नींद खुलते ही उनका हंसता चेहरा मुझे घंटों बेचैन करता है, खबर उनसे ही जुड़ी थी. बंबई से फोन आया था कि तिवारी जी नहीं रहे.

शैलेंद्र तिवारी. कस्टम विभाग में बड़े अधिकारी थे. बंबई में कार्यरत. 1977 के अंतिम दिनों में एक विदेशी मित्र ने उनसे बंबई में मिलवाया था, वह विदेशी मित्र हिंदी पत्रकारिता सीखने भारत आया था. हम .टाइम्स ऑफ इंडिया. (बंबई) संस्थान में सहकर्मी थे. वह विदेश से आने के क्रम में तिवारी जी से हवाई अड्डे पर मिला था. उनके मानवीय व्यवहार से वह अत्यंत प्रभावित था. भारतीय कस्टम के खौफ को वह जानता था.

पहले ही दिन की मुलाकात में मैं उनके घर का सदस्य हो गया. कुछ ही दिनों में शैलेंद्र जी का औपचारिक संबोधन स्वत: खत्म हो गया. .भइया. शब्द से उन्हें संबोधित करता, भाभी, बाबू, मेधा (तिवारी जी के लड़के -लड़की) और सुमित (भतीजा) तब उन दिनों जीवन का हिस्सा बन गये. जैसे-जैसे उन्हें नजदीक से जाना. समझा कि मनुष्य की ऊंचाई की सीमा कितनी बड़ी है. जिन्हें हम महान समझते हैं, उनके मुकाबले समाज में अनेक अचर्चित, पर उनसे सचमुच कई गुना बड़े लोग भी हैं. यह दीगर बात है कि न उन्हें सामाजिक स्वीकृति मिलती है और न वे खुद ऐसा सम्मान चाहते हैं. इनकी ऊंचाई नैसर्गिक होती है.

1977 के दिन थे. तब इस देश ने सपने देखना बंद नहीं किया था. नौकरी पाते ही घर, बंगला, गाड़ी, अनैतिक तौर-तरीके से धनार्जन पहला और अंतिम उद्देश्य नहीं थे. सामाजिक सरोकार जिंदा थे. पहले ही दिन की मुलाकात में भइया (तिवारी जी) के घर पर लंबी बहस चली. राजनीति, साहित्य, पत्रकारिता, नौकरशाही सब पर. रात एक बज गये, पता नहीं चला. नौकरशाही में ऐसे संवेदनशील, जानकार और अत्यंत विनम्र व्यक्ति को पाना मेरे लिए सुखद अनुभूति थी. अफसरशाही की दुनिया में वह गरीबी, भूख, आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक वगैरह के बारे में सायास बहस करवाते थे. अफसरों के संघों के वार्षिक जलसों में वह अभिनेता, अभिनेत्रियों (जैसा दूसरे बंबई में करते हैं) को नहीं, मनीषियों, सजग लोगों, समाज से सरोकार रखनेवाले को न्योतते.

एकाध मुलाकात में ही लगा कि तिवारी जी का घर मेरा आदर्श घर है. वहां की जीवंत और बेचैन करनेवाली बहसों में शिरकत करने उनके अनेक अफसर मित्र आते, बंबई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आते, तो इंडियन एयरलाइंस के पाइलट. फिल्म में काम करनेवाले- फिल्म बनानेवाले भी आते. इन बहसों के विषय कभी निजी सफलता, प्रमोशन, दूसरों की शिकायत नहीं रहे. ईर्ष्या, द्वेष, घृणा से परे समाज के संवेदनशील मन को जो चीजें झकझोरती हैं, वे ही मुद्दे अपने आप उठ जाते. पूर्वी उत्तरप्रदेश-बिहार के लोग जिन्हें बंबई में नौकरी से लेकर किसी मदद की जरूरत होगी, वे आते. भाभी ऐसी कि किसी को घर से खाना खिलाये बगैर लौटने न देतीं. कोई किसी वक्त पहुंच जाये, तिवारी जी सपरिवार आतिथ्य के लिए मौजूद. बंबई की दिक्कतों को देख हम कई मित्र कहते कि यह धर्मशाला नहीं है, पर तिवारी जी! वह तो दूसरों के लिए ही बने थे.

