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यह वो शहर तो नहीं..

बिहार की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में पहचान रखनेवाले शहर दरभंगा को सांप्रदायिक सौहार्द के लिए भी जाना जाता है. जिस गंगा-जमुनी तहजीब का जिक्र किताबों में होता है, दरभंगा उसका जीता-जागता उदाहरण है. यह शहर अचानक सुर्खियों में है. आतंकवाद से ‘कनेक्शन’ की खबरों के कारण. दरभंगा शहर की पहचान को तलाशती विशेष आवरण […]

बिहार की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में पहचान रखनेवाले शहर दरभंगा को सांप्रदायिक सौहार्द के लिए भी जाना जाता है. जिस गंगा-जमुनी तहजीब का जिक्र किताबों में होता है, दरभंगा उसका जीता-जागता उदाहरण है. यह शहर अचानक सुर्खियों में है. आतंकवाद से ‘कनेक्शन’ की खबरों के कारण. दरभंगा शहर की पहचान को तलाशती विशेष आवरण कथा..

बिहार की राजधानी पटना से महज 130 किलोमीटर दूर बसा है दरभंगा शहर. दरभंगा, जिसे यहां के लोग गर्व से बिहार की सांस्कृतिक राजधानी कहते हैं. मंडन मिश्र, विदेह जनक, याज्ञवल्क्य, बाबा नागाजरुन, मजहर इमाम जैसे विद्वानों की धरती. दरभंगा, जो नव्य न्याय की भूमि है- जिसमें सबूत पर आधारित ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ माना गया. विद्यापति की पदावली जहां के लोगों का लोकगीत है. जहां की महिलाएं कोहबर में कूची से रेखाओं और रंग का जो संसार रचती हैं, वह दुनियाभर के कला-प्रेमियों के बीच मिथिला पेंटिंग के नाम से जाना जाता है.

दरभंगा, जहां के महाराजा का किला और उसके साथ के भवन लोगों को आकर्षित करते हैं. आज भले ही ये बदहाल हैं, पर दरभंगा का गर्वीला नागरिक इनको भी लालकिला से कम स्वीकारने को तैयार नहीं मिलेगा. दरभंगा, जहां समय अपनी अलस रफ्तार में चलता है, जहां झगड़े का सुर भी गाने की तरह लगता है.

दरभंगा-यानी वह शहर, जहां का महाराजा ‘लक्ष्मीश्वर सिंह’ स्वाधीनता की शुरुआती लड़ाई को समर्थन देता है, अंगरेजी माध्यम का स्कूल खोलता है, मदरसों और संस्कृत के छात्रों को वजीफे देता है. यही वह दरभंगा है, जो अपने सांप्रदायिक सौहार्द पर गर्व करता है, जहां 1947 और 1992 के कठिन समय में भी दंगे नहीं हुए. यही दरभंगा इन दिनों सुर्खियों में है. सौभाग्य या दुर्भाग्य से, वह देश के उन आधा दर्जन शहरों में शामिल हो गया है, जिस पर खुफिया एजेंसियों और पुलिस की पैनी नजर है. वजह है, यहां से हाल-फिलहाल के वक्फे में हुई कई गिरफ्तारियां. ‘आजमगढ़ बना आतंकगढ़’ जैसे शीर्षकों के बाद अब मीडिया ‘दरभंगा बना दहशतगर्दो का ठिकाना’ जैसी हेडलाइंस का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहा है.

इस शहर के लोग इससे बहुत ही अधिक आहत हैं. शहर के उर्दू मोहल्ले में मुसलमानों की घनी आबादी रहती है. यहां रहनेवाले इम्तियाज की कपड़ों की दुकान है. वह बातचीत के क्रम में कहते हैं, ‘जनाब, यहां न तो आतंकवाद की कोई बड़ी घटना हुई है, न ही गोला-बारूद या बम बनाने के सामान का जखीरा मिला है. फिर भी, सरकारी नुमाइंदों को न जाने कहां से यह इलहाम हो गया है कि यहां के नौजवान दहशतगर्दी की तरफ झुक रहे हैं.’ इम्तियाज लगे हाथों मीडिया को भी कोसने से नहीं चूकते हैं. कहते हैं कि सेंशेसन के इस दौर में कंफर्मेशन जरूरी ही नहीं रह गया है.

