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प्रकाश से भी तेज यात्रा करेगा ‘वार्प ड्राइव इंजन’ चार घंटे में चांद पर!

ब्रह्मंड के रहस्यों को समझने के लिए कई देशों ने अपने-अपने अंतरिक्षयान भेजे हैं, लेकिन इनकी गति की एक सीमा है. इस कारण इसके अपेक्षित नतीजे के लिए लंबा इंतजार करना होता है. परंतु ‘नासा’ ने ‘वार्प ड्राइव’ नामक एक ऐसी इंजन तकनीक विकसित की है, जिसके जरिये भविष्य में अंतरिक्ष यान महज चार घंटे […]

ब्रह्मंड के रहस्यों को समझने के लिए कई देशों ने अपने-अपने अंतरिक्षयान भेजे हैं, लेकिन इनकी गति की एक सीमा है. इस कारण इसके अपेक्षित नतीजे के लिए लंबा इंतजार करना होता है. परंतु ‘नासा’ ने ‘वार्प ड्राइव’ नामक एक ऐसी इंजन तकनीक विकसित की है, जिसके जरिये भविष्य में अंतरिक्ष यान महज चार घंटे में चांद पर और महज 70 दिनों में मंगल ग्रह पर पहुंच जायेगा. इस इंजन की तकनीक और इसके कार्य-सिद्धांत समेत इससे जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
दिल्ली : हमारी पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों पर पहुंचना और वहां के बारे में जानना प्राचीन काल से ही इंसान के लिए गहरी दिलचस्पी का विषय रहा है. चांद के दर्शन तो हम नियमित रूप से करते हैं, लेकिन चांद की सतह पर सैर करना एक सदी पहले एक कल्पना ही था. इस कल्पना को हकीकत में बदलने के लिए तत्कालीन सोवियत संघ की अंतरिक्ष एजेंसी ने चंद्र मिशन का आरंभ किया और 2 जनवरी, 1959 में ल्यूना-1 नामक पहला यान लॉन्च किया था. हालांकि, यह यान रास्ते में भटक गया और सूर्य की कक्षा में पहुंच गया. लेकिन इसके नौ माह बाद ही ल्यूना-2 इस मकसद में कामयाब रहा.
इस यान ने 12 सितंबर, 1959 को चंद्रमा की सतह पर उतरने में कामयाबी हासिल की थी. इसके बाद अमेरिका ने भी इस दिशा में तेजी से काम शुरू कर दिया. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी की ओर से अपोलो-8 और अपोलो-10 को बिना मनुष्य के चांद की कक्षा में भेजा गया, ताकि वे तस्वीरें भेज सकें. फिर मानवयुक्त यान भेजने की तैयारी शुरू हुई और 20 जुलाई, 1969 को अपोलो-11 ने पहली बार मनुष्य को चांद तक पहुंचाया.
इसके बाद कई देशों ने चांद पर अपने अंतरिक्ष यान को भेजना शुरू किया. हालांकि, अब तक जितने भी यान वहां गये हैं, उन्हें वहां पहुंचने में काफी समय लगा है, लेकिन अब अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन ‘नासा’ ने एक ऐसा ‘वार्प ड्राइव’ इंजन विकसित किया है, जिसके जरिये न केवल चंद्रमा पर यात्राियों को ले जाया जा सकता है, बल्कि महज चार घंटे में वहां तक पहुंचा जा सकता है.
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रोपल्शन ड्राइव
‘नासा’ के वैज्ञानिकों ने हाल ही में कहा है कि उन्होंने इलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रॉपल्शन ड्राइव (इएम ड्राइव) सिस्टम का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है. यह एक ऐसा डिवाइस है जो वार्प ड्राइव के कॉन्सेप्ट पर काम करता है, और इसमें प्रकाश की गति से भी ज्यादा तेजी से ट्रैवल करने की क्षमता होती है. वैज्ञानिकों ने उम्मीद जतायी है कि इस क्रांतिकारी आविष्कार से इंसान प्रकाश की गति से भी ज्यादा तेजी से अंतरिक्ष की यात्रा कर पायेगा. हालांकि, अभी इस तकनीक का केवल परीक्षण ही किया गया है, लेकिन भविष्य में इसके माध्यम से न के वल हमारी आकाशगंगा में मौजूद ग्रहों, बल्कि इससे इतर ग्रहों पर भी अंतरिक्षयान को भेजने में सफलता मिल सकती है.