कई बार मैं अंदर-अंदर कुढ़ता की बंबई जैसे जगह में बगैर बताये असमय लोग आ जाते हैं. पर भइया-भाभी के चेहरों पर शिकन तक नहीं.बड़े राजनीतिज्ञों-बौद्धिकों-नौकरशाहों को नजदीक से देखा-जाना, जीवन की विसंगति यह है कि अधिसंख्य स्वार्थी और गलत लोग सुर्खियों मेंरहते हैं. मीडिया के सौजन्य से. शैलेंद्र तिवारी जी के बहाने अपने पेशे (मीडिया) के बारे में बेचैन करनेवाले सवाल मन में हैं. आज के संदर्भ में वह असाधारण थे. कभी पद का लाभ न लेनेवाले सामाजिक सरोकारवाले. व्यवस्था, समाज, संस्कृति के सवालों से बेचैन होनेवाले. एक अच्छी राजनीति के इच्छुक. देश के प्रति ईमानदार फर्ज निभानेवाले. दूसरों के मददगार. बौद्धिक प्रतिभा के धनी. शेक्सपीयर, भवभूति, व्यास, तुलसीदास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तक पुराने, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर जी, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई से लेकर हिंदी के हाल-हाल के लेखकों पर वह साधिकार बोलते थे.

रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि रमण से लेकर अपने आध्यात्मिक धरोहरों को वह उद्धत करते थे. कुबेरनाथ राय, विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों, रेणु जी, शिवप्रसाद जी, श्रीलाल शुक्ल, बाबा नागार्जुन, विवेकी राय के गंवई चित्रों और ली आइकोवा की आत्मकथा के अंश प्रसंगवश सुनाते. प्राचीन से अधुनातन तक. अपने ज्ञान का रंचमात्र एहसास कराये बिना. अत्यंत विनम्रता से. नीरद चौधरी-वीएस नाइपाल उनके प्रिय लेखक थे. वह मानते थे कि इन दोनों में भारत के प्रति कहीं गहरा लगाव है. इसलिए वे आलोचनात्मक तरीके से लिखते हैं, पर भारत विरोधी नहीं है, हिंदी की मुख्य पत्र-पत्रिकाएं वह नियमित पढ़ते. नौकरशाहों द्वारा लिखित लगभग सभी आत्मकथा वह चाव से पढ़ चुके थे. बीमार पड़ने के पहले अंतिम मुलाकात (जनवरी 97) में उन्होंने माधव गोडबले (पूर्व केंद्रीय गृह सचिव, महाराष्ट्र कॉडर) की आत्मकथा खोल कर वह अंश मुझे पढ़ाया, जिसमें राजनीतिज्ञों- उद्योगपतियों ने बेजा रिश्तों के तथ्यात्मक ब्योरे हैं. संवेदनशील नागरिक-नौकरशाह को बेचैन करनेवाले. विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भारत के बारे में क्या छपा,यह मुझे नहीं बताते.

अकसर मैं सोचता कि भइया कस्टम में हैं, फिर भी पढ़ने-जानने की ललक जो इनमें है, वह कम पत्रकारों-प्राध्यापकों में है. किताबों के प्रति उनका लगाव देख कर पुस्तकों के प्रति मेरे अपनत्व का दंभ बिखर गया. इन गुणों के बावजूद उनकी खासियत यह थी कि वह किसी को एहसास नहीं कराते थे. कोई उनकी प्रशंसा करता, तटस्थ भाव से प्रसंग बदल देते.वह कस्टम में थे. बंबई में एक-से-एक महत्वपूर्ण पद पर. लेकिन उनका सरकारी घर अत्यंत सामान्य. आर्थिक स्थिति औसत. इतनी बड़ी नौकरी के बाद भी (लगभग 27 वर्ष) उनके पास पुश्तैनी घर गांव में है. कस्टम के ही अत्यंत मामूली लोगों के घर के वैभव, संपत्ति और शान-शौकत के जो तथ्य सामने आते हैं, उनके मुकाबले उनका घर क्या है? साधारण: पर यह पवित्र सादगी ही न जाने कितने लोगों को बांधती थी. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हरिशंकर परसाई की पूरी ग्रंथावली मैंने पहले पहल वहीं देखी. बंबई के कूड़ा बाजार से वह माटी के मोल खरीद लाये थे. उनकी ईमानदारी संस्कारगत थी. रक्त में. विभाग में उनकी गणना, अत्यंत सक्षम, ईमानदार और सहृदय व्यक्ति की थी. बंबई बम विस्फोट के बाद कस्टम विभाग पर देशव्यापी हमला शुरू हुआ. तब तिवारी जी को ही विभाग की छवि निखारने का दायित्व सौंपा गया. देश के अनेक बड़े संपादकों-पत्रकारों से उनके निजी रिश्ते थे. पर बातचीत में कभी वह उल्लेख नहीं करते थे.