पिछले दो वर्षों में दरभंगा और आसपास, कहें तो मिथिलांचल से करीब दो दर्जन नौजवान आतंकववाद से कनेक्शन के आरोपों में गिरफ्तार हो चुके हैं. दरभंगा जिले के ही एक गांव बाढ़ समेला से पांच लोगों की गिरफ्तारी हुई है. 2000 की आबादी वाले इस गांव में 600 मुसलमान हैं. एक कतील सिद्दीकी की जान पुणो के जेल में जा चुकी है, जबकि 29 वर्षीय फसीद महमूद की गिरफ्तारी काफी चर्चा में रही थी. उसे सऊदी पुलिस के सहयोग से गिरफ्तार किया गया था. वैसे, इस गांव के कई लोग इस धरपकड़ को फर्जी ठहराने से नहीं चूकते हैं. उनका कहना है कि गिरफ्तार किये गये ज्यादातर युवकों का कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं है. तो, क्या आजमगढ़ के बाद सचमुच दरभंगा की बारी आ गयी है? क्या, दरभंगा वास्तव में दहशदगदरें की पनाहगाह बन गया है? क्या, दरभंगा अपनी धवल पहचान को मिटाकर केवल आतंक की नर्सरी के तौर पर जाना जाने लायक रह गया है? शहर में घूमने पर इन सारे सवालों का जवाब ‘ना’ के रूप में ही मिलता है. यहां की फिजा में न बोङिालपन है, न ही इन गिरफ्तारियों से उपजी पहचान से यहां के नागरिक ही इत्तफाक रखते हैं.

दरभंगा मिल्लत कॉलेज के प्रिंसिपल मुश्ताक अहमद की मानें, तो यह घटनाएं महज आपवाद हैं, इससे पूरे शहर को या आम मुसलमानों से जोड़ना सही नहीं है. वह कहते हैं,‘इन गिरफ्तारियों से सबसे अधिक खुशी मुसलिम समाज को हुई है. आतंकी, दरअसल शांतिप्रिय जगहों को ही ढूंढ़ते हैं, ताकि पुलिस और खुफिया विभाग की उन पर नजर न पड़े. इसी वजह से, पिछले दो-तीन वर्षो से यह हो रहा है. लेकिन जांच एजेंसियों को पूरी सावधानी से काम करना चाहिए और अंधेरे में तीर नहीं चलाना चाहिए. वह मुलजिम और मुजरिम का फर्क भी बताते हैं और मीडिया और एजेंसियों को जल्दबाजी से काम न लेने की सलाह भी देते हैं. शहर के मुसलमानों की बात चलने पर प्रोफेसर मुश्ताक हमें इसलाम की शिक्षा, ‘हुब्बुल वतन मिनल ईमान’ यानी मातृभूमि से मुहब्बत करना ही मुसलमान का ईमान है, बता कर शहर के दामन पर लगे दागों को महज कुछ छींटे बताते हुए खारिज कर देते हैं. हालाांकि वह यह भी कहते हैं कि उन कारणों की पहचान की जानी चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए, जिसके कारण कुछ युवक भटक रहे हैं.

यहां के समाज का बड़ा तबका एक सुर से इसे ज्ञान-विज्ञान का केंद्र बताता है, और आतंक की नर्सरी के तौर पर इसकी पहचान को सिरे से खारिज कर देता है. आंकड़ों के लिहाज से दरभंगा जिले की आबादी का 22 फीसदी हिस्सा मुसलमानों का है, यानी 30 लाख में से साढ़े छह लाख. शहरी आबादी का भी एक चौथाई हिस्सा मुसलमानों का ही है. यह ऐतिहासिक शहर उन चंद शहरों में से है, जहां मुसलमान बेहतर हालात में हैं. तो, क्या यह पहचान ही इसके संकट के मूल में है? ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में हिंदी के पूर्व अध्यक्ष डॉ अजीत कुमार वर्मा दरभंगा को आतंक की नर्सरी बताने से आहत हैं. वह कहते हैं, ‘मिथिला की पहचान इसके सारस्वत व्यक्तित्व से है. यह मूल्यों को लेकर जीनेवाला शहर है, इसलिए इसकी पहचान भी जल्द नहीं बदलती.

यही वजह है कि दरभंगा में बाजार नहीं उगा, ज्ञान-प्रसार के केंद्र उगे.वर्मा जी की बात से सहमति जताते हुए स्थानीय सीएम आर्ट्स कॉलेज के छात्र रजत सिंह कहते हंै, ‘पुरानी बातें छोड़ दीजिए, आज यहां एलएनएमयू और संस्कृत विश्वविद्यालय हैं. भारत का शायद इकलौता संस्कृत शोध संस्थान भी यहीं है. दरभंगा, मेडिकल कॉलेज अस्पताल के अलावा टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज है. सबसे बड़ी बात है कि यह शहर पढ़ने-लिखनेवालों, देश-विदेश में अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी धाक जमानेवाले नौजवानों का शहर है.’ इस छात्र की बातें आपको सोचने पर मजबूर करती हैं.