‘नासा स्पेसफ्लाइट डॉट कॉम’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नासा के जॉनसन स्पेस सेंटर ने इस तरह के अनोखे समङो जा रहे परीक्षण को अंजाम दिया है. पिछले साल डॉ हेरोल्ड व्हाइट के नेतृत्व में एक एडवांस्ड प्रोपल्शन रिसर्च ग्रुप ने वैज्ञानिक और तकनीकी समुदायों के माध्यम से जॉनसन स्पेस सेंटर में इस विषय पर परिचर्चा आयोजित की गयी थी और 28 से 30 जुलाई, 2014 के बीच ओहियो के क्लीवलैंड में ज्वाइंट प्रोपल्शन कान्फ्रेंस में इसके नतीजों को दर्शाया गया था.
हार्ड वैक्यूम में परीक्षण
नासा इगलवर्क इंजीनियर पॉल मार्च के हवाले से ‘टेक टाइम्स’ की रिपोर्ट में बताया गया है कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी ने हार्ड वैक्यूम में इएम ड्राइव का परीक्षण किया है. बिना स्टैंडर्ड फ्यूल का इस्तेमाल किये हुए इलेक्ट्रिकल एनर्जी को थ्रस्ट में तब्दील करके इस ड्राइव को संचालित किया गया था. इएम ड्राइव विकसित करने वालों ने ऊर्जा हासिल करने के लिए इसमें सोलर एनर्जी का उपयोग किया.
थ्योरी पर सवाल
हालांकि, इस परीक्षण की वैधता पर भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं, क्योंकि समझा यह जा रहा है कि वास्तविक में यदि ऐसा हुआ है, तो इएम ड्राइव ने क्लासिकल फिजिक्स में लॉ ऑफ कंजर्वेशन ऑफ मोमेंटम से इतर व्यवहार दर्शाया है. दरअसल, लॉ ऑफ कंजर्वेशन ऑफ मोमेंटम के मुताबिक, किसी सिस्टम पर यदि कोई बाहरी बल आरोपित नहीं किया जाता है, तो उसकी गति स्थिर बनी रहती है. यही कारण है कि पारंपरिक रॉकेट को लॉन्च करते समय प्रोपेलेंट का सहारा लिया जाता है.
पिछले कुछ दशकों के दौरान अमेरिका, यूके और चीन के शोधकर्ताओं ने इएम ड्राइव का टेस्ट किया है, लेकिन इसके नतीजे काफी विवादित रहे हैं, क्योंकि इस मामले को लेकर कोई भी यह तय नहीं कर पाया कि आखिरकार यह सिस्टम काम किस तरह से करता है. लेकिन ‘नासा स्पेसफ्लाइट डॉट कॉम’ के मुताबिक, नासा ने इएम ड्राइव का निर्माण करने में सफलता पायी है. वहीं दूसरी ओर ‘डेली मेल’ ने लिखा है कि तकनीकी फोरम पर इस योजना के संबंध में चर्चा करने वालों में ज्यादातर नासा के इंजीनियर ही शामिल हैं. इस कारण भी नासा की यह योजना विवादों में रही है.
इंजन के विकास की कहानी
पहली बार वर्ष 2000 में लंदन के रोजर सॉयर इस कॉन्सेप्ट को लेकर आये और उस समय एकमात्र चीनी वैज्ञानिकों के समूह ने उनके इस कॉन्सेप्ट को गंभीरता से लिया. वर्ष 2009 में इस टीम ने कथित रूप से 720 मिलिन्यूटन के बराबर थ्रस्ट पैदा किया, जिसे सेटेलाइट थ्रस्टर के तौर पर पर्याप्त माना जाता है. लेकिन उस समय तक किसी को यह विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने इस तरह की उपलब्धि किस तरीके से हासिल कर ली है. पिछले वर्ष यह उस वक्त सुर्खियों में आया जब पेनसिलवानिया के एक वैज्ञानिक गाइडो फेटा और उनकी टीम ने नासा इगलवर्क्‍स के साथ एक शोधपत्र प्रकाशित किया, जिसमें यह दर्शाया गया कि पूर्व में उल्लेख किये गये सिद्धांत के मुताबिक ही इस इंजन पर काम किया गया है.
हालांकि, उस समय महज 30 से 50 माइक्रोन्यूटन का थ्रस्ट पैदा किया जा सका था, जो मौजूदा समय में इस कार्य के लिए जरूरी थ्रस्ट (अंतरिक्षयान की लॉन्चिंग के लिए जरूरी धक्का) के मुकाबले काफी कम था. बताया गया है कि पूर्व में इएम ड्राइव मॉडल की जो आलोचना की गयी थी, उसका कारण यही था कि इतने कम थ्रस्ट से किसी भी परीक्षण कार्य को निर्वात में अंजाम नहीं दिया जा सकता. भौतिकी के सिद्धांत के मुताबिक, क्वांटम वैक्युम के पार्टिकल्स को आयोनाइज्ड नहीं किया जा सकता है. और इस प्रकार इसे विपरीत दिशा में इतनी तादाद में धक्का नहीं दिया जा सकता. लेकिन नासा के हालिया परीक्षण में ऐसा होना मुमकिन करार दिया गया है.