वह उन लोगों में से थे. जिन्हें कभी कटु बोलते नहीं सुना. उनके सांताक्रूजवाले घर (किराया) पर जब रात दो-दो बजे तक बहस चलती, तीखे प्रतिवाद होते, गरमागरम माहौल बनता, तब अचानक सुन रहे तिवारीजी मुस्कुराते हुए हस्तक्षेप करते. उनकी वजनदार-तथ्यात्मक बातों के बाद बहस मुड़ जाती. 1980 में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में आरक्षण लागू किया था. मैं इसके पक्ष में धर्मयुग (जहां उन दिनों काम करता था) लगातार लिखता था. उन दिनों गणेश मंत्री ने इस पर बहुत धारदार तरीके से लिखा था. तीन-चार महीनों तक उनके घर पर होनेवाली नियमित बैठकों में यही बहस का विषय था. मैं अकेले आरक्षण के पक्ष में बोलता. उधर बड़े नौकरशाह होते. कहीं मुझे लड़खड़ाते देख, तिवारी जी मेरी ओर से हस्तक्षेप करते. उनके निजी जीवन में, उनके पास जिस जाति, धर्म का व्यक्ति आया, वह उनके परिवार का अंग बन गया. कहीं उनके जीवन में दोहरापन नहीं था. वह सचमुच असाधारण थे.

घर पत्रिका का बंबई में विमोचन था. भइया ने कहा, किससे कराओगे? मैंने कहा लता जी से. भइया ने बात करायी. उस दिन लता जी बाहर जा रही थीं. मीनाक्षी शेषाद्रि-नादिरा बब्बर आयीं. तिवारी जी के सौजन्य से ही. पत्रकार मित्र भी. समय निकाल कर तिवारी जी भी आये. कहा, पश्चिम से जो विकृतियां आ रही हैं और पूरब में औरतों का जो दमन है, इससे मुक्ति का रास्ता ही घर पत्रिका की कसौटी होगी. टूटते घरों और बिखरते परिवारों को जोड़ने की ऊर्जा ही इसकी पहचान होगी.

1994 नवंबर में विदेश से लौटा. आधी रात को वह हवाई अड्डे पर मौजूद थे. मैंने कहा आप क्यों आये, तुम इतनी दूर से आ रहे हो, मैं यहां भी नहीं आता? वह बुखार में थे. अपने घर ले गये. सुबह तक हम गप करते रहे. बदलती दुनिया और भारत के बारे में उनकी आत्मीयता-आचरण और स्नेह के बारे में मेरे पास शब्द नहीं है.

बंबई छोड़ने के बाद गुजरे 16 वर्षों में बार-बार आना-जाना होता है. कई बार बड़ी सभा-गोष्ठियों में गया. देखा, श्रोताओं में तिवारी जी मौजूद हैं. उन्हें मैं वहां मौजूद डॉ धर्मवीर भारती, गणेश मंत्री, नारायण दत्त जी वगैरह से मिलाने की कोशिश करता, पर वह कहते, भीड़-भाड़ में कहां ले जाओगे? मिलते पूछते, भारती जी से मिले? वे कैसे हैं? मंत्रीजी के क्या हाल है? नारायण दत्त जी के नवनीत के प्रति उनमें अद्भुत पवित्र सम्मान था. अनुराग-अतुल कैसे हैं. वह कहते, हिंदी में ऐसे लोग हैं.

पर सबसे बढ़ कर परिचय करने और व्यावसायिक संबंध बना लेने की कला उनमें नहीं थी. गुजरते समय के साथ मैं उनसे बंधता गया. अकसर चुनिंदा पुस्तकें मुझे वह देते या भिजवाते. पुस्तकों के प्रति उनमें अद्भुत लगाव-चाव था. मित्रों को अच्छी पुस्तकें भेंट में देना उनका प्रिय तोहफा था.