दरभंगा की पहचान दरअसल इसके शांत और स्थिर स्वभाव में है. काशी की तरह ही यह शहर भी अपनी रफ्तार से चलता है और बहुत जल्द नहीं बदलता है. यही इसकी खूबी है, यही इसका मूल है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दरभंगा ठहरा हुआ शहर है. आज यहां चार मॉल हैं, लकदक दुकानें हैं, अच्छे रेस्त्रं हैं, सड़कों पर चमचमाती गाड़ियां हैं और फैलने को आतुर शहर है. ठहरा हुआ पानी और शहर तो अपनी मौत की ओर बढ़ते हैं, दरभंगा इस मामले में जुदा है. वह अधुनातन और पुरातन का सामंजस्य करता, सबको पचाने की क्षमता वाला शहर है.

शहर के डॉ गणपति मिश्र दरभंगा को एक शब्द में पारिभाषित करते हुए इसकी व्याख्या ‘ज्ञान’ के तौर पर करते हैं. वह यहां हिंदुओं और मुसलमानों के परस्पर सौहार्दपूर्ण, बल्कि अन्योनाश्रित संबंध की ओर भी इशारा करते हैं. वह कहते हैं, ‘दरभंगा में ज्ञान के महत्व का इससे अधिक प्रमाण क्या होगा कि दरभंगा- राज की स्थापना करनेवाले महेश ठाकुर को शहंशाह अकबर ने उनकी विद्वता की वजह से राय का खिताब और जमींदारी अता की थी. डॉ मिश्र दरभंगा के अद्भुत धार्मिक सामंजस्य का हवाला देते हुए ही ‘झगड़ौआ मसजिद’ का भी जिक्र करते हैं. यह मसजिद राजा के किले रामबाग में है, और इसकी वजह से राजा ने अपने किले की दीवार टेढ़ी कर ली थी. ज्यादातर लोग इसे धार्मिक सहिष्णुता से जोड़ कर देखते हैं.

यह आपसी सहयोग अकबर के जमाने से वर्तमान काल तक चला आ रहा है. यहां तक कि राजा लक्ष्मीश्वर सिंह को रामबाग, दरभंगा में अपनी नयी राजधानी बनाने के लिए जमीन भी दरभंगी खां ने मुहैया करायी थी, जो तत्कालीन जमींदार थे. कुछ लोग दरभंगा का नाम उनसे भी जोड़ते हैं. आज भी मुहर्रम में किए जाने वाले मातम के एक स्वरूप को ‘झजिया नृत्य’ ही कहते हैं और जाहिर तौर पर इसे करनेवाले हिंदू होते हैं. कई हिंदुओं के घरों में बाला पीर की भी पूजा होती है और हिंदू बच्चे ही जंगी बनकर हा हुसैन, हा हुसैन का मातम भी करते हैं.

डॉ गणपति मिश्र हमें याद दिलाते हैं कि लक्ष्मीश्वर सिंह के समय भी सर गंगानाथ झा के साथ ही अब्दुल समत को भी छात्रवृत्ति दी गयी (1882 ईस्वी) थी, ताकि वे अपनी शिक्षा पूरी कर सकें. दरभंगा में दरअसल, हिंदू-मुसलिम पहचान इतनी सहजता से और अभिन्न तरीके से रहती है, कि इसे कभी मसला बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ी.

दरभंगा सामयिक संदर्भ में भी अपनी शैक्षिक विरासत पर गर्व करता है. एमएलएसएम कॉलेज में हिंदी के लेरर सतीश कुमार सिंह कहते हैं,‘आज के दौर में भी यहां मानस बिहारी वर्मा जैसे वैज्ञानिक हैं, जो देश को लड़ाकू विमान देने के प्रोजेक्ट को साकार करने में जुटे. यहां के अमित रंजन के आलेख- ‘अ डे इन द लाइफ ऑफ स्लम ड्वेलर्स’ को जर्मनी की सरकार ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है.

अपनी शैक्षिक विरासत के साथ ही इस शहर को अपने सांप्रदायिक सद्भाव पर भी नाज है. 1947 में बंटवारे के भीषण वक्त भी यहां दंगे नहीं हुए और जब 92 में पूरा देश जल रहा था, तब भी यहां महज एहतियातन कुछ घंटों का कफ्यरू लगाया गया था. हालांकि, दंगे तब भी नहीं भड़के और यही शायद दरभंगा की सबसे बड़ी विरासत है. चलते-चलते दरभंगा के भविष्य को लेकर एक शेर जेहन में कौंधता है-

‘जो गम हद से जियादा हो, खुशी नजदीक होती है/ चमकते हैं सितारे, रात जब तारीक होती है.’

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