नासा के शोधकर्ताओं ने अपने शोधपत्र में लिखा है- ‘नासा ने हार्ड वैक्युम में इएम ड्राइव का सफल परीक्षण किया है और ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी संगठन ने इस तकनीक का सफल परीक्षण किया हो. इस तरह नासा इगलवर्क्‍स ने इस प्रचलित परिकल्पना को निरस्त कर दिया है कि थर्मल कनवेक्शन के कारण ही ऐसा हो पाता है.’ उन्होंने यह भी लिखा है कि भौतिक विज्ञान में कई ऐसे असंगत सिद्धांत हैं, जो वर्षो तक निरंतर अंजाम दिये जाने वाले वैज्ञानिक शोधकार्यो के नतीजों से बदल जाते हैं यानी भविष्य में उन सिद्धांतों में बदलाव आ जाता है.
समानता का अद्भुत संयोग
विज्ञान कथाओं के जनक समङो जाने वाले जूल्स वर्न ने अपनी एक कहानी ‘पृथ्वी से चंद्रमा तक’ में आज से करीब डेढ़ शताब्दी पहले जो कल्पना की थी, आगे चल कर वह सच के बेहद करीब पायी गयी थी. उस समय हवाई जहाज का आविष्कार नहीं हुआ था, लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि इस कहानी में लिखे गये तथ्य करीब 100 वर्ष बाद चांद की ओर छोड़े गये अपोलो-8 नामक अंतरिक्ष यान से बहुत मिलते-जुलते थे.
जूल्स वर्न की कहानी में अंतरिक्षयान को अमेरिका के फ्लोरिडा से छोड़े जाने का जिक्र किया गया है, जबकि वास्तव में ‘अपोलो-8’ नामक अंतरिक्षयान को वर्ष 1968 में अमेरिका से ही छोड़ा गया.
इस कहानी के यान और अपोलो-8 की ऊंचाई भी बराबर यानी 3.6 मीटर थी. कहानी के यान का भार 5,540 किलोग्राम और अपोलो-8 का भार 5,568 किलोग्राम था. जूल्स की लिखी गयी कहानी के अंतरिक्ष यान ने पृथ्वी से चंद्रमा तक 3,82,000 किलोमीटर की यात्रा पूरी की, जबकि अपोलो-8 ने चांद तक पहुंचने के क्रम में 3,60,000 किलोमीटर की यात्रा की. दरअसल, ग्रहों के घूमते रहने के कारण एक ग्रह से दूसरे के बीच की दूरी में बदलाव आता रहता है. जूल्स वर्न ने अपनी कहानी में दर्शाया है कि चांद पर न हवा है और न जीवन. वहां चट्टानें और गड्ढे हैं. वर्ष 1969 में चांद पर उतरनेवाले यात्राी नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन ने भी यही बताया.
चांद की सतह पर पहला कदम
चांद पर मनुष्य का पहला कदम 21 जुलाई, 1969 को पड़ा, जब अमेरिकी अंतरिक्ष यात्राी नील आर्मस्ट्रांग चांद पर कदम रखनेवाले पहले मनुष्य बने थे. चांद की सतह पर अपना बायां पांव रखने के बाद नील आर्मस्ट्रांग ने ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा था- ‘एक मनुष्य का छोटा सा कदम, पर मनुष्यता के लिए बहुत बड़ी छलांग.’
उन्होंने चांद की सतह को कोयले के चूरे की तरह बताया. जहां उनका यान उतरा था, वहां करीब एक फुट गहरे गड्ढे हो गये. इस ऐतिहासिक क्षण को उनके यान पर लगे कैमरे ने कैद किया. उतरने के फौरन बाद आर्मस्ट्रांग ने सबसे पहले चांद की सतह की तस्वीरें लीं और उसकी मिट्टी के कुछ नमूने एकत्र किये.
नील आर्मस्ट्रांग के उतरने के 20 मिनट बाद उनके दूसरे साथी एडविन एल्ड्रिन चांद की सतह पर उतरे. इन दोनों अंतरिक्ष यात्रियों ने चांद की सतह पर अमेरिका झंडा लहराया और राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के हस्ताक्षर वाली एक पट्टिका भी गाड़ी. इस पट्टिका पर लिखा था- ‘यहां पृथ्वी गृह से मनुष्य ने जुलाई, 1969 में पहली बार आकर कदम रखा था. ऐसा उन्होंने सभी मनुष्यों के लिए शांति की कामना के साथ किया था.’