बंबई के बाद मैं दिल्ली, कलकत्ता, पटना, रांची, जहां भी रहा, संयोग से मेरे रहते इन शहरों में उनका आना हुआ. वह उन लोगों में से थे, जिनसे मिलने की मुझे प्रतीक्षा रहती थी.छह-सात माह पूर्व, अचानक रविवार के दिन 11 बजे कार्यालय में जानकी रमन जी का बंबई में फोन आया. तिवारी जी बीमार हैं. मैंने तुरंत बात की. पता चला स्लिप डिस्क है. बंबई अस्पताल से लौट आये हैं. फिर दर्द बढ़ा. वहीं भरती हुए. बाद में पता चला, बोन कैंसर है. बोन कैंसर की सूचना मिलने के पहले तक मैं प्राय: उनके घर से पता करता रहा. जिस दिन पता चला की उन्हें कैंसर है, वह दिन मैं भूल नहीं सकता. दिल-दिमाग बिल्कुल सून्न. क्यों तिवारी जी जैसे अच्छे लोगों के साथ ऐसा होता है? फिर मैं बंबई के अपने दूसरे मित्रों अनुराग चतुर्वेदी (संपादक, महानगर) और अतुल कुमार (जनसंपर्क अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा) के माध्यम से निरंतर खबर लेता. अनुराग भी तिवारी जी के अन्य मित्रों से पता कर मुझे बताते. अतुल वहां जाते रहे.

मैं बाबू, मेधा, भाभी, सुमित से बात करने-उनका सामना करने का साहस खो बैठा. मैं खुद अपने से पूछता हूं कि मैं तिवारी जी की तुलना में कितना छोटा हूं. वह सात्विक इनसान थे. फिर यह दुख उन्हें ही क्यों? गलत करनेवाले की दुनिया कितनी खुश, आबाद और समृद्ध है. क्यों अच्छे लोगों को यातना झेलनी पड़ती है? प्रकृति और आध्यात्म का न्याय क्या है?

बहुत साहस जुटा कर दो माह पहले उन्हें देखने गया. टाटा कैंसर अस्पताल. इस अस्पताल के नाम से मुझे सिहरन होती है. बंबई रहते हुए जेपी के कारण जसलोक और नारायण दत्त जी गणेश मंत्री के कारण बंबई अस्पताल को नजदीक से देखा. पर 1978-79 में जिस दिन रामानंद तिवारी को देखने टाटा कैंसर अस्पताल गया, उस दिन पाया कि अस्पतालों का भी अपना व्यक्तित्व होता है. वे भी बोलते हैं, जसलोक या बंबई में भारती होनेवाले मरीजों में जीवन के प्रति आस्था होती है. टाटा कैंसर अस्पताल में भरती लोगों पर मौत की छाया होती है. 1978 के बाद इस कारण टाटा कैंसर अस्पताल दोबारा नहीं गया. 1978 में जो मौत का सन्नाटा वहां मुझे दिखा, वह अब तक आतंकित करता है.

उसी अस्पताल में दो माह पूर्व तिवारी जी से मिला. उनका हाथ पकड़ कर घंटों चुपचाप बैठा रहा. नहीं कह सकता की उन क्षणों में मुझ पर क्या बीती? बोले, तो कहा भारती जी नहीं रहे, एसपी सिंह चले गये, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएं अब नहीं रहीं. बच्चे कैसे हैं? अपनी पीड़ा के बारे में एक शब्द नहीं, मुझे रहीम याद आये. अपनी पीड़ा, अपने पास ही रखो. जग-जान कर क्या करेगा? कौन बांट सकता है? आत्म स्वाभिमान की पराकाष्ठा थी उनमें. अगले दिन बंबई की गणेश पूजा थी. तेज बरसात. मैं और अनुराग फिर अस्पताल गये. पता चला कि उन्हें घर भेज दिया गया है. हम भींगे. खूब पैदल चलने के बाद टैक्सी मिली, फिर घंटों जाम में ठहरना पड़ा. फिर हम उनके घर पहुंचे.

हमें देख कर वह बहुत खुश हुए. बीमारी के बारे में एक शब्द नहीं कहा. मैंने कहा, मैं पुन: अक्तूबर-नवंबर में आ रहा हूं. सपरिवार जाने की कोशिश की, तो ट्रेन का टिकट नहीं मिला. वह घर, जहां मैंने अपनी कल्पना का जीवन देखा है. तिवारी जी की मां को देखा है, जो दूसरों को भी अपना बेटा बना लेती हैं. बाबू, मेधा, सुमित को समृद्ध संस्कारों में बढ़ते देखा, उसमें तिवारी जी का न होना, मेरा मन कबूल ही नहीं कर पाता.

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