इएम ड्राइव तकनीक का अनुप्रयोग
इस प्रोपल्शन ड्राइव का अनुप्रयोग कई कार्यो-मसलन लॉ अर्थ ऑर्बिट (एलक्ष्ओ) के दायरे में किये जानेवाले कार्यो, चंद्रमा और मंगल समेत आउटर सोलर सिस्टम में भेजे जानेवाले मिशनों व तारों की यात्रा के लिए भेजे जानेवाले मल्टी-जेनरेशन स्पेसशिप के लिए उपयोगी साबित हो सकता है.
इन अनुप्रयोगों के संदर्भ में इएम ड्राइव टेक्नोलॉजी की क्षमता का इस्तेमाल लॉ अर्थ ऑर्बिट में मौजूद इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से जुड़े कार्यो के लिए भी किया जा सकता है. दरअसल, इस तकनीक के प्रोपेलेंट-रहित प्रोपल्शन की मदद से इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर खपत होनेवाली ईंधन की मात्र में बेहद कमी लायी जा सकती है.
इसका एक अन्य फायदा यह होगा कि इससे इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के ढांचे पर मौजूदा बोझ में कमी आयेगी और इस तरह से भविष्य में इस स्टेशन की कार्यक्षमता को और ज्यादा बढ़ाया जा सकता है. इसी तरह से इएम ड्राइव टेक्नोलॉजी को पृथ्वी के आसपास चक्कर काटने वाले जियोस्टेशनरी ऑर्बिट सेटेलाइट (जीइओ) पर भी लागू किया जा सकता है.
छह किलोवॉट सोलर पावर क्षमता वाले एक टिपिकल जियोस्टेशनरी कम्युनिकेशंस सेटेलाइट के पारंपरिक विशाल इंजन को इएम ड्राइव तकनीक वाले इंजन से बदला जा सकता है, जिसमें पहले के मुकाबले कम थ्रस्ट की जरूरत होगी. बताया गया है कि इससे लॉन्च मास (भार) को 3 टन से घटा कर 1.3 टन तक किया जा सकता है.
साथ ही लॉ अर्थ ऑर्बिट में सेटेलाइट को लॉन्च किया जा सकेगा, जहां इसके सोलर उपकरणों और एंटीना को लगाया जा सकता है. और तब इएम ड्राइव इसे प्रोपेल करते हुए यानी जोर से धकेलते हुए महज 36 दिनों में इसे जियोस्टेशनरी ऑर्बिट में भेज पायेगा. इस तरह का यान अपने साथ दो से छह यात्राियों को ले जाने में सक्षम होगा और हाइड्रोजन व ऑक्सीजन आधारित ईंधन का इस्तेमाल करते हुए महज चार घंटों में पृथ्वी की सतह से चंद्रमा की सतह तक पहुंच जायेगा.
70 दिनों में मंगल की यात्रा
अन्य ग्रहों पर अंतरिक्षयान भेजने के मिशन के तहत नासा के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि मंगल मिशन के लिए भविष्य में इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकेगा. इसके लिए 0.4 न्यूटन प्रति किलोवाट के थ्रस्ट/ पावर इनपुट वाले इएम ड्राइव से युक्त 2 मेगावॉट न्यूक्लियर इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन स्पेसक्राफ्ट का इस्तेमाल किया जा सकेगा. इस डिजाइन से बनाये गये यान से मंगल तक महज 70 दिनों में पहुंचा जा सकता है.
इएम ड्राइव इंजन का कॉन्सेप्ट
इएम ड्राइव इंजन का कॉन्सेप्ट न केवल अन्य इंजनों की तुलना में सरल है, बल्कि इसकी कामयाबी एक असंभव को संभव बनाने जैसा होगा, क्योंकि इसके लिए बड़ी मात्र में इंधन की जरूरत भी नहीं होगी. किसी स्पेसक्राफ्ट को लॉन्च करते वक्त यह उसे ऊपर भेजने में माइक्रोवेव्स के माध्यम से जोर लगाता है. माइक्रोवेव्स को सोलर एनर्जी के माध्यम से ऊर्जा मुहैया करायी जाती है.
इसका मतलब यह हुआ कि इसके लिए किसी प्रोपेलेंट की जरूरत नहीं होती है. इसके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं. उदाहरण के तौर पर ईंधन को ढोने की जरूरतों के लिहाज से मौजूदा सेटेलाइट के आकार को आधा किया जा सकता है.
इसके अलावा, अंतरिक्ष में इंसानों को भी ले जाया जा सकता है और रास्ते में यह खुद अपने लिए प्रोपल्शनपैदा कर सकता है. हालांकि, पहले शोधकर्ताओं का मानना था कि अंतरिक्ष के निर्वात में यह सिस्टम काम नहीं कर पायेगा, लेकिन नासा के वैज्ञानिकों ने ऐसा करके दिखा दिया है.